Category: ऋग्वेद:

ऋग्वेद 1.25.6

तदित्समानमाशाते वेनन्ता न प्र युच्छतः। धृतव्रताय दाशुषे॥6॥ पदपाठ — देवनागरी तत्। इत्। स॒मा॒नम्। आ॒शा॒ते॒ इति॑। वेन॑न्ता। न। प्र। यु॒च्छ॒तः॒। धृ॒तऽव्र॑ताय। दा॒शुषे॑॥ 1.25.6 PADAPAATH — ROMAN tat | it | samānam | āśāteiti | venantā | na | pra | yucchataḥ | dhṛta-vratāya | dāśuṣe देवता —        वरुणः;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        शुनःशेप आजीगर्तिः  मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती ये (प्रयुच्छतः) आनन्द करते हुए (वेनन्ता) बाजा बजानेवालों के (न) समान सूर्य औरवायु (धृतव्रताय) जिसने सत्यभाषण आदि नियम वा क्रियामय यज्ञ धारण किया है,उस (दाशुषे) उत्तम दान आदि धर्म करनेवाले पुरुष के लिये (तत्) जो उसका होम मेंचढ़ाया हुआ पदार्थ वा विमान आदि रथों की रचना (इत्) उसी को (समानम्) बराबर(आशाने) व्याप्त होते हैं॥6॥ भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती इस मन्त्र में उपमालंकार है। जैसे अति हर्ष करनेवाले बाजे बजाने में अति कुशल दोपुरुष बाजों को लेकर चलाकर बजाते हैं वैसे ही सिद्ध किये विद्या के धारण करनेवालेमनुष्य से होमे हुये पदार्थों को सूर्य और वायु चालन करके धारण करते हैं॥6॥ रामगोविन्द त्रिवेदी (सायण भाष्य के आधार पर) 6. यज्ञ करनेवाले हव्यदाता के प्रति प्रसन्न होकर मित्र और वरुण यह साधारण हव्य ग्रहण करते हैं, त्याग नहीं करते। Ralph Thomas Hotchkin Griffith 6. This, this with joy they both accept in common: never do they fail The ever-faithful worshipper.  Translation of...

ऋग्वेद 1.25.5

कदा क्षत्रश्रियं नरमा वरुणं करामहे। मृळीकायोरुचक्षसम्॥5॥ पदपाठ — देवनागरी क॒दा। क्ष॒त्र॒ऽश्रिय॑म्। नर॑म्। आ। वरु॑णम्। क॒रा॒म॒हे॒। मृ॒ळी॒काय॑। उ॒रु॒ऽचक्ष॑सम्॥ 1.25.5 PADAPAATH — ROMAN kadā | kṣatra-śriyam | naram | ā | varuṇam | karāmahe | mṛḷīkāya | uru-cakṣasam देवता —        वरुणः;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        शुनःशेप आजीगर्तिः  मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती हम लोग (कदा) कब (मृळीकाय) अत्यन्त सुख के लिये (उरुचक्षसम्) जिसको वेदअनेक प्रकार से वर्णन करते हैं और (नरम्) सबको सन्मार्ग पर चलानेवाले उस(वरुणम्) परमेश्वर को सेवन करके (क्षत्रश्रियम्) चक्रवर्त्ति राज्य की लक्ष्मी को (करामहे)अच्छे प्रकार सिद्ध करें॥5॥ भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती मनुष्यों को परमेश्वर की आज्ञा का यथावत् पालन करके सब सुख और चक्रवर्त्तिराज्यन्याय के साथ सदा सेवन करने चाहियें॥5॥                   यह सोलहवां वर्गपूरा हुआ॥ रामगोविन्द त्रिवेदी (सायण भाष्य के आधार पर) 5. वरुणदेव बलवान् नेता और असंख्य लोगों के द्रष्टा हैं। सुख के लिए हम कब उन्हें यज्ञ में ले आयेंगे? Ralph Thomas Hotchkin Griffith 5. When shall we bring, to be appeased, the Hero, Lord of warrior might, Him, the far-seeing...

ऋग्वेद 1.25.4

परा हि मे विमन्यवः पतन्ति वस्यइष्टये। वयो न वसतीरुप॥4॥ पदपाठ — देवनागरी परा॑। हि। मे॒। विऽम॑न्यवः। पत॑न्ति। वस्यः॑ऽइष्टये। वयः॑। न। व॒स॒तीः। उप॑॥ 1.25.4 PADAPAATH — ROMAN parā | hi | me | vi-manyavaḥ | patanti | vasyaḥ-iṣṭaye | vayaḥ | na | vasatīḥ | upa देवता —        वरुणः;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        शुनःशेप आजीगर्तिः  मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती हे जगदीश्वर ! जैसे (वयः) पक्षी (वसतीः) अपने रहने के स्थानों को छोड़-छोड़ दूरदेश को (उपपतन्ति) उड़ जाते हैं (न) वैसे (मे) मेरे निवास स्थान से (वस्यइष्टये) अत्यन्त धन होने के लिये (विमन्यवः) अनेक प्रकार के क्रोध करनेवाले दुष्टजन (परापतन्ति) (हि) दूर ही चले जावें॥4॥ भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती इस मन्त्र में उपमालंकार है। जैसे उड़ाये हुए पक्षी दूर जाके बसते हैं वैसे हीक्रोधी जीव मुझसे दूर बसें और मैं भी उनसे दूर बसूँ जिससे हमारा उलटा स्वभाव और धर्म की हानि कभी न होवे॥4॥ रामगोविन्द त्रिवेदी (सायण भाष्य के आधार पर) 4. जिस तरह चिड़ियाँ अपने घोसलों की ओर दौड़ती हैं, उसी तरह हमारी क्रोध-रहित चिन्तायें भी धन-प्राप्ति की ओर दौड़ रही हैं। Ralph Thomas Hotchkin Griffith 4. They flee from me dispirited, bent only on obtaining wealths As to...

ऋग्वेद 1.25.3

वि मृळीकाय ते मनो रथीरश्वं न संदितम्। गीर्भिर्वरुण सीमहि॥3॥ पदपाठ — देवनागरी वि। मृ॒ळी॒काय॑। ते॒। मनः॑। र॒थीः। अश्व॑म्। न। सम्ऽदि॑तम्। गी॒भिः। व॒रु॒ण॒। सी॒म॒हि॒॥ 1.25.3 PADAPAATH — ROMAN vi | mṛḷīkāya | te | manaḥ | rathīḥ | aśvam | na | sam-ditam | gīrbhiḥ | varuṇa | sīmahi देवता —        वरुणः;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        शुनःशेप आजीगर्तिः  मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती हे (वरुण) जगदीश्वर! हमलोग (रथीः) रथवाले के (संदितम्) रथ में जोडे हुए(अश्वम्) घोड़े के (न) समान (मृळीकाय) उत्तम सुख के लिये (ते) आपकेसम्बन्ध में (मनः) ज्ञान (विषीमहि) बांधते हैं॥3॥ भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती इस मन्त्र में उपमालंकार है। हे भगवन् जगदीश्वर! जैसे रथके स्वामी का भृत्यघोड़े को चारों ओर से बांधता है वैसे ही हम लोग आपका जो वेदोक्त ज्ञान हैउसको अपनी बुद्धि के अनुसार मन में दृढ़ करते हैं॥3॥ रामगोविन्द त्रिवेदी (सायण भाष्य के आधार पर) 3. वरुणदेव, जिस प्रकार रथ का स्वामी अपने थके हुए घोड़े को शान्त करता है, उसी प्रकार सुख के लिए स्तुति-द्वारा हम तुम्हारे मन को प्रसन्न करते हैं। Ralph Thomas Hotchkin Griffith 3. To gain thy mercy, Varuna,...

ऋग्वेद 1.25.2

मा नो वधाय हत्नवे जिहीळानस्य रीरधः। मा हृणानस्य मन्यवे॥2॥ पदपाठ — देवनागरी मा। नः॑। व॒धाय॑। ह॒त्नवे॑। जि॒ही॒ळा॒नस्य॑। री॒र॒धः॒। मा। हृ॒णा॒नस्य॑। म॒न्यवे॑॥ 1.25.2 PADAPAATH — ROMAN mā | naḥ | vadhāya | hatnave | jihīḷānasya | rīradhaḥ | mā | hṛṇānasyamanyave देवता —        वरुणः;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        शुनःशेप आजीगर्तिः  मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती हे वरुण जगदीश्वर! आप जो (जिहीळानस्य) अज्ञान से हमारा अनादर करे उसके (हत्नवे)मारने के लिये (नः) हम लोगों को कभी (मा रीरधः) प्रेरित और इसी प्रकार (हृणानस्य)जो कि हमारे सामने लज्जित हो रहा है उसपर (मन्यवे) क्रोध करने को हम लोगों को(मा रीरधः) कभी मत प्रवृत्त कीजिये॥2॥ भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती ईश्वर उपदेश करता है कि हे मनुष्यो ! जो अल्पबुद्धि अज्ञान जन अपनी अज्ञानता से तुम्हारा अपराध करें तुम उसको दण्ड ही देने को मत प्रवृत्त और वैसे ही जो अपराधकरके लज्जित हो अर्थात् तुमसे क्षमा करवावे तो उसपर क्रोध मत छोड़ो किन्तु उसकाअपराध सहो और उसको यथावत् दण्ड भी दो॥2॥ रामगोविन्द त्रिवेदी (सायण भाष्य के आधार पर) 3. वरुण! अनादरकर और घातक बनकर तुम हमारा वध नहीं करना। क्रुद्ध होकर हमारे ऊपर क्रोध नहीं करना। Ralph Thomas Hotchkin Griffith 2 give us not as a prey to death, to be destroyed by thee in wrath, To thy fierce anger when displeased.  Translation of Griffith...

ऋग्वेद 1.25.1

यच्चिद्धि ते विशो यथा प्र देव वरुण व्रतम्। मिनीमसि द्यविद्यवि॥1॥ पदपाठ — देवनागरी यत्। चि॒त्। हि। ते॒। विशः॑। य॒था॒। प्र। दे॒व॒। व॒रु॒ण॒। व्र॒तम्। मि॒नी॒मसि॑। द्यवि॑ऽद्यवि॥ 1.25.1 PADAPAATH — ROMAN yat | cit | hi | te | viśaḥ | yathā | pra | deva | varuṇa | vratam | minīmasi | dyavi-dyavi देवता —        वरुणः;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        शुनःशेप आजीगर्तिः  मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती हे (देव) सुख देने (वरुण) उत्तमों में उत्तम जगदीश्वर ! आप (यथा) जैसे अज्ञान से किसीराजा वा मनुष्य के (विशः) प्रजा वा सन्तान आदि (द्यविद्यवि) प्रतिदिन अपराध करते हैंकिन्हीं कामों को नष्ट कर देते हैं वह उनपर न्याययुक्त दण्ड और करुणा करता है वैसेही हम लोग (ते) आपका (यत्) जो (व्रतम्) सत्य आचरण आदि नियम हैं (हि) उनकोकदाचित् (प्रमिणीमसि) अज्ञानपन से छोड़ देते हैं उसका यथायोग्य न्याय (चित्) औरहमारे लिये करुणा करते हैं॥1॥ भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती इस मन्त्र में उपमालंकार है। हे भगवन् जगदीश्वर ! जैसे पिता आदि विद्वान् और राजाछोटे-छोटे अल्पबुद्धि उन्मत्त बालकों पर करुणा न्याय और शिक्षा करते हैं वैसे ही आपभी प्रतिदिन हमारे न्याय करुणा और शिक्षा करनेवाले हों॥1॥ रामगोविन्द त्रिवेदी (सायण भाष्य के आधार पर) 1. जिस तरह संसार के मनुष्य वरुणदेव के व्रतानुष्ठान में भ्रम करते हैं, उसी तरह हम लोग भी दिन-दिन प्रमाद करते हैं। Ralph Thomas Hotchkin Griffith 1. WHATEVER law of thine, O God, O...