भारतीय इतिहास की बिडम्बना
ईसाई मिशनरियों के जानने से बहुत पहले संसार ने वेदों के विषय में जान लिया था। यहां तक कि ईसा के जन्म से बहुत पहले मितन्नी और हित्ती राज्य जो वर्तमान तुर्की के अंतर्गत आते हैं, न केवल वैदिक जन को जानते थे बल्कि उनके देवतंत्र में गहन आस्था रखते थे। इतनी गहन कि दोनो राज्यों के बीच हुई संधि में इन्द्र, वरुण, मित्र और नासत्य देवताओं को साक्षी के रूप में रखा गया था। निसंदेह इस पुरातात्विक खोज ने जो ईसा से 1200 सालों से भी पहले एशिया माइनर (आधुनिक तुर्की) में वैदिक जन की उपस्थिति को दर्शाती थी यूरोपियन बाबुओं को अपनी मान्यताओं के पुनर्गठन के लिये बाध्य कर दिया। मानव जाति के लिये यह वह समय था जब न केवल इतिहास का निर्माण किया जा रहा था बल्कि उस पर अधिकार के लिये छीना झपटी भी हो रही थी। निसंदेह यह अतीत और इतिहास के लिये चरम कौतूहल का समय था।
संयोगों का मानव जीवन में और इतिहास में न भुलाया जा सकनेवाला स्थान होता है। एक के बाद एक पोपों की गलतियों और दुराग्रहों ने जब यूरोप में ईसाइयत की सत्ता की जड़ें हिला दीं तो ‘गॉड की भेड़ों’ (बाइबिल में अनुगामियों का यही चित्रण है।) को संसार में अन्यत्र जाने की इच्छा हुई। यह सामन्तों, पादरियों और जनसामान्य तीनों के हित में था इसलिये इसपर सहज ही आम राय बन गई। मिशनरी संसार के कोनो कोनों में फैल गये। उनके साथ व्यापारी थे। सदियों से यूरोप यूरोप से बाहर के संसार पर निर्भर था। कपड़ों के लिये, मसालों के लिये, धातुओं के लिये और हां, सभ्यता के लिये जिसका उल्लेख उसने कभी नहीं किया।
भारत तब भी यूरोप की चेतना में था। बोगाज कुई अभिलेखों ने तो मात्र एक कपटजाल का आवरण भर हटाया था। इसके बाद भी बहुत कुछ मिलना था। रहस्य की परतें धीरे धीरे खुलीं। लेकिन इतिहास की बिडम्बना देखिये कि जब समय ने स्वयं को अनावृत्त कर दिया, आंखों ने सच को देखने की ताब नहीं की और अपने आप को बंद कर लिया। इसके पीछे गांधारी की सतीत्व (या हताशा!) की सनक नहीं थी बल्कि प्रलोभन, धौंस और सत्ता की धमक थी। आंखों का यह तमाशा था बीसवीं सदी का, जबकि आंखें खोलनेवाले सच का रंगमंच सुदूर अतीत में छुपा था, समय की धूल के नीचे, विस्मृति की गहन गुफा में।
हम चार हजार साल पहले की धरती पर लौटते हैं, क्योंकि अब वह हमारे सामने है। चाहे उसे कोई देखे या न देखे। लेकिन यह वैसा संसार नहीं है जैसा हम आज देखते हैं। न ही वे लोग हैं जिन्हें आज हम अधिकार सम्पन्न देखते हैं। यह वह समय है जब यूरोप में न इतिहास है और न ही संस्कृति। यह धरती का वह समय है जब यूरोप हमें किसी जीवाश्म की तरह स्तब्ध, सुप्त अवस्था में दिखाई देता है। हलचल का स्थान है पश्चिम एशिया और अफ्रीका का सन्धि स्थल। हलचल करनेवाली सभ्यतायें हैं मिस्री, मितन्नी और हित्ती (हिट्टाइट)। यही वह समय है जिसने हमें हमारे इतिहास की हरण कर ली गई गरिमा वापस की।
ईसा से डेढ़ हजार वर्ष पहले अर्थात् आज से साढ़े तीन हजार साल पहले मिस्र में रैमसेस द्वितीय का शासन था। इसी समय के आसपास यहूदियों ने मूसा के नेतृत्व में मिस्र से बहिर्गमन किया था। रैमसेस ने उस समय एक विशाल सेना लेकर अपेक्षाकृत एक छोटे साम्राज्य हित्तियों पर आक्रमण कर दिया। इस युद्ध की कहानी बहुत दिलचस्प है। न केवल विवरण में बल्कि उसके परवर्ती इतिहास पर प्रभाव में भी। रैमसेस की सेना बीस हजार जवानों की बड़ी सेना थी जबकि हित्ती राजा मुवुतल्ली द्वितीय अपने निकटवर्ती शासकों को साथ लेकर भी इतनी बड़ी सेना नहीं जुटा सका।
हमारे लिये इस झगड़े में दिलचस्पी के दो बड़े कारण हैं। एक तो यह युद्ध हो रहा था आज के सीरिया और लेबनान पर अधिकार के लिये क्योंकि इनसे होकर भारत के लिये रास्ता जाता था। यही वह मार्ग था जिससे मिस्र और अन्य सभ्यतायें भारत से व्यापार व आदान प्रदान करती थीं। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह थी कि इस युद्ध का लिखित विवरण रखा गया जिसके अभिलेख पुरातत्वविदों द्वारा खोज लिये गये हैं। इन अभिलेखों से उस समय की भाषाओं को पढ़ने में पर्याप्त सहायता मिली। इसके दो महत्वपूर्ण परिणाम हुये। एक तो प्राचीन विश्व के भारत के साथ संबंध के विषय में लिखित प्रमाण मिले। दूसरे यूरोप के इतिहास में भारत की रहस्यमय उपस्थिति की जो गूंज सुनाई देती थी उसकी पुष्टि हुई।
वर्तमान लेबनान सीरिया की सीमा पर ऑर्नेट नदी के किनारे कदेश नाम का शहर था जहां यह अविस्मरणीय युद्ध हुआ था। युद्ध का समय था ईसा से 1275 वर्ष पूर्व और रोमनों के साम्राज्य के रूप में संगठित होने से भी लगभग बारह सौ साल पहले का है। यूरोप के इतिहास में यह समय अंधकार का काल कहा जाता है क्योंकि उस समय यूरोप में न कोई बड़ी गतिविधि दिखाई देती है और न ही कोई उल्लेखनीय मानवीय हलचल। जिस समय यूरोप में अंधकार था, दुनियां व्यापार और आवागमन की हलचल से भरी हुई थी। संस्कृतियां रूप ले रही थीं और सभ्यतायें जन्म ले रही थीं।
मिस्र और हिट्टाइट अपने समय के दो बड़े साम्राज्य थे। इस युद्ध के कारण दोनो का पतन हुआ। इस युद्ध में 5 से 6000 रथारोहियों ने हिस्सा लिया। युद्ध का यद्यपि कोई स्पष्ट निर्णय नहीं हुआ लेकिन अपनी रणनीतिक गलतियों के कारण रैमसेस को पीछे हटना पड़ा। दोनो साम्राज्य एक दूसरे के प्रति नरम पड़े। उनके मध्य संबंध बहाल हुये। जिसके कारण युद्ध के लगभग बीस सालों बाद एक संधि हुई। मानव इतिहास की यह पहली लिखित संधि है जिसके विवरण हमारे पास उपलब्ध हैं। आज संयुक्त राष्ट्र के कार्यालय में इस संधि के प्रारूप को उस समय की भाषा में ही प्रदर्शित करने के लिये महासभा के सचिव की आसंदी के ऊपर टांगा गया है। यह बताने के लिये कि राष्ट्रों के मध्य संधि की वास्तविकता कितनी गरिमामय व प्राचीन है और उसका सदा सम्मान किया जाना चाहिये।
इसी घटनाक्रम से जुड़ी एक और संधि का उल्लेख हमें मिलता है। यह संधि भी आज से साढ़े तीन हजार साल पहले मितन्नी और हित्ती राजाओं के बीच हुई थी। यह संधि हमारे अर्थात् भारतीयों के उस समय के संसार से संबंध को प्रमाणित करती है। इस संधि में दोनो राजा हित्ती शासक सुपिलुलिमा और मितन्नी शासक शात्तिवाज वैदिक देवताओं क्रमशः इन्द्र, वरुण, मित्र और नासत्य(अश्विन) को संधि के साक्षी होने के लिये आमंत्रित करते हैं। ध्यान देने की बात यह है कि यह कोई साधारण अभिलेख नहीं है जिसकी उपस्थिति सांयोगिक या आकस्मिक हो अथवा जिसके वहां होने को किसी भ्रमणकारी व्यक्ति या समुदाय के छूट गये अवशेषों से जोड़ा जा सके। यह दो शासकों के मध्य संधि है जिसकी साक्षी वैदिक देवता दे रहे हैं। यह उक्त सभ्यताओं के उन देवताओं और प्रकारान्तर से वैदिक सभ्यता के प्रति आदर की सर्वोच्च अभिव्यक्ति है। इसे इसी रूप में देखे जाने की आवश्यकता है क्योंकि इससे इतिहास की कई त्रुटियों को सुधारा जा सकता है। पर हमारे लिये इससे जुड़ा महत्वपूर्ण प्रश्न है, आखिर वैदिक देवता भारत से हजारों मील दूर तुर्की तक कैसे पहुंचे?
बोगाजकुई जहां यह अभिलेख मिला है, तुर्की की राजधानी अंकारा से मात्र 150-200 किमी दूर है। तुर्की यूरोप और एशिया का संधिस्थल है। उस समय के विश्व में तुर्की, मिस्र, सीरिया, लेबनान, ईराक और ईरान मानव सभ्यता के प्रकाशित स्थल हैं। इतिहास में हम इनका उल्लेख हिट्टाइट, मितन्नी, अक्कादिन, असीरियन, मिस्री आदि साम्राज्यों के नाम से पढ़ते हैं। मेसोपोटामिया, बेबीलोन, एशिया माइनर वे नाम हैं जिनसे इतिहास की साधारण समझ रखनेवाला व्यक्ति भी परिचित हो जाता है। इन साम्राज्यों से निर्मित विश्व में यूरोप की उपस्थिति दिखाई नहीं देती। यह समय यूरोप के ज्ञात इतिहास में दाखिल होने से भी लगभग हजार साल पहले का है क्योंकि यूरोप का पहला ज्ञात शहर मार्सले फ्रांस में 600 ईसा पूर्व ही अस्तित्व में आया था। इतिहास के इस उद्घाटन ने यूरोप के साम्राज्यवादी अहं को पर्याप्त ठेस पहुंचाई जो कि उस समय अत्यधिक स्फीत अवस्था में था।
इस प्रश्न को समझने के लिये कि वैदिक देवता अपने मूल स्थान से इतनी दूर कैसे पहुंचे, हमारे लिये यह समीचीन होगा कि हम हित्ती और मितन्नी जन के बारे में और उपलब्ध कुछ अन्य साक्ष्यों का एक बार संक्षिप्त अवलोकन कर लें। महत्वपूर्ण यह भी है कि हित्ती साम्राज्य की अन्य शासकों से संधियों में वैदिक देवताओं की उपस्थिति नहीं है। ऐसा केवल मितन्नियों और उनके ही बीच घटित हुआ है। स्पष्टतः वैदिक देवता उनके ही साक्षी होंगे जो उनका आदर करें। ये शासक और उनका समाज वैदिक देवताओं का आदर करता होगा तभी संधि करते समय उनका यह विचार बना होगा कि भावी पीढ़ियां भी इस संधि का सम्मान करें इसके लिये आवश्यक है कि देवता हमारे वचन के साक्षी बनें। इसका यह सीधा निष्कर्ष है जिसे पाश्चात्य इतिहास लेखक झुठला नहीं पाते इसलिये उन्होंने इस पर रणनीतिक मौन धारण कर लिया है। ये दोनो साम्राज्य वैदिक सभ्यता के नियमित संपर्क में थे, ये सभ्यतायें भी। आज का ईरान तो पूरी तरह वैदिक रंग में रंगा था।
ईसा से लगभग 1600 वर्ष पूर्व एशिया माइनर में हित्ती जन दिखाई देते हैं। ये वहां पहुंचनेवाले नये लोग थे। लौह अयस्क को पिघलाकर लोहा बनानेवाले ये पहले लोग थे। हित्ती और वैदिक सभ्यताओं में अत्यधिक साम्य है। दोनो सभ्यतायें कृषि आधारित हैं। महिलाओं की उन्नत सामाजिक भागीदारी और शिल्पियों की उपस्थिति भी दोनो सभ्यताओं में समान है। पर सबसे विचित्र बात हित्ती सभ्यता में विधिक प्रावधानों की उदारता है। यह विशेषता हित्ती समाज की जहां वे थे उस स्थान से विलक्षणता दर्शाती है। इसके अतिरिक्त दंतकथाओं और आखयानों में भी सुदूर पूर्व से सम्बन्ध की ओर पर्याप्त संकेत निहित हैं। हित्तियों ने अपने साम्राज्य निर्माण के बावजूद स्थानीय निवासियों का दमन किया हो ऐसा उल्लेख नहीं मिलता। इसके विपरीत उन्होंने उदारता से अपने अधीनस्थ समुदायों की संस्कृति को भी आत्मसात कर लिया। यह अनुमान सत्य के बहुत अधिक निकट है कि हित्ती वास्तव में भारतीय मूल के लोग थे।
हित्ती शासकों के नामों की संस्कृत पहचान भी दृष्टव्य है। एक हित्ती शासक का नाम राम-सिन (सिन माने चन्द्र) रामचन्द्र था। एक और शासक का उल्लेख दुश्रुत या दशरथ के नाम से मिलता है। मिस्री राजा रैमसेस द्वितीय के एक मित्र हित्ती शासक का नाम रिमिशरिना के रूप में मिलता है। यह भारतीय नाम रामशरण के समरूप है। यह अलेप्पो का राजा था। हित्ती सभ्यता ईसा पूर्व उजड़ चुकी थी लेकिन हिब्रू बाइबिल में Genesis 23, Genesis 26:34, Exodus 13:5; Numbers 13:29; Joshua 11:3, 2 Samuel 11 आदि स्थानों पर उनके सम्बन्ध में उल्लेख मिलते हैं। इसका अर्थ है कि हित्तियों ने अपनी पहचान बनाये रखी और आगे चलकर यहूदी और ईसाई धर्मों को प्रभावित किया।
हित्तियों की अपेक्षा मितन्नियों की भारतीय पहचान अधिक स्पष्ट है। मितन्नी राजधानी का नाम वासकनी संस्कृत शब्द वसुखानी के समरूप है जिसका अर्थ धन की खान होता है। ऊपर वर्णित सन्धि मुद्रा के अतिरिक्त घोड़ों के प्रशिक्षण से सम्बन्धित एक अभिलेख भी उपलब्ध हुआ है। यह संसार का सबसे पुराना अश्व प्रशिक्षण मैनुअल है। 1345 ईसा पूर्व लिखित अभिलेख में 1080 पंक्तियां हैं। इसके मितन्नी लेखक का नाम किक्कुली अंकित है और यह किक्कुली मितन्नी का प्रधान अश्व प्रशिक्षक है इन शब्दों से शुरू होता है। इस अभिलेख की विशेषता इसमें अंकित संस्कृत शब्द हैं जिनकी पहचान स्पष्ट है। कुछ शब्द निम्नानुसार है; अस्सुस्सान संस्कृत शब्द अश्व-सानी अर्थात अश्व प्रशिक्षक, एका वर्तन्ना संस्कृत एक वर्तनम अर्थात एक मोड़, तेरा वर्तन्ना संस्कृत त्रि वर्तनम अर्थात तीन मोड़, इसी तरह संस्कृत पंच के लिये पंज, सप्त के लिये सत्त, नवम् के लिये नव अंकित हैं। इतिहास की यूरोप केन्द्रित धारा इन अभिलेखों पर प्रायः रहस्यमय मौन धारण किये हुये है।
हित्तियों की तरह मितन्नी शासक भी उदार थे, बहुदेव वादी थे। एक और विशेषता इन शासकों के उदार कानून और दास प्रथा के प्रति अरुचि से प्रकट होती है। यह उनके पड़ोसिंयों की रीतियों से मेल न खानेवाली रीति थी। मिस्र में उस समय दास प्रथा का बोलबाला था। ये मितन्नी ही थे जिन्होंने मध्य पश्चिम एशिया में सबसे पहले आरेयुक्त पहियों वाले रथ को अपनाया। इससे पहले उनके पड़ोसी ठोस पहियों वाले रथ का उपयोग करते थे जो भारी और युद्ध के समय धीमा होता था। इनके अतिरिक्त इलेमाइट और कस्सी भी थे। इन सामा्रज्यों का 500 ईसा पूर्व तक अर्थात् बुद्ध के समय के आसपास तक भारतीय सीमा से यूरोपियन सीमा तक दबदबा रहा था।
भारतीयों के पश्चिम की ओर जाने का स्पष्ट संकेत बौधायन श्रोतसूत्र के 18वे अध्याय के 44 वे अनुच्छेद में मिलता है। उसमें कथित है कि अयु पूर्व की ओर गये। उनके उत्तराधिकारी हैं कुरु पांचाल और काशी विदेह। यह अयव है। अमावसु पश्चिम की ओर गये। उनके उत्तराधिकारी हैं गांधार, पर्सु और अरट्ट। ये अमावसु हैं।
अब हम पाठकों का ध्यान चार हजार वर्षों के अंतराल पर उपस्थित एक विचित्र साम्य की ओर आकर्षित करते हैं। क्या आप जानते हैं कि गांधी जी और हित्तियों में क्या समानता थी? हित्ती जो ईसा से दो हजार वर्ष पूर्व स्थित हैं और गांधी जी जो ईसा के दो हजार वर्ष बाद हुये हैं, दोनो ने एक विशेष विधिक सिद्धांत को अस्वीकार कर दिया था। विधि के इस सिद्धांत को प्रतिशोध का सिद्धांत कहते हैं। इसे आंख के बदले आंख के नाम से भी जाना जाता है। ज्ञात इतिहास में इसका सबसे पहला उपयोगकर्ता था हम्मूरबी।
हम्मूरबी बेबिलोनियन साम्राज्य का छटवां राजा था। इसने ईसा पूर्व 1894 से लगभग 30 सालों से अधिक तक मध्य मेसोपोटामिया (वर्तमान ईराक) पर शासन किया था। हम्मूरबी के विधिक सिद्धांत एक पत्थर पर उत्कीर्ण किये गये हैं।
सन 1901 में एक फ्रेन्च इंजीनियर जैकस डि मॉर्गन को सुसा की राजधानी इलेमिट में उत्खनन करते समय यह अभिलेख मिला था। यह स्थान वर्तमान ईरान में है जो शासक हम्मूरबी की राजधानी से दूर स्थित है। संभव है कि इसे इलेमिट राजा शुतुर्क नाहन्ट द्वारा 1200 ईसा पूर्व विजय के प्रतीक के रूप में बेबीलोन से ले जाया गया होगा। अभिलेख तीन टुकड़ों में बंटा हुआ था। इसे शीघ्र ही पढ़ लिया गया और विधि के लिखित रूप के सबसे प्राचीन रूप में प्रसिद्ध हो गया। कौतूहल का एक कारण यह भी था कि इस अभिलेख में वर्णित विधिक सिद्धांतों की हिब्रू में लिखित पुरानी बाइबिल (ओल्ड टेस्टामेंट) से काफी समानता थी।
हम्मूरबी का पाश्चात्य इतिहासकारों ने प्रथम विधि निर्माता के रूप में बहुत अधिक महिमामंडन किया है। यद्यपि इस अभिलेख से भी प्राचीन अभिलेख खोज लिये गये हैं लेकिन हम्मूरबी की लोकप्रियता आज भी बनी हुई है। अमेरिकी उच्चतम न्यायालय के दक्षिणी कक्ष में हम्मूरबी का मानव जाति के प्रथम विधि निर्माता के रूप में सम्मानपूर्वक उल्लेख अंकित किया गया है। तथापि अपनी प्रकृति में हम्मूरबी के विधिक सिद्धांत तामसिक, प्रतिहिंसक, प्रतिशोधपूर्ण और वैमनस्यकारी हैं। इसके बावजूद यदि उसे इतना सम्मान और लोकप्रियता मिली तो इसका कारण था उसके सिद्धांतों का रोमन विधि और ओल्ड टेस्टामेंट से मेल खाना। रोमन विधि में इसे lex talionis के नाम से जाना जाता था। ओल्ड टेस्टामेंट में एक्सोडस 21:23-27 में आंख के बदले आंख का सिद्धांत वर्णित है। विधि के इस सिद्धांत को अपनाये जाने के कारण ही हमें यूरोप और अरब में आज तक युद्ध, जनसंहार और बिखराव देखने को मिलता है। बिना दया और सुधार की अपेक्षा के अपनाई गई विधि अमानवीय तो है ही, उसके कभी अच्छे परिणाम देखने को नहीं मिले हैं।
हम्मूरबी के समय में ही हित्ती साम्राज्य की विधि का विकल्प था। सन 1907-08 में मैक्रिड बे और ह्यूगो विन्कलर द्वारा हित्ती विधि के 10,000 से अधिक अभिलेख खोज लिये गये थे। इन्हें सन 1910 से 1921 के बीच बेडरिच रॉनी द्वारा पढ़ लिया गया था। हम्मूरबी द्वारा प्रतिपादित विधि सिद्धांतों के विपरीत हित्ती विधि सुधार और करुणा पर अवलम्बित है। उसमें भय और दण्ड का कम से कम उपयोग किया गया है। लेकिन यूरोपीय इतिहासकार रोमन और ईसाई मानकों के अनुरूप ही पुराने इतिहास का आकलन करते रहे हैं, इसलिये ऐसी बातों के प्रति उनके मन में सम्मान न होना आश्चर्यजनक नहीं है।
प्राचीन सांस्कृतिक विश्व में वैदिक भारतीयों की उपस्थिति के प्रमाणों का अभी तक तर्कसंगत और विश्वसनीय आकलन नहीं किया गया है। इसके भू राजनैतिक कारण तो हैं हीं, भारत सरकार की अपने देश और समाज के प्रति अविश्वसनीय और अतार्किक धारणा भी इसके लिये उत्तरदायी है। न केवल भारत सरकार और भारत देश में स्पष्ट अलगाव दिखता है बल्कि भारतीय समाज की इस विषय में उदासीनता को भी अक्षम्य अपराध के रूप में देखा जाना चाहिये जो आरक्षण, नालियों और मंदिरों के लिये तो आंदोलन करता है लेकिन पीढ़ियों के हितों को प्रभावित करनेवाले विषयों को अनदेखा करता है।
बोगोजकुई अभिलेख ने इतिहास की धारा को यूरोप केन्द्रित अतिवाद के दलदल से निकाला। यही नहीं तिथि निर्धारण की मनमानी पर भी अंकुश लगा। मैक्समूलर जैसे बाबुओं और मिल, मैकाले जैसे घृणावादी, साम्राज्यवादी लेखकों ने इतिहास लेखन को प्रायः एक मनमाने खेल में बदल दिया था जिसमें साहबों की सनक ही प्रमाण हुआ करती थी। मैक्समूलर द्वारा वेदों के रचनाकाल का निर्धारण पाठकों को याद होगा जिस पर वह बाद में पलट गया था। मात्र एक हजार साल से भी कम समय में बाहर से आये हुये आक्रमणकारियों ने न केवल इतनी विपुल मात्रा में साहित्य का सृजन किया, एक भरी पूरी और वर्तमान यूरोप से भी अधिक क्षेत्रफल में फैली सभ्यता का विस्तार किया बल्कि एक से अधिक भाषायें बनाकर, निरंतर संघर्षरत रहते हुये एक ऐसा चमत्कार कर दिखाया था जिसे संसार भर से धन लूट कर, असंखय मानवों की हत्या करके भी यूरोपीय देश दोहरा नहीं पाये थे।
यह कितनी विचित्र बात है कि आज का भारत जिस आर्य और द्रविड़ पार्थक्य के कारण कलहग्रस्त है उसका कोई पुरातात्विक या भाषीय साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। यही नहीं जातिगत भेदभाव और अमानवीय व्यवहार के मूल में जिस वर्ण व्यवस्था पर दोषारोपण किया जाता है, उसका जाति व्यवस्था से प्रायः कोई संबंध ही नहीं है। लेकिन इस सत्य पर राजनैतिक स्वार्थ और घूसखोरी की संभावनाओं के दोहन के लिये टनों धूल डाल दी गई है। अतीत से प्राप्त होने वाली जानकारी का उपयोग बिना व्याखया के संभव नहीं है इसलिये लेखक देश और काल के विस्तार में फैले तथ्यों, घटनाओं, इतिवृत्तों का समन्वय करने का प्रयास करते हैं। इस प्रयास के पीछे निहित दृष्टि भी उतनी ही महत्वपूर्ण होती है।
इसी निहित दृष्टि ने मिल को भारत का इतिहास लिखने के लिये प्रेरित किया था। हत्या, विश्वासघात, लूट और बर्बर नीचता में संलिप्त अंग्रेजी साम्राज्यवाद के लिये अधीनस्थ भारतीयों को यह बताना आवश्यक हो गया था कि उनके पूर्वज भी क्रूर, बर्बर और असभ्य थे। उनमें चेतना नहीं थी। उनके और उनके वंशजों के जीवन का मूल्य अधिक नहीं था। स्वतंत्र और सभ्य होने की योग्यता से वंचित भारतीयों के लिये अंग्रेजी (लुटेरों) का शासन अवश्य ही सभ्य लगना चाहिये। मिल का यह प्रत्यक्ष घृणावाद उस समय भारतीय विद्यालयों में पढ़ाया जाता था।
हमारी पाठ्यपुस्तकों में अंग्रेजी लेखकों की धूर्तता का प्रायः कोई विवरण उपलब्ध नहीं होता। न ही हमें यह बताया जाता है कि किस प्रकार घूसखोरी और लूट के लिये ब्रिटिश मध्यवर्ग के युवा भारत पहुंचने के लिये जी जान लगाये रहते थे। आज जब हम सरकारी नौकरी के लिये अपने युवाओं को जान लड़ाते देखते हैं तो इस बात को अनदेखा कर देते हैं कि हराम के धन का लालच हमारे समाज को अपने निकट अतीत से मिला हैं जहां लूट और हत्याओं से धन अर्जित करने के लिये भद्र और अभिजात परिवारों के युवा यहां आते थे और समृद्ध होकर लौटते थे। यह वही अतीत है जो हमारे युवाओं की छीना झपटी में प्रतिबिम्बित होता है और जिससे हमें प्रयासपूर्वक दूर रखा जाता है।
मध्य पश्चिम एशिया के इतिहास के अभिलेख अठारहवीं सदी के अंतिम दौर में ही उपलब्ध होने लगे थे। उससे पहले बहुत पहले से यूरोप का बौद्धिक वर्ग अपने अतीत के प्रति उत्सुक होने लगा था। उसके पास जो साहित्य था वह भी धार्मिक ही अधिक था किंतु उसमें सुदूर अतीत के प्रति उलझन भरे संकेत थे। जब इन संकेतों का अनुसरण किया गया तो समस्याओं का पिटारा ही खुल गया। इनमें सबसे बड़ी समस्या थी अतीत में यूरोप की अनुपस्थिति। यूरोप के इतिहास को अधिक से अधिक रोमन ग्रीक सभ्यता तक पीछे देखा जा सकता था। यह भी ईसा से दो या तीन सौ वर्ष से अधिक पीछे नहीं जाता। ऐसी स्थिति में एक महत्वहीन इतिहास का लेखन करना न केवल पहचान के लिये कष्टप्रद था बल्कि उसमें सार्थकता की बहुत कम संभावना थी।
यूरोप के लेखकों की यह चिंता उनके द्वारा प्रथमतः अपनाये गये अनुरूपांतरण या पूर्वगामी संयोजन (retrofit theory) द्वारा व्यक्त होती है। ईसा के पहले मिलने वाले ऐतिहासिक तथ्यों के लिये उनका यह प्रयास रहा कि उन्हें कम से कम समय में समेटा जाये अन्यथा धार्मिक साहित्य में व्यक्त कालमर्यादा का उल्लंघन होता है। इसके अतिरिक्त वे जो काम कर रहे थे उसमें उनकी तात्कालिक और व्यावसायिक आवश्यकताएं अधिक प्रभावी थीं। वर्तमान में वे विजेता थे। उनका अधिक विरोध नहीं था। इसलिये उन्होंने बिना सत्य और औचित्य की परवाह किये एक विचित्र इतिहास का निर्माण कर दिया जिसमें घटनायें बहुत तेजी से घट रही थीं। बहुत बड़े सामाजिक परिवर्तन, भाषाओं का निर्माण, सभ्यताओं का उत्थान, पतन, व्यापक प्रसार वाले क्षेत्रों से सम्बद्ध साहित्य का सृजन सब अल्पकाल में ही घट जाता था। ऐसा लगता था कि इतिहास एक हलचल भरा रंगमंच हो जिसके वे निर्देशक हों।
समस्या तब और अधिक गंभीर हो गई जब यह सब इतिहास की राजनीति में बदल गया। इतिहास की व्याखयाओं ने राजनैतिक आवश्कताओं की पूर्ति करना शुरू कर दिया। इन आवश्यकताओं में साम्राज्यवादी लूटखसोट सबसे बड़ा उद्देश्य था। इसके अतिरिक्त राजनैतिक विचारधाराओं का विस्तार भी एक समस्या के रूप में हमारे सामने आया। यहां तक कि धर्म मीमांसाओं के राजनैतिक रूप भी सामने आये। इन सबका एक ही आग्रह है इतिहास के ऐसे रूप को सामने लाना जो उनके स्वार्थों की पूर्ति कर सके और उनके अपराधों को ढंक सके।
यूरोप में औद्यागिक क्रान्ति और लूट के धन के संग्रह ने कई सुविधाजनक स्थितियां उत्पन्न कर दीं। इसलिये उनके सामने तथ्यों के विश्लेषण की चुनौती नहीं है। साम्राज्यवादी व्याखयायें और संरचनायें आज भी उनके लिये काम कर रही हैं। लेकिन एशिया, अफ्रीका के समाज आज भी बिखराव, अंधधार्मिक चेतना और राष्ट्रवादी विरोधी उन्माद से जूझ रहे हैं। उनके बुद्धिजीवी आज भी अपने समाज के लिये और अपनी भाषाओं में काम नहीं करते हैं। यहां तक कि लेखन से जुड़े धनलाभ और पदलाभ की लालसा ने उन्हें अपने ही समाज में साम्राज्यवाद का मुखबिर बना दिया है। कम्यूनिस्ट अतिवाद ने भौगोलिक विचारधारा के रूप में धर्म का प्रतिरूप तैयार कर लिया है जिसमें किसी व्यक्ति की अपने समाज और देश के प्रति लगाव की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती है। यही कारण है कि हमारे सामने ऐसे बौद्धिक व्यापार हैं जो देख कर भी नहीं देखते, सुनकर भी नहीं सुनते। यहां तक कि हमारी वैज्ञानिक उपलब्धियां हमारे काम नहीं आती। इतिहास की ट्रेन में देर से बैठने का परिणाम हम भुगत रहे हैं। इसके अब हाथ से छूटने की संभावना प्रबलतर हो उठी है। इतिहास मानव चेतना का निर्माता है। वर्तमान का विस्तार अधिक नहीं होता। हमारे सामयिक जीवन का प्रसार हमारी चेतना तक नहीं पहुंच पाता है क्योंकि उसमें अर्थ का निर्माण नहीं होता। हमारे विचार, विश्वास और आग्रह जब तक समय की कसौटी पर नहीं कसे जाते तब तक उनकी सार्थकता और औचित्य संदिग्ध ही रहती है। अतीत को इस रूप में ग्रहण करना कि वे मनुष्य के संगठित होने, शिक्षित होने और सभ्य होने को संभव बनाये एकमात्र रास्ता होना चाहिये। हर समाज और हर व्यक्ति अपने समय के लिये काम करता है। पर समय का प्रवाह भविष्य की ओर होता है। इसलिये बीते हुये का सार वर्तमान से भविष्य को अंतरित हो जाता है। इस सार में से किसे क्या चुनना है, क्या ग्रहण करना है? इसके लिये जिस बुद्धि, विवेक की आवश्यकता होती है, इतिहास उसी का निर्माण करता है। ऐसा नहीं कि युद्ध एवं संघर्ष केवल धन, सत्ता और भूमि के लिये ही होते हों। मानव का स्वत्व जिसमें भी निहित है उन सबके लिये छीना झपटी और संघर्ष होता है चाहे वह विज्ञान हो, शिक्षा हो, साहित्य हो अथवा संस्कृति के तत्व हों। छीना झपटी के ये रूप जिन दांवपेंचों में अभिव्यक्त होते हैं उन्हें ही राजनीति कहा जाता है। यह इतिहास में भी होता है। उसे ही हम इतिहास की राजनीति कहते हैं।
– संजीव कुमार