ऋग्वेद 1.26.7

प्रियो नो अस्तु विश्पतिर्होता मन्द्रो वरेण्यः। प्रियाः स्वग्नयो वयम्॥7॥

पदपाठ — देवनागरी
प्रि॒यः। नः॒। अ॒स्तु॒। वि॒श्पतिः॑। होता॑म्। म॒न्द्रः। वरे॑ण्यः। प्रि॒याः। सु॒ऽअ॒ग्नयः॑। व॒यम्॥ 1.26.7

PADAPAATH — ROMAN
priyaḥ | naḥ | astu | viśpatiḥ | hotām | mandraḥ | vareṇyaḥ | priyāḥ | su-agnayaḥ | vayam

देवता —        अग्निः ;       छन्द        विराड्गायत्री ;      
स्वर        षड्जः;       ऋषि         शुनःशेप आजीगर्तिः 

मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
हे मनुष्यो ! जैसे (स्वग्नयः) जिन्होंने अग्नि को सुखकारक किया है वे हम लोग(प्रियाः) राजपुरुष को प्रिय हैं जैसे (होता) यज्ञ का करने कराने (मन्द्रः) स्तुति के योग्य धर्मात्मा (वरेण्यः) स्वीकार करने योग्य विद्वान् (विश्पतिः) प्रजा का स्वामी सभाध्यक्ष (नः) हमको प्रिय है वैसे अन्य भी मनुष्य हों॥7॥

भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
जैसे हम लोग सबके साथ मित्रभाव से वर्त्तते और ये सब लोग हम लोगों के साथ मित्रभाव और प्रीति से सब लोग वर्त्तते हैं वैसे आप लोग भी होवें॥7॥

रामगोविन्द त्रिवेदी (सायण भाष्य के आधार पर)
7. सर्व-प्रजा-रक्षक, होम-सम्पादक, प्रसन्न और वरेण्य अग्नि हमारे प्रिय हों, ताकि हम भी शोभन अग्नि से संयुक्त होकर तुम्हारे प्रिय बने।

R T H Griffith
7. May he be our dear household Lord, Priest, pleasant and, choice-worthy may We, with bright fires, be dear to him. 

Translation of Griffith Re-edited  by Tormod Kinnes
May he be our dear household Lord, priest, pleasant and, choice-worthy may We, with bright fires, be dear to him. [7]

H H Wilson (On the basis of Sayana)
7. May the lord of men, the sacrificing priest, the gracious, the chosen, be kind to us; may we, possessed of holy fires, be loved of you.

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