वेदों को समझना
कल्पना करते हैं। कल्पना में सुख है।
आपके पास दस हजार जीण शीर्ण पन्ने हैं। इतने जीर्ण शीर्ण कि थोड़ी सी भी असावधानी से फट सकते हैं या अनुपयोगी हो सकते हैं। प्रत्येक पन्ने पर कुछ पंक्तियां लिखी हुईं हैं। इन्हीं में से किसी अथवा किन्हीं पन्नो पर किसी बड़े खजाने के विषय में कुछ संकेत सूत्र भी हैं। आप एक बार में इनके अर्थ का निश्चय नहीं कर सकते क्योंकि उसमें अंकित जानकारी के साथ कुछ शर्ते हैं जो इन पन्नों से बाहर किसी मान लीजिये आपके घर से थोड़ी दूर स्थित किसी जंगल में कहीं अंकित कुछ संकेतों के मिलान से पूरी होती हैं। इन संकेतों के मिलान के बाद पन्नों पर लिखी जानकारी का अर्थ भी बदल सकता है।
दस हजार जीर्ण शीर्ण पन्नों का रख रखाव आपके लिये बहुत कठिन और खर्चीला हो सकता है। लेकिन यह यहां कल्पना का विषय है। इसलिये आप कम से कम इससे तो बचे हुये हैं। लेकिन आपको यदि बार बार जंगल तक जाकर चाहे वह आपके घर से कितना ही पास क्यों न हो, इन संकेतों को पढ़कर आना पड़े और उसके बाद इन पन्नों का नये सिरे से अनुसंधान करना पड़े तो आप क्या सोचते हैं? इसमें कितना समय लग सकता है? खजाना आपको स्वयं से कितना दूर लग रहा है? हमें तो लगता है मोटे से मोटा अनुमान भी आपको आपके जीवनकाल की अवधि से बाहर ले जायेगा। यह संभव नहीं लगता कि आप अपने जीवन में इस खजाने को पा सकेंगे!
फिर क्या करें? कल्पना के धन का एक बार फिर उपयोग किया जा सकता है। इस बार आप अपने साथ दो विश्वस्त व्यक्ति चुन लीजिये। वे आपके सेवक हो सकते हैं या आप उन्हें अपना हिस्सेदार बना सकते हैं। जो भी हों, वे आपके निर्देशों का पालन करते हुये जंगल तक जायेंगे और आपके लिये उन संकेतों, दिशा निर्देशों को लेकर आयेंगे जिनसे आप खजाने के लिये लिखी इबारत की गूढ़ता में आवश्यक अर्थ की खोज कर सकते हैं। इससे आप का काफी समय बचेगा। आप इस बचे हुये समय का कुछ अन्य उपयोग कर सकते हैं। आप इन जीर्ण पन्नों की अच्छे कागजों पर दूसरी प्रति बना सकते हैं। इन पन्नों के लिये कोई सारणी बना सकते हैं जिससे आने वाले संकेतों के अनुरूप या संगत पन्ने को शीघ्रता से खोजा जा सके। आप अभी तक प्राप्त संकेतों को सिलसिलेबार उपयोग करने लायक कोई अन्य तरीका खोज सकते हैं। तब भी आपके पास समय की कमी की समस्या बनी ही रहेगी। क्यों भला?
दस हजार पन्ने यदि जीर्ण शीर्ण न भी हों तब भी एक बड़ी समस्या हैं। उन्हें आप एक अलमारी में या एक बड़े कमरे में शायद ही रख पायें। जीर्ण शीर्ण होने के कारण आपको उन्हें कई बक्सों में और उन बक्सों को कई कमरों में रखना पड़ सकता है। उनके हाथ लगाते ही फट जाने का डर है इसलिये उनका उपयोग और भंडारण करते समय आपको अपनी गति बहुत अधिक धीमी रखने की आवश्यकता है जिससे आपकी सावधानी की चेतना बनी रहे। आपको बार बार उनके निरीक्षण करते रहने, उनकी स्थिति को जांचने परखने की आवश्यकता है जिससे यदि कोई पन्ना नष्टप्राय हो तो आप समय रहते उसकी प्रतिलिपि तैयार कर लें। दुर्भाग्यवश आपके पास उपलब्ध खाली पन्नों की गुणवत्ता भी ठीक नहीं है। इसलिये आपके पास संभवतः बैठकर सुस्ताने के लिये या अपना पेट पालने के लिये धनार्जन करने के लिये भी समय मिलना संभव नहीं लगता। खजाना एक बार फिर आपसे दूर जाता लग रहा है।
मानव जाति के लिये खजाने का आकर्षण आदि काल से ही बड़ा रहा है। संभव है आप इसमें कुछ समय और लगाना चाहें। खजाने की राशि का बड़ा होना आपको कुछ और देर तक ललचा सकता है। लेकिन परिस्थिति निरंतर दुष्कर, तनावप्रद और कठिन होती जा रही है। आपके पास नष्ट, संरक्षित और प्रतिलिपि करने योग्य पन्नों का ढेर बढ़ता जा रहा है। इसके साथ ही उन मंतव्यों, निर्देशों और खोजों का भी जो आप तक आने वाले संकेतों के कारण आपके पास जमा हो रही हैं। अब ऐसे में आपके सहयोगी आपसे किसी सूचना की मांग करने लगें या किसी पन्ने पर लिखी इबारत पढ़कर सुनाने का आग्रह करने लगें जिसे आपको खोजना पड़ेगा या किसी बक्से में से निकालकर देखना पड़ेगा। तब!
नहीं अब और नहीं। यह कल्पना किसी भी दृष्टि से सुखद नहीं है। आप देख रहे हैं और बहुत समय से देख रहे हैं कि आपके चारो ओर बढ़ती अस्तव्यस्तता, अनिश्चितता आपको कमजोर कर रही है। आपकी थकान बढ़ रही है और जीवनशक्ति टूट रही है। खजाना चाहे कितना ही क्यों न बढ़ा दिया जाये लेकिन आपके मन में अब उसके लिये कोई आकर्षण शेष नहीं है। बल्कि आप तो यह चाहते हैं कि आपके पास जो कुछ भी है वह सब ले लिया जाये और आपको इस संभावित खजाने की खोज के भार से मुक्त कर दिया जाये। आप मुक्त होना चाहते हैं। आप मुक्त हो जायें, जो कुछ फल मूल जहां तहां लगे मिलें उन्हें खाकर अपनी पेट की आग बुझायें और अपने परिवार जो यदि अब तक बचा रहा गया हो तो उसकी ओर देखें। इतना सुख ही बहुत है।
चलिये इस बार कल्पना को थोड़ा सरल कर लेते हैं।
आपके घर के पास एक जंगल है। एक दिन आप सपना देखते हैं कि आपके पास किसी दैवीय शक्ति की ओर से एक बड़ा लेखक या विचारक बनने का अवसर आता है। आपको बस इतना करना है कि जागकर उस निकटवर्ती जंगल में जाना है। वहां कुछ हजार पेड़ों पर, जी हां, कुछ हजार, कुछ लिखा हुआ है। हर पेड़ पर कुछ पंक्तियां हैं। उन पंक्तियों में सारगर्भित सूक्तियां हैं। लेकिन उनके क्रम का कोई संकेत नहीं है। इस कल्पना में भी बस इतनी समस्या है कि आपको उनका संचय कर उन्हें किसी उपयोगी क्रम में रखना है। उन्हें समझना है। यदि वे गूढ़ हैं तो उन पर अपनी समझ का विवरण लिख देना है। तभी न वे किसी और को समझ आयेगीं। दुर्भाग्यवश एक समस्या और है। उन्हें अंकित करने के लिये दैवीय सत्ता द्वारा जो कागज उपलब्ध कराये गये हैं वे कुछ छोटे आकार के हैं, उन पर दोनो ओर नहीं लिखा जा सकता है और उन्हें सिलना भी शायद संभव नहीं है। इसके अतिरिक्त उन कागजों का जीवन बहुत छोटा है और वे अच्छी गुणवत्ता के भी नहीं हैं। इसलिये आपको बार बार उनकी प्रति बनानी पड़ती है तथा बार बार जंगल तक भी जाना पड़ सकता है। क्योंकि कई बार आपके लिखे हुये कागज पढ़ने लायक नहीं रह जाते हैं।
कुछ हजार संकेतों को कुछ हजार कागजों में लिखकर कुछ संदूकों में आप बंद तो कर लेते हैं। लेकिन इससे आप बड़े लेखक नहीं बन गये हैं। बड़े लेखक आप तब बनेंगे जब आपके पड़ोसी, नगरवासी और प्रान्तवासी आपके पास संचित ज्ञानराशि का लोहा मानेंगे। इसके लिये आपको अपनी ज्ञानराशि का रख रखाव ठीक से करना पड़ेगा और उसे अधिक उपयोगी स्थिति में लाना पड़ेगा। संतोष की बात है कि लोगों को आपने बताया तो उन्होने आपका विश्वास भी कर लिया। वे आये भी और उन्होने आपका प्रवचन सुना भी। उन्हें अच्छा भी लगा। आपको यश भी मिला और आदर भी। क्या अब आप संतुष्ट हैं। नहीं। यह ज्ञान जीवन के लिये अपरिहार्य नहीं है इसलिये इसके प्रतिफल में आपको जो कुछ मिला उससे जीवन यापन संभव नहीं लगता।
आप पहले ही हजारों पेड़ों पर अंकित ज्ञान का संचय करने में बहुत अधिक समय नष्ट कर चुके हैं। इसके अतिरिक्त आपको उन संदेशों का रख रखाव भी करना पड़ रहा है। लोग किसी भी समय आपके पास आते हैं और आपकी सराहना करते हुये आपसे किसी विशेष संदेश को सुनाने की मांग करते हैं। आप स्वयं को कोसते हुये संदूक दर संदूक छानबीन करते हैं और वांछित संदेश सुनाने बैठ जाते हैं।
इस प्रकार के जीवन का आनंद आप कुछ समय तक ही उठा सकते हैं। इसके बाद आपको किसी ऐसे व्यक्ति या व्यक्तियों की खोज करनी पड़ेगी जो आपके परिवार का बोझ उठा सके। एक बार फिर दुर्भाग्य यह कि इस कल्पना में आधुनिक समय में संभव धनसंचय के साधनों का कोई उल्लेख नहीं है। इसलिये आपको मुद्रायें नहीं वस्तुयें ही मिलेंगीं। वे भी आपका भार बढ़ा सकती हैं।
आपने अनुभव किया कि ये या इस प्रकार की कल्पनायें वास्तव में तनावप्रद और दुखद हैं। इन कल्पनाओं के प्रतिफल के रूप में कल्पित कोई भी संभावना आश्वस्त करनेवाली नहीं है। लेकिन इसमें बीतने वाला जीवन व्यस्तता और तनाव से भरा है। अब हम वास्तविकता के संसार से किसी प्राचीन समय की ओर चलते हैं। यह संसार हमारे किसी भी अनुमान से अधिक साधनहीन, अनिश्चितता से भरा और नियम रहित है। इस संसार में भी हमारी जानकारी के अनुसार सुख और लूट खसोट की संपदा से भरे, परजीवी जन रहते हैं। ये ब्राह्मण हैं।
इन ब्राह्मणों के विषय में हमें बहुत अधिक जानकारियां मिल चुकी हैं। ये उपजीवी अर्थात् दूसरों के उत्पादन को हड़पकर जीवित रहने वाले लोग थे। उनका ज्ञान झूठा था। उन्होंने समाज के बड़े हिस्से को दुख, दासता और अंधेरे में धकेल दिया। उन्होंने लोगों की बुद्धि पर अधिकार कर लिया जिस कारण से उन्होंने दुखी जीवन से विद्रोह नहीं किया। वे निरंतर षडयंत्र करते रहते थे। वे संगठित थे और पीढ़ियों तक संगठित रहे। शायद आज भी वे हैं और उसी तरह व्यापक जनता के विरुद्ध संगठित हैं। उन्होंने ऐसी धार्मिक विधियों की रचना की जो अमानवीय थीं। और ऐसी हीं न जाने कितनी बातें।
अब हम उस विषय वस्तु की ओर आते हैं जिसकी इन ब्राह्मणों ने रचना की। ये शास्त्र हैं, काव्य हैं, दर्शन हैं और वेद हैं। हमने जानबूझकर वेद को अंत में रखा है यद्यपि सभी इस तथ्य को जानते हैं कि वेद से ही यह सब प्रारंभ होता है। इसका कारण यह है कि हम अपनी ओर से चलते हुये वेद तक पहुंचे है। बाद में आने वालीं रचनायें बीच की कड़ियां हैं जिन्हें भुलाया नहीं जाना चाहिये। अब हम फिर शुरू से शुरू करेंगे। और उसको अपनी शुरुआती कल्पनाओं से जोड़कर देखेगें।
वेद हमारे संसार की सबसे आदिम रचना हैं। वे हमारे सामने उपलब्ध हैं। वैदिक साहित्य में चारों वेदों के अतिरिक्त भी बहुत सी सामग्री है जो उपलब्ध है। प्रायः प्रत्येक भारतीय वेदों के विषय में कुछ न कुछ जानता है चाहे वह किसी भी धर्म का अनुयायी हो। लेकिन वेद हमारी रुचि का विषय नहीं हैं। हम हजारों साल पहले के अपने पुरखों द्वारा छोड़ी गई विशाल पाठ्यसामग्री की विशालता का भी अनुभव नहीं कर सकते। हिंदू उन्हें अपना धर्मग्रन्थ मानते हैं। लेकिन शायद ही आप किसी हिन्दू को इस बात के लिये उत्सुक पायें कि वेदों में आखिर क्या है?
वैदिक साहित्य की विशालता चकित कर देने वाली है। लेकिन उससे भी अधिक चकित कर देने वाली है उनके प्रति उदासीनता और उन पर लगाये जाने वाले आक्षेप। उससे भी अधिक चकित कर देने वाली बात है उस पर की जानेवाली बातचीत की मात्रा। यदि वेदों में कथित मंतव्य इतना ही बुरा है तो उसपर इतनी अधिक चर्चा क्यों? उसे भुला क्यों नहीं दिया जाता?
यदि हम बहुत थोड़ी मात्रा में भी उत्सुक हो जायें तो हमें चकित कर देने वाली बातें बहुत हैं। हमारी परंपरा का बहुत बड़ा हिस्सा वेदों को हीन बातों से भरा हुआ और निरर्थक कहता है। इसके बावजूद दूसरी सांस में बड़े गर्व से घोषणा करता है कि उसकी मान्यतायें वेदसम्मत हैं। उनके लिये ऐसी क्या बाध्यता है कि वे स्वयं को वेदों से जोड़ें?
यदि आज के हिंदू धर्म की ओर देखें तो उसके पूरे ढांचे और रीति रिवाजों में शायद ही ऐसा कुछ बचा हो जिसे वैदिक कहा जा सके। इसके विपरीत मंदिर, उत्सव और सामुदायिक विघटन का कोई उल्लेख हमें वेदों में नहीं मिलता। मनुष्यों के वर्णों में विभाजन के उल्लेख को प्रायः जाति प्रथा से जोड़ दिया जाता है लेकिन दोनो व्यवस्थाओं में किसी संबंध को सिद्ध कर पाना कठिन ही रहा है। हमारे बहुत समय से चले आ रहे धार्मिक संप्रदाय वेदोक्त मान्यताओं के विपरीत सिद्धान्तों को मानने वाले हैं, लेकिन इसके बावजूद वे वेदों से स्वयं को दूर नहीं दिखाना चाहते। हम ही वैदिक हैं ऐसा उनका आग्रह रहता है।
विचित्र यह भी लगता है कि हजारों साल पुराने इस साहित्य की भाषा आज भी हमारी भाषाओं के रूप और स्वभाव को बनाती है। हम हजारों ऐसे शब्दों का अपने दैनिक जीवन में प्रयोग करते हैं जो विशाल वैदिक साहित्य में प्रायः उसी अर्थ में प्रयुक्त हुये हैं। समय के इतने अंतराल पर शब्दों के इतनी भारी मात्रा में अतिजीवन का धरती पर कोई दूसरा उदाहरण नहीं है। यदि हम सहृदय हों तो हम सहजता से यह अनुभव कर सकते हैं कि हमारे पुरखे आज भी हमारे गले से बोल रहे हैं। हमारी कविताओं में घूम फिर रहे हैं। हमारी कहानियों और उत्सवों में अपनी सत्ता और सत्व के साथ उपस्थित हैं, भले ही हम उनका तिरस्कार करें, उनकी ओर से उदासीन रहें, हम उन्हें स्वयं से अलगा नहीं सकते। यह बात हर भारतीय के लिये सत्य है चाहे वह हिंदू हो, मुसलमान हो, ईसाई हो या किसी भी जाति का हो। चाहे वह बांग्लादेश में रहता हो, पाकिस्तान में या मारीशस में।
वेदों की विलक्षणता के कई उदाहरण दिये जा सकते हैं। यहां हम ऐसे ही एक प्रसंग का उल्लेख कर रहे हैं। प्रसंग इस प्रकार है,
जब ॠषि इस लोक से जाने लगे तब मनुष्य देवों से पूछने लगे कि हमारे लिये अब कौन ॠषि होगा? उन मनुष्यों के लिये देवों ने मंत्रों के अर्थ करने के विचार साधन से युक्त तर्क को ॠषि के रूप में दिया। अर्थात ॠषियों की अनुपस्थिति में युक्तियुक्त तर्क ही मनुष्यों के लिये ॠषि है। (निरुक्त 13/12) मनुस्मृति के 12 वे अध्याय के 106वे श्लोक में भी इसी धारणा को दोहराया गया है।
किसी अन्य धर्मग्रन्थ के विषय में ऐसी धारणा नहीं मिलती। सामान्यतः विश्वास करना विशेष रूप से अपने धर्मग्रन्थ में वर्णित बातों पर बिना कोई शंका या विचार किये विश्वास करना ही धर्म माना गया है। लेकिन वैदिक धर्म तर्क और विवेक का उपयोग करने पर बल देता है। ॠग्वेद में तो ईश्वर तक के विषय में साफ कह दिया गया है कि वह है भी कि नहीं इसे कोई नहीं जानता। यह विलक्षणता साधारण नहीं है।
ऊपर हमने वैदिक साहित्य की विशालता का उल्लेख किया है। चारों वेदों में 20379 मंत्र हैं। ये लगभग चार हजार से अधिक मुद्रित पृष्ठ होते हैं। हाथ से लिखने पर इनकी पृष्ठ संखया और अधिक बढ़ जायेगी। इन्हें ही यदि ताड़पत्र या भोजपत्र पर लिखा जाये तो यह पृष्ठ संखया दस हजार तक पहुंच सकती है। दस हजार ताड़पत्रों को सम्हालना सरल काम नहीं है। उन्हें पढ़ना, उनका रख रखाव करना और जीर्ण पत्रों को बदल कर उनकी प्रति को यथास्थान क्रमबद्ध करना भी किसी एक मनुष्य के वश की बात नहीं है। इसके अतिरिक्त वेदांगों में संकलित सामग्री को यदि इसमें जोड़ दिया जाये तो यह संखया पचास हजार या उससे भी अधिक पृष्ठों तक पहुंच सकती है।
आज के समय में हम इस पृष्ठ संख्या को कुछ जिल्दों में बांधकर एक अलमारी में रख सकते हैं। शीघ्रता से पृष्ठ पलटकर संबंधित स्थान तक पहुंच सकते हैं। एक पृष्ठ खराब हो जाने पर पूरी पुस्तक ही बदल सकते हैं। साधारण ढंग से रख रखाव करने पर भी आज की पुस्तक बीस से अधिक वर्षों तक उपयोग करने योग्य बनी रहती है। लेकिन हमारे पुरखों को यह सब सुविधायें उपलब्ध नहीं थी। उनके सामने विषम परिस्थिति थीं। उन्हें बस इस आस्था का संबल रहता था कि वे आने वाली पीढ़ियों के हितार्थ, धर्म के निमित्त या ईश्वरीय उद्देश्य की पूर्ति में दुख उठा रहे हैं। उनके अपने समय में भी उनकी पीड़ा को बांटने वाला कोई नहीं था। उनके अनुभवों में यह दुख बार बार व्यक्त होता है।
हमारे समय में यह एक झूठा विश्वास है कि जाति व्यवस्था अनंत समय से परिवारों को ठीक इसी क्रम में बनाये हुये है। जो आज स्वयं को ब्राह्मण कह लेते हैं, उनके पूर्वज सदा से ब्राह्मण ही थे। जो आज ब्राह्मण नहीं हैं उनके पुरखे कभी ब्राह्मण नहीं थे। इस झूठ को हम अपने समय के इतिहास के सामान्य ज्ञान से ही पकड़ सकते हैं। इसके अतिरिक्त जो आज ब्राह्मण हैं वे वास्तविक ब्राह्मणों की दृष्टि से किसी काल में ब्राह्मण होने के पात्र नहीं हो सकते। आज के युग में वेदो का जानकार होना संभव है किंतु ब्राह्मण होना असंभव है। इस सच को और यह सच किस प्रकार हमें प्रभावित करता है इस पर हम फिर विचार करेंगे, हमें तो अभी उन ब्राह्मणों के विषय में विचार करेंगे जो अब लुप्त हो गये हैं।
ऊपर हमने आपको दो प्रकार की कल्पनाओं में भाग लेने के लिये आमंत्रित किया था। उन कल्पनाओं की आरंभिक सरलता और उनके निर्वाह की कठिनाई पर एक बार फिर विचार करें। कल्पना के इस जगत में थोड़ी दूर ही चलने पर आप चलने और न चलने की एक दुविधा में फंस जाते हैं। इस दुविधा में जीवन की पीड़ा है। यह पीड़ा यदि आप अनुभव कर सके तो आप अपने पूर्वजों की पीड़ा को ठीक ढंग से समझ सकेंगे। किस प्रकार उन ब्राह्मणों को दुख, कठिनाई और त्याग से भरा जीवन बिताना पड़ता रहा होगा?
उस समय की कठिनाई को समझने के लिये हमने आपको विशेष ढंग से कल्पना करने के लिये कहा था। समझने का यह ढंग साहित्य से संबंधित है। साहित्य में हम अपने सम्मुख लेखक द्वारा रखी गई कथा या कल्पना से तादात्म्य करते हैं। तादात्म्य का अर्थ बहुत कुछ परकाया प्रवेश जैसा है अर्थात किसी अन्य की पीड़ा या सुख की अनुभूति करने के लिये उसके शरीर में प्रवेश करना। साहित्य हमारे सामने एक काल्पनिक संसार की रचना करता है। पाठक उसके साथ स्वयं को इस प्रकार जोड़ता है कि वह अपनी स्थिति को भूल जाये और उपस्थिति रचना के पात्रों और उनके संसार में पहुंच जाये। सभी पाठक ऐसा नहीं कर सकते। स्वयं को भुलाना आसान नहीं होता। इसके लिये संवेदनशीलता की आवश्यकता पड़ती है। सौभाग्यवश हमारे पास कल्पना करने, तादात्म्य करने और अनुभूत करने की विशेष मनोवैज्ञानिक शक्तियां हैं जिनके द्वारा हम जीवन के विस्तृत रूप का उपभोग कर सकते हैं। निसंदेह अधिक संवेदशीलत पाठक अधिक तादात्म्य कर पाते हैं किंतु अभ्यास से संवेदनशीलता को भी बढ़ाया जा सकता है। अभ्यास से आप साधारण से विशेष अर्थात सहृदय बन सकते हैं। इससे आपकी चेतना का विस्तार होता है और आप अधिक सजग, अधिक चैतन्य और अधिक सक्षम मनुष्य बनते हैं।
यदि आपको अपने पूर्वजों को ठीक से समझना है तो आपको इन्हीं मानसिक शक्तियों से समझना पड़ेगा। तभी आप उनके प्रयासों की महत्ता को समझ सकेंगे। तभी आप जान सकें कि क्यों भारत से दासों का व्यापार नहीं हुआ। क्यों भारत में सामाजिक विद्रोहों और अशान्ति की सूचना लंबे इतिहास में कभी नहीं मिलती। क्यों भारतीयों के बाहर आक्रमणकारी के रूप में बाहर जाने के प्रमाण नहीं मिलते और क्यों भारत से आधी धरती से अधिक बड़े क्षेत्र में सांस्कृतिक प्रसार के साक्ष्य मिलते हैं।
इसके अतिरिक्त हम भारतीय उप महाद्वीप पर मानव जीवन के शान्पिूर्ण सहअस्तित्व को भी तभी समझ सकते हैं। वैदिक भारतीयों ने आरंभ से ही भारत में एक मानवीय समाज का प्रवर्तन किया था। लेकिन आज जब हमने उनसे बिल्कुल मुंह मोड़ लिया है हमारे जीवन में विघटन और वैमनस्य, अंधविश्वास और कटुता अधिकाधिक प्रबल होती जा रही हैं। हमसे यह कहा जाता है कि यह पुराने भारत के कारण है। कितने आश्चर्य की बात है कि वह प्रभाव जो पुराने भारत में कहीं नहीं दिखता वह पुराने भारत से स्वयं को दूर कर चुके नये भारत में है।
हम चाहे किसी भी धर्म के क्यों न हों लेकिन हमारा सांस्कृतिक स्रोत अविच्छिन्न और एक है। यह बात वेदों में वर्णित कामनाओं और प्रार्थनाओं में, उनकी भाषा और अभिव्यक्ति में सरलता से देखी जा सकती है। इसलिये जब हमसे यह कहा जाता है कि ब्राह्मण धर्म ही हमारी समस्याओं का कारण है और उसके बीज वेदों में निहित हैं तो हमें एक बार उस व्यवस्था और उसमें निहित सांस्कृतिक सामग्री पर दृष्टि डालने की आवश्यकता है। इससे पहले कि हम किसी आरोप की दासता स्वीकार कर लें हमें एक बार उस आरोप की शक्यता पर अवश्य विचार कर लेना चाहिये। हमें यह अवश्य जानने का प्रयास करना चाहिये कि वे सारी जटिल सामाजिक संरचनायें जो शोषण और दासता के लिये आवश्यक होती हैं, उस समय संभव हो सकती थीं। यह भी कि क्या वे लोग जिन पर यह आरोप लगाया जाता है इस संभव स्थिति में हो सकते थे कि वे लोगों का शोषण कर सकें। यह भी कि शोषित होने के लिये साधन सम्पन्नता भी थी या नहीं।
इसके अतिरिक्त हमें उन लोगों के दुष्कर जीवन और उनके सोच विचार तक पहुंचने के लिये भी कल्पना शक्ति के उपयोग की आवश्यकता है जो हमारे लिये इतनी विशाल, मानवीय और उदार सांस्कृतिक विरासत छोड़कर गये हैं। हमें उन पीढ़ियों के त्याग और तपस्या के बारे में भी अवश्य सोचना चाहिये जिन्होंने इतनी विपुल साहित्यिक राशि के रख रखाव में अपने जीवन को खपाया।
उपर्युक्त विवरण किस तरह आपके आज के जीवन से और हमारी भावी पीढ़ियों के जीवन से संबधित है, अवसर मिलने पर हम आपके सामने यह भी स्पष्ट करेंगे। अभी तो हमारा आशय केवल आपको उस कठिनाई से परिचित कराना है जो हमारे पूर्वजों के सामने रहीं होंगी। जिन्हें हम केवल इसलिये तिरस्कृत कर देते हैं कि हम अपनी सहूलियतों और उनकी देन से सम्पन्न हैं।
– संजीव कुमार