इतिहास और इतिहास की समझ
– संजीव कुमार
इतिहास अतीत से किस तरह भिन्न है, हमारे लिये यह भी सोचने का उचित विषय है। संभव है दोनो अभिन्न हों क्योंकि दोनो ही बीत गये, विगत से संबधित हैं। लेकिन अतीत तो हर घटना, व्यक्ति या विचार का हो सकता है। सब तो इतिहास में नहीं बदलता। फिर कब अतीत इतिहास में बदल जाता है और कब वह मात्र बीता हुआ रह जाता है इसे कौन तय करता है? अतीत के जो टुकड़े इतिहास बन जाते हैं वे फिर उस अतीत से कैसे जुड़ते हैं, क्या यह भी हमें नहीं सोचना चाहिये? हम जिस इतिहास से परिचित हैं, उसमें हमें ये और ऐसे ही प्रश्न कभी मिलते क्यों नहीं हैं? यदि मिलते हैं तो वे हमारी स्मृति का हिस्सा क्यों नहीं हैं? प्रश्नों की यह श्रंखला इतिहास की तरह ही अविच्छिन्न और विस्तृत है।
इतिहास से जुड़ी एक रोचक बात यह है कि विगत की यह यात्रा हम सदा अपने समय से आरंभ करते हैं। हम कभी वहां जाकर नहीं देखना चाहते हैं कि वहां क्या हुआ होगा? हम सदा वहां पहुंचकर बीते हुये में अपना अंश, अपना हिस्सा देखना, सूंघना चाहते हैं। किसी बीते हुये समय में हमारे होने का भला क्या औचित्य है? हमारी भावना, हमारी आत्मा कैसे वहां हो सकती है जहां हम उसे देख लेना चाहते हैं! यह विवेक का अतिक्रमण नहीं है? महत्वपूर्ण तो यह भी है कि ये पंक्तियां इतिहास से संबंधित हैं या साहित्य से? यदि हमारा विषय इतिहास है तो भावना, आत्मा, देखना, सूंघना जैसी अभिव्यक्ति यहां क्यों होनी चाहिये और यदि हमारा विषय साहित्य है तो हम बार बार इतिहास का उल्लेख क्यों कर रहे हैं?
वास्तव में इतिहास कोई विषय नहीं है, कोई विज्ञान नहीं है। यह हमारी जिज्ञासा की विभिन्न विषयों के द्वारा पूर्ति का प्रयास है। शायद ही आप इससे सहमत हों लेकिन तर्कसंगत स्थिति यही है। विगत काल के किसी खण्ड में कोई घटना, कोई परिवर्तन होता है जिसका उल्लेख हमारे सामने किसी प्रकार आ जाता है। हम उस प्रसंग का आकलन उसके अनुकूल विषय की प्रविधि और सिद्धांतों की सहायता से करने लगते हैं। लेकिन जो बात हमारे लिये रुचिकर बन जाती है वह है इतिहास के नाम से की गई पुनर्कल्पना। वह निसंदेह साहित्य की किसी कृति की भांति रोचक, पठनीय और भावाकुल कर देने वाली होती है। हम उनमें मात्र इतना अंतर कर पाते हैं कि साहित्यिक रचना को नितांत काल्पनिक मान लेते हैं और इतिहास की रचना को वास्तविक या वास्तविकता से बहुत मिलती जुलती। उसके वास्तविक होने का विश्वास ही उसे पढ़े जाने के बहुत बाद तक उसका हमारी स्मृति में बने रहने का कारण होता है।
तो क्या इतिहास का कोई साहित्यिक मूल्य भी होता है? हमारी समझ तो यह नहीं कहती। हम इतिहास के प्रसंगों को ठीक उसी प्रकार याद रख पाते हैं जिस प्रकार अपने जीवन के महत्वपूर्ण प्रसंगों को, निसंदेह ब्यौरों और व्याख्याओं सहित। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार हम उन्हीं ब्यौरों को याद रख पाते हैं जिनकी वास्तविकता में हमारा विश्वास सकारात्मक हो अर्थात् उनके वास्तविक होने, सत्य होने का हमें विश्वास हो। हमारा अनुभव भी इस सिद्धांत की पुष्टि करता है। हम अन्य लोगों के साथ घटी घटनाओं को इतने विस्तार से याद नहीं रख पाते जितनी अपने साथ घटी घटनाओं को क्योंकि वे हमारे अनुभव का हिस्सा होती हैं। उनकी सत्यता के साक्षी हम स्वयं होते हैं। तो क्या इतिहास की विश्वसनीयता हमारे मन में हमारे मित्रों, परिजनों से अधिक होती है? साहित्य को तो हम मानते ही हैं कल्पनाजनित निर्माण। इसलिये हम उसके विवरणों को शायद ही याद रख पाते हों यद्यपि साहित्य हमारी भावना और बुद्धि का रख रखाव व पुनर्निर्माण करता है। साहित्य ही अपने व्यक्त और अव्यक्त रूप में हमारी आत्मा की पूर्ति का रूपक होता है, हमारी चेतना का उचित विस्तार भी। हमारी चेतना में समंजित साहित्य ही इतिहास से हमारी आत्मीयता बढ़ाता है। क्यों और किस तरह, इस पर पाठक अवश्य विचार करें।
इतिहास एक ऐसी चेष्टा है जिसमें हम अपने समय से चलकर विगत के किसी प्रसंग या अवसर तक पहुंचने का प्रयास करते हैं। यह अपने समय से चलना एक विशेष बात है। कुछ लोग जो वैज्ञानिक ढंग के अधिक पक्षधर होते हैं वे इसे भिन्न शब्दों में व्यक्त करते हैं। उनका कहना है कि इतिहास वस्तुतः हमारे पास ज्ञानमीमांसा की प्रविधि और उपकरणों की जो जमापूंजी है उसके सहारे अतीत के अवशिष्ट अंश का विश्लेषण और पुनर्रचना का प्रयास है। लेकिन इतिहास के लेखन और अध्ययन में केवल इतना ही नहीं किया जाता। यदि हम इतना ही मात्र करते होते तो इतिहास में इतना वैविध्य नहीं होता, न ही इतनी पुनर्व्याखयायें होतीं। सच यह है कि हम अपने समय को साथ लेकर अतीत की यात्रा करते हैं और उसमें अपने छूट गये अंश का मिलान करते हैं। उसमें अपने कुछ की पहचान करते हैं। अपने की यह पहचान ही इतिहास की साहित्यिक प्रकृति का निर्माण करती है। इतिहास की साहित्यिक प्रकृति उसे अधिक स्वीकार्य, अधिक बोधगम्य और इसीलिये अधिक समस्यात्मक बनाती है।
हम अपने साथ अपने समय को किस रूप में लेकर चलने का प्रयास करते हैं। वे कौन सी चीजें हैं जो अतीत की यात्रा में हमारे पास होती हैं? यद्यपि वे हमारे साथ होती हैं पर क्या हम उनके होने को लेकर सचेत होते हैं? इन प्रश्नों के उत्तर उन चीजों को पहचानने में छुपे हैं जो हमारे समय का और प्रकारान्तर से हमारे स्व का, साथ ही हमारे निकट स्थित एक और अन्य या पर का निर्माण करती हैं। क्योंकि मनोविज्ञान का यह सुस्थापित सिद्धांत है कि किसी ‘स्व’ की पहचान या निर्धारण तभी संभव है जब उसकी स्थिति का किसी ‘पर’ या ‘अन्य’ के सापेक्ष निर्धारण किया जा सके। इस विषय में हम देखेंगे कि देश और धर्म हमारे समय के दो सर्वव्यापी और स्वीकृत ‘सत्’ हैं जो हमारे वर्तमान का निर्माण करते हैं। ये वे दो अक्ष हैं जिनके सापेक्ष हमारी सत्ता सदा होती है और समझी जाती है।
अच्छा हो यदि हम दो भिन्न प्रसंगों से इसे समझने का प्रयास करें। यदि इस प्रयास में कोई कटु अनुभव होता है तो उसे हमें अनदेखा करेंगे क्योंकि हमारा लक्ष्य अपनी चेतना को समृद्ध करने का होना चाहिये न कि नकात्मक भावों से उसे कुचलने का। निसंदेह इनमें एक प्रसंग पहले ‘सत्’ देश से जुड़ा है और दूसरा प्रसंग दूसरे ‘सत्’ धर्म से। इन दोनों के प्रस्तुत उल्लेख प्रसंग क्यों हैं और इतिहास की प्रकृति को समझने में हमारी किस प्रकार सहायता करते हैं? यह भी समझने का प्रयास हम करेंगे।
सबसे पहले हम ‘देश’ के बारे में बात करेंगे। धरती पर आज देश एक सुस्थापित सिद्धान्त है। हर व्यक्ति का एक देश निश्चित है। उस देश से उसका परिचय और पहचान जुड़ी हुई है। देश के विधि विधान, नागरिकता और पारपत्र उसकी पहचान को निर्धारित करते हैं। विभिन्न देशों के नागरिक न केवल अपने बल्कि अन्य देशों की भौगौलिक सीमाओं से परिचित हैं। लेकिन हमारे प्रयोजन से जुड़ा प्रश्न यह है कि क्या सदा से ऐसा रहा है? क्या वे देश जो आज हैं अतीत में उसी प्रकार स्थित थे? यह बात कि विगत समय में हमारा देश था या नहीं था अथवा किंचित भिन्न स्वरूप में था, उस विगत समय से हमारा संबंध ठीक उसी प्रकार बनाती है, जिस प्रकार हम आज अपने देश से संबंध रखते हैं। यह विषय बहुत बड़ा है और मनोविज्ञान, समाजशास्त्र जैसे बहुत से विषयों से जुड़ा हुआ है। हमारे लिये यह संभव नहीं है कि हम यहां उसका विस्तार से विवेचन कर सकें।
‘देश’ एक ऐसी सत्ता है जो लोगों को ठीक उसी प्रकार बांधती है जिस प्रकार कुल। ठीक जिस प्रकार अतीत में जाकर कुल के संबंध सूत्र धूमिल पड़ जाते हैं और वायवीय होकर लुप्त हो जाते हैं, उसी प्रकार देश की सत्ता अतीत में खो सी जाती है। फिर हम कुल पर कैसे गर्व करते हैं? इसके लिये नृजातीय कथायें और कतिपय बड़े व्यक्तियों के जीवन वृतांत ही सूत्र के रूप में काम करते हैं। देश के विषय में यही भूमिका उसके प्राचीन साहित्य और उसमें उल्लिखित प्रसंगों की होती है। इसलिये जहां वर्तमान में हमारा देश वह भौगौलिक स्थान होता है जिसमें हम रहते हैं, वहीं अतीत में हमारा देश उन जराजीर्ण ग्रन्थों में सन्निविष्ट रहता है जिनकी ओर हम शायद ही कभी ध्यान देते हों! कुछ शिथिल ढंग से हम कह सकते हैं कि हमारा देश हमारे साहित्य में निहित रहता है।
एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह भी है कि क्या ये दोनो देश अर्थात् अतीत और वर्तमान का देश सदैव समान होते हैं? यह हर उदाहरण के लिये सत्य नहीं है। मारीशस और सूरीनाम के व्यक्तियों के लिये या अमेरिका, न्यूजीलेण्ड के नागरिकों के लिये उनका वर्तमान देश और उनके अतीत का देश दो पृथक सत्ताएं हैं। उनका इतिहास उनके वर्तमान से, संभवतः उनके भविष्य से भी असंबंधित है। ऐसी स्थिति में इतिहास के प्रति उनकी मनोदशा उन लोगों से कितनी भिन्न होगी जिनके दोनो देश समान हैं, यह विचारणीय है। ऐसी परिस्थितियां किस प्रकार हमारे जीवन पर प्रभाव डालती हैं? ऐसे प्रश्न न केवल इतिहास बल्कि समाज विज्ञानों के लिये भी अत्यधिक गंभीर महत्व के हैं।
ऐसे भी लोग हो सकते हैं जिनके दो या अधिक देश हों। वैसे ही जैसे हमारे दो या अधिक कुल होते हैं। मातृकुल, पितृकुल और कभी कभी वह कुल भी जिसमें हमारा पालन पोषण होता है। लेकिन एक से अधिक जो कुछ होता है उसके लिये यदि सही शब्द का चयन किया जायेगा तो कहा जायेगा अपने आत्म को इतिहास में रख देना क्योंकि अन्य सभी विकल्प हमें अतीत से मिलते हैं। देश भी, गोत्र भी और गर्व या शर्म भी। दिलचस्प बात यह है कि यह दूसरे देश कभी कभी नकार भी दिये जाते हैं। हमारे समय में पाकिस्तान इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। तब क्या होता है जब किसी देश के नागरिक अपने देश की सत्ता को इतिहास में नकार देते हैं? यह प्रश्न इस बात को समझने के लिये बहुत जरूरी है कि इतिहास किस तरह हमें बांधता है?
अतीत हमें जोड़ता है। इस बात को हम अपने अतीत में सहजता से देख सकते हैं। हमारे सारे सम्बन्धों के सूत्र हमारे अतीत में निहित होते हैं। हमारी मां वह स्त्री है जिसने बीत गये समय में हमें पैदा किया। अतीत में किन्हीं स्त्री पुरुष का मिलना हुआ। कुछ अन्य लोगों की उपस्थिति और अनुमोदन से उनकी सम्बद्धता हुई। बहुत पहले चले गये लोगों द्वारा निर्धारित ढंग से रस्मो रिवाज दोहराये गये जिससे उनकी सम्बद्धता एक अधिक निश्चित सम्बन्ध, विवाह में बदली और हम अस्तित्व में आये। इसी प्रकार हमारे भाई बहन या अन्य कौटुम्बिक सम्बन्धी अतीत में हुई किसी घटना या कर्म की निष्पत्ति होते हैं। इतिहास की भाषा में इसका निरूपण कुछ इस तरह होगा कि विगत के तथ्य वर्तमान के रूप और दिशा का निर्धारण करते हैं।
ठीक इसी तरह से आधुनिक देशों का जन्म हुआ है। जिन तथ्यों का उपयोग कर एक निश्चित भूभाग के लोगों ने पारस्परिक सम्बन्ध को स्वीकार किया, उन्हीं तथ्यों की व्याख्याओं ने देश बनाये। यदि हम आज के संसार को ध्यान से देखें तो हमें वहीं अधिक कलह और बिखराव दिखेगा जहां लोगों के पास या तो इतिहास से सुसंगत जुड़ाव नहीं है या किसी कारण से उन्होंने अपने ही इतिहास को नकार दिया है।
देश के इस विचार को कुछ समय के लिये स्थगित कर अब हम एक दूसरी महत्वपूर्ण सत्ता ‘धर्म’ को देखते हैं। धर्म भी मानव जीवन में संगठन या बिखराव का बड़ा कारण है। साधारण व्यक्तियों के लिये यह बड़ी प्रेरक शक्ति है। सामर्थ्यशाली व्यक्तियों के लिये यह सम्पत्ति जैसा ही प्रबल हथियार है। धर्म कितना ही अस्पष्ट और अतार्किक हो लेकिन यह समाजों को परिभाषित करने, उनकी पहचान बनाने की सामर्थ्य रखता है।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि धर्म अतार्किक भय से जन्म लेता है। धार्मिक विवरण और आखयानों में हम निरंतर भयभीत करनेवाली शक्तियों से मनुष्य के पक्षधरों को लड़ते देखते हैं। ये पक्षधर अज्ञात और संयोग के भय का प्रतिकार करते हैं जो निश्चित ही मनुष्य के नियंत्रण से परे हैं। इसीलिये ये देव हैं, फरिश्ते हैं। पर धर्म इससे भिन्न कुछ है और निश्चित रूप से है। यह भिन्नता धर्मों के उस औपचारिक रूप में निहित है जो न केवल धार्मिक पाठ के अर्थ का निर्धारण करता है बल्कि उसके अनुयायियों को अनुशासित भी करता है।
प्रायः सभी धर्मों का एक आदि प्रारूप और धर्मग्रन्थ होता है। इतिहास के तथ्यों की तरह ही असंखय धर्म है जो अपने आदि प्रारूप तक ही सीमित रह गये। धरती पर ऐसे असफल धर्मों की संखया कम नहीं हैं। हमारे समय तक लेकिन कुछ ही धर्म आ पाये हैं। यह कोई संयोग है या सफल धर्मों का वैशिष्टय, यह भिन्न विषय है। हमारे लिये देखने की बात यह है कि धर्म हमें किन अर्थों में संगठित या विघटित करता है।
धर्मों के इतिहास में धर्मग्रन्थ की उपस्थिति एक स्थायी तथ्य की तरह होती है। लम्बी और सुदीर्घ परम्परायें धर्मग्रन्थों और उनमें वर्णित आखयानों की व्याख्याओं से भरी होती हैं। साधारण मनुष्य इनसे प्रायः पूरी तरह अनभिज्ञ होता है। धर्मग्रन्थ की अनगढ़ रचना से पढ़कर कुछ हासिल करना भी उसके लिये संभव नहीं होता। फिर भी वह अपने धर्म से किसी भी मूल्य पर चिपका रहना चाहता है। तो यह कौन सी शक्ति है जो धर्म को इतना महत्वपूर्ण बनाती है। और पहली सत्ता ‘देश’ से इसका क्या संबंध है? यह भी विचारणीय है।
किसी व्यक्ति के लिये या कुछ व्यक्तियों के लिये स्थानीय स्तर पर धर्म ठीक उसी तरह पहचान और स्थिति का निर्धारण करता है जिस तरह हमारे समाज में जाति करती है। धरती पर लोगों को धर्म से संगठन के निर्देश, परंपरायें और रीति रिवाज मिलते हैं। हम जो विभिन्न जातियों में बंट कर रहने के अभ्यस्त हैं, अपनी जातियों से वही निर्देश और सांगठनिक आधार प्राप्त करते हैं जो भारत से बाहर लोग अपने धर्म से प्राप्त करते हैं। हमारे धर्म लोगों को संगठित करने पर, उनकी अन्य मनुष्यों से भिन्न पहचान सुनिश्चित करने पर ध्यान नहीं देते, उसे बाध्यकारी नहीं बनाते लेकिन जाति इस काम को पूरी कट्टरता से करती है।
वे धर्म जिनका आदि स्रोत भारत से बाहर है मानव समाज का स्पष्ट विभाजन करते हैं। अपनों और परायों के लिये वहां स्पष्ट निर्देश और व्यवहार के प्रारूप हैं। उनके लिये ‘हम’ हर हाल में ‘अन्य’ से अच्छा और पक्षपोषणीय है। यहां तक कि इन ‘अन्यों’ से निरंतर संघर्षरत रहने, युद्ध की स्थिति में रहने के लिये कहा गया है। स्पष्टतः भारत में जो काम जाति करती है, भारत से बाहर वही काम धर्म करता है। वस्तुतः अभारतीय धर्म भारतीय जाति की तरह ही मजबूती से संगठित किंतु उसके विपरीत उन्माद की हद तक हिंसक और क्रूर और सामाजिक दृष्टि से बिखराव के लिये बाध्यकारी हैं।
यों सभी धर्म अपने अनुयायियों पर कर्तव्य और संगठन का भार रखते हैं। लेकिन अभारतीय धर्म इस विषय में अधिक कठोर हैं। उनमें संगठन की चेतना और अनुशासन की बाध्यता किसी भी मानवीय दायित्व से अधिक महत्वपूर्ण और अपरिहार्य है। इसके अतिरिक्त किसी भी अन्य पहचान के लिये उनमें अत्यधिक प्रतिरोध है। ईसाई धर्म के अनुशासन से मुक्ति के लिये यूरोपीय राष्ट्रीयताओं को सदियों तक संघर्ष करना पड़ा। वे विजयी हुईं तभी जाकर यूरोप में आधुनिक मानवीय समाज का जन्म हुआ। इस्लाम से राष्ट्रीयतायें नहीं जीत सकीं फलतः इस्लामिक समाज में सभ्यता के लिये लोगों का संघर्ष आज भी जारी है। इन विवरणों में हम देखते हैं कि धर्म एक बड़े और व्यापक किंतु अपवर्जी समाज को बनाने का प्रयास करता है और उसका यह प्रयास ही और अधिक विघटन का कारण बन जाता है।
जन साधारण की चेतना बहुत बड़े समाज के भार को सम्हाल नहीं सकती। उसका दैनिक जीवन पहचानों और रूपों की अनवरत आवश्यकताओं पर निर्भर होता है। उसे न केवल अपनी धार्मिक पहचान बल्कि अपने पड़ोसी से भिन्न पहचान, अपने भाई बहनों से भिन्न पहचान की जरूरत पड़ती है बल्कि उसके अपने अंतर्जगत में उसके भिन्न भिन्न समयों के लिये भी भिन्न पहचानों की जरूरत पड़ती है। धर्म या जाति का संगठन जब बहुत बड़ा हो जाता है ये पहचानें उसमें खोने लगती हैं इसीलिये धर्मों में से संप्रदाय और जातियों में से उपजातियां निकल पड़ती हैं। इसके बावजूद इन संप्रदायों के लिये धर्म प्रतीकों और परिभाषाओं का कच्चा माल मुहैया कराता रहता है। यह कच्चा माल परंपरा और इतिहास के माध्यम से आता है जहां यह इस हद तक परिवर्तित और परिवर्धित हो सकता है कि यह अपने मूल प्रारूप से बिल्कुल विपरीत हो जाये।
एक ही धर्म की विभिन्न स्थानीयताओं में इस बिखराव या भेद का कारण उपरिवर्णित ‘हम’ और ‘अन्य’ या ‘उन’ की धर्म तथा इतिहास की अर्थ सम्बन्धी भिन्नता में निहित है। अभारतीय धर्मों में हम और उन का विभाजन अधिक तीखा, अधिक आक्रामक और आवेगमय होता है। धर्मान्तरित समुदायों या व्यक्तियों के लिये यह एक त्रासद प्रक्रिया होती है क्योंकि उन्हें समाहित करने से पूर्व वे उनके इतिहास को उनसे छीन लेते हैं अथवा उसे छोड़ देने के लिये उन्हें बाध्य करते हैं। ये धर्म जीवन में धर्मान्तरित व्यक्ति का हिस्सा निरंतर कम करने की बात करते हैं। उनसे उनका स्वत्व छीन लेने का प्रयास करते हैं। उनका जीने का ढंग आरोपण और बलाधिकार का ढंग है। उनका लक्ष्य ‘हम’ के देशान्तरव्यापी विस्तार तथा ‘उन’ के उन्मूलन तक है। इसके विपरीत इतिहास हम और उन के मानवीय रूप को अपनाता है। इतिहास का ‘हम’ अधिक स्थानीय होता है। यह कई हमों का सम्मिलन भी हो सकता है और ‘उन’ के साथ सहअस्तित्व को स्वीकार करता है। इतिहास का हम नियत प्रारूप और स्रोत को स्वीकार नहीं करता बल्कि वह कई छोटे बड़े हमों को एक दूसरे में अंतर्विलयित होने, करने के लिये प्रयास करता है। इस परिच्छेद में हम और उन की बात यदि आपको गणितीय प्रतीत हो रही हो तो हम के स्थान पर किसी भी समुदाय या धर्म के नाम को रखकर पढ़ें, आपको बात स्पष्ट हो जायेगी।
इतिहास पर बात शुरू करते समय हमने देखा था कि उसके विवरणों से उसके साहित्य होने का भ्रम होता है। देश की विभिन्न कालों की सत्ता भी उसके साहित्य में ही अधिक प्रभावी और सुसंगत ढंग से अभिव्यक्ति होती है। लेकिन धर्म का मसला इससे बिल्कुल अलग है। धर्म अपने प्रभाव और सत्ता के लिये दो अन्य सत्ताओं पर अत्यधिक निर्भर होता है। ये हैं साहित्य और भाषा। धर्म अपने प्रभाव और सार्थकता के लिये साहित्य से आखयान, प्रतीक, रूपक आदि उधार लेता है और भाषा से अर्थ, गठन की सरंचना और निर्देश सामग्री के लिये प्रारूप आदि। कठिनाई यह है कि साहित्य और भाषा, देश की तरह ही स्थानीय सत्तायें हैं जिनका स्थानांतरण सहज नहीं है। इससे इतना तो होता ही है कि अपने आदि काल में ही धर्म स्थान से आबद्ध हो जाता है, बंध जाता है।
तब क्या होता है जब स्थानबद्ध धर्म किसी न किसी कारण से दूसरे देश, दूसरी भाषा के लोगों के जीवन में प्रवेश करता है? यह एक ऐसी विचित्र स्थिति होती है जिसमें एक स्थान के लोग अपने स्वत्व को कम से कम सैद्धान्तिक रूप से अन्य लोगों के स्वत्व से बदल लेने की हामी भर लेते हैं। किन्हीं अन्य लोगों के देश, साहित्य और भाषा को अपने देश, अपने साहित्य और अपनी भाषा से अधिक महत्वपूर्ण और आदरणीय मान लेने की यह प्रवृत्ति मानवीय स्वभाव के अनुरूप नहीं है। इस कारण से अंतर्विरोध और क्लेश उत्पन्न होता है। यहीं से इतिहास की सामंजस्यकारी और दमनकारी शक्तियों का काम आरंभ हो जाता है। यह क्या है उसे हम तब देखेंगे जब धर्म के प्रभाव की विस्तृत विवेचना करेंगे। अभी हम अपने मूल प्रसंग इतिहास की ओर देखेंगे, यह समझने के लिये कि किस तरह यह हमारे ‘हम’ का निर्माण करता है?
देश और धर्म हमें तभी प्रभावित करते हैं जब हमारा कोई इतिहास होता है। इस अर्थ में इतिहास विज्ञान से पृथक सत्ता है। विज्ञान सार्वभौम होता है। हांलाकि तकनीक सार्वभौम नहीं होती, उसके राजनैतिक और सामाजिक पहलू भी होते हैं। अपने मूल स्वभाव में इतिहास साहित्य के अधिक निकट होता है। विज्ञान के अत्यधिक प्रभाव के इस युग में यह कथन प्रथमदृष्ट्या हास्यास्पद और अतार्किक लग सकता है, लेकिन है नहीं। आज सामाजिक विज्ञान मनुष्य के निकट पहुंच रहे हैं और उन बिन्दुओं पर विचार करने लगे हैं जिन्हें अभी तक वस्तुनिष्ठ सोच से अलग रखा जाता था। ये प्रश्न मानवीय भावना और संवेदना से जुड़े हुये भी हैं, नैतिक विमर्श से जुड़े भी हैं और मनुष्य की सत्ता से जुड़े प्रश्नों यथा गरिमा, अस्मिता, स्वाभिमान को भी विचार के घेरे में रखने के पक्ष में हैं।
इन स्थितियों में इतिहास की सत्ता को धर्म और देश दो सत्ताओं से बड़ी चुनौती मिलती है। इतिहास की हमारी समझ और विषय के रूप में उसकी स्थापना में इन दो सत्ताओं से संघर्ष की अपरिहार्यता को अनदेखा नहीं किया जा सकता। इतिहास हमारे संज्ञान की सत्ताओं को निरंतर एक बड़ी सत्ता में विलय करने के लिये प्रेरित करता है। यह बड़ी सत्ता समग्र मानवता की अंतिम सत्ता के रूप में ही व्याख्यायित की जा सकती है क्योंकि इतिहास उन सभी सीमाओं और परिधियों को आसानी से लांघ जाता है जिन्हें मनुष्य और समुदाय अपने स्वार्थ और लिप्सा की पूर्ति के लिये बनाते हैं। इसलिये इतिहास की हमारी समझ को व्याख्याओं की उन दिशाओं के अनुकूल होना चाहिये जो मानव निर्मित घेरों को तोड़ती है और समग्र मानवता की व्यापकतम परिधि का निर्माण करती है।