इतिहास की संरचना
– संजीव कुमार
किसी के लिये भी यह बिल्कुल बाध्यकारी नहीं है कि वह इतिहास पढ़े, लिखे या उस पर बात करे। तब भी लोग यह बाध्यता स्वयं पर आरोपित करते हैं। वे न केवल इतिहास पर बात करते हैं बल्कि उसके लिये झगड़ते भी हैं। हममें से बहुत से लोगों के लिये इतिहास अपनी भावनाओं और विचारों के लिये उचित लक्ष्य प्रतीत होता है। लोगों में इतिहास से सीखने की इच्छा चाहे जितनी कम हो, लेकिन उसके परिमार्जन और परिष्कार का प्रयास वे अपनी सारी शक्ति लगाकर कर लेना चाहते हैं। हम अनुमान लगा सकते हैं कि ऐसी कौन सी बात या बातें हैं जो लोगों को इतिहास की ओर मोड़ती हैं? दुर्भाग्यवश ऐसे अनुमानों की संख्या उतनी ही हो सकती है जितने धरती पर लोग हैं। इसका यह कारण बिल्कुल नहीं है कि इतिहास धरती का सर्वाधिक लोकप्रिय विषय है, बल्कि इसका बहुत सीधा और सरल सा कारण है कि यह इतिहास ही है जो हमें बनाता है।
यदि हम विज्ञान अथवा सामाजिक विज्ञानों की बात करें तो इतिहास अकेला ऐसा विषय है जिसकी कोई विषयवस्तु नहीं है। जिसकी कोई विशेष प्रविधि नहीं है। इसके अलावा विभिन्न विषयों का उपयोग इसमें किया जाता है, शायद ही किसी अन्य विषय में किया जाता हो। यहां तक कि किसी इतिहास की पुस्तक के विषय में निश्चयात्मक रूप से यह कहना बहुत कठिन हो जाता है कि वह किसी विषय का अध्ययन है, अनुसंधान है, अतीत में हुई घटनाओं का संकलन है, अटकले हैं अथवा विचार विमर्श है? वास्तव में रोचकता और उत्तेजना से भरे हुये पृष्ठ एडम स्मिथ के अनुसार ‘अदृश्य हाथों‘ एवं हीगेल के अनुसार ‘तर्क की चतुराइयों‘ की प्रस्तुति मात्र है।
यह कहना और भी कठिन है कि जब हम इतिहास में रुचि लेते होते हैं तब ठीक ठीक क्या कर रहे होते हैं? हम वर्तमान को बीते हुये कालों में खोज रहे होते हैं या वर्तमान का अतीत पर आरोपण कर रहे होते हैं! बीते हुये से हमारा सम्बन्ध अनिश्चित सा हो जाता है क्योंकि वह हमसे छूटकर किसी व्यापक, अदृष्ट कालराशि का हिस्सा बन जाता है। बहती हुई नदी के किनारे खड़े होकर जब हम नहा चुकते हैं तो हमारे शरीर से ढरकता हुआ पानी पुनः उस असीम जलराशि का हिस्सा बन जाता है। हम उसे कभी वापस नहीं पा सकते। अनंत समय से अनंत समय तक चेतना की विविध चेष्टायें अस्तित्व ग्रहण करती हैं और अपना सत्व छोड़कर लुप्त हो जाती हैं। जल चक्र की भांति चेतन प्राणियों के जीवन भी अनंत सृष्टि की धारा की पूर्ति करते हैं। बहुत थोड़े समय के लिये अपने अहं का उपभोग करते हैं। उसके बाद उनके जीवन का सार उसमें निहित हो जाता है जिसे हमारे पूर्वजों ने ॠत कहा है। वह ॠत ही है जिसमें धर्म, ज्ञान, सृष्टि और सभी छोटी बड़ी सत्तायें अवस्थित हैं। ॠत की यह अमूर्त और विशिष्ट धारणा आज भी हमारी समझ का उतना ही उचित प्रतिनिधित्व करती है जितना अतीत में करती रही है।
इस दार्शनिक विवेचन से हम इतना भर कर सकते हैं कि अतीत का बोध इतिहास के रूप में कर लें लेकिन इतिहास का आशय अतीत से कुछ अलग होता है। अतीत का कोई मंतव्य नहीं होता लेकिन इतिहास का होता है। अतीत स्मृति का, स्मरण करने का विषय होता है लेकिन इतिहास व्याखया और आकलन का विषय होता है। सबका अपना अतीत होता है लेकिन कुछ का ही इतिहास होता है। अतीत के सारे तथ्य इतिहास नहीं बनते। यही नहीं अतीत के एक ही तथ्य से इतिहास के कई तथ्य बन जाते हैं। सबका अपना इतिहास होता है लेकिन वह बनता है अन्यों के इतिहास को समाविष्ट करके। यही कारण है कि संसार में इतिहास की इतनी छीना झपटी की जाती है।
वस्तुतः इतिहास विज्ञान अथवा कला की अपेक्षा भिन्न क्षेत्र है। विज्ञान की समझ मनुष्य को शक्तिशाली बनाती है। कला जीवन का आस्वाद और प्रभाव क्षेत्र बढ़ाती है। साहित्य संगठन की चेतना का विकास करना है। लेकिन इतिहास दो धारों वाली तलवार का काम करता है। खतरे के समय यह आपको सुरक्षित और दुर्भेध्य बनाती है और जिनमें शोषण एवं आक्रमण की प्रवृत्ति है उनको अधिक नियंत्रक व शक्तिशाली भी बनाती है।
अतीत के तथ्यों को इतिहास में बदलने का काम इतिहासकार करता है। वही यह निश्चय करता है कि किन तथ्यों को कब और कहां प्रस्तुत किया जाये और कैसे प्रस्तुत किया जाये? लेकिन इतिहासकार को शिल्पकार की भांति कच्चे माल को मनचाहे ढंग से कल्पना या मांग के अनुसार रूप देना नहीं है। उसे अपने कच्चे माल को तर्कसंगत रूप देना पड़ता है। इस तार्किक संगति की कसौटी को पार करने के लिये ही इतिहासकार कल्पना और विवरण, व्याखया और पुनर्प्रस्तुति का उपयोग करता है। इस प्रकार उसके द्वारा काम कर दिये जाने के बाद इतिहास उपयोग के लिये एकदम तैयार हो जाता है। ठीक उसी प्रकार जैसे विज्ञान और साहित्य अपने अंतिम फलितार्थ में उपयोग के लिये तैयार हो जाते हैं। इसके बाद के लिये ठीक ही कहा जाता है कि वास्तविक दोषी राजनीति ही है जो इन सबका दुरुपयोग करती है।
विज्ञान इस अर्थ में अवश्य ही सार्वभौम हैं कि वह मनुष्य की चेतना और इच्छा से स्वतंत्र है। प्रकृति अपने नियम से संचालित है। मनुष्य अपनी समझ बढ़ाकर उसका लाभ भर उठा सकता है। उसे स्वयं ही यह समझना है कि उसके लिये कितना लाभ उठाना संभव है और कैसे? परन्तु विज्ञान की समझ सामाजिक होती है और उसकी वृद्धि उस समाज को उसके निकटवर्ती अन्य समाजों और एक छोटे दायरे में प्राकृतिक परिवेश को नियंत्रित करने की शक्ति भी देती है। समस्या यही है कि नियंत्रित समाज भी यदि अपनी समझ बढ़ा ले और उस अंतर को पाट दे तो इस नियंत्रण को और अधिक नहीं बढ़ाया जा सकता। न ही विज्ञान की समझ को विकसित होने से रोका जा सकता है। एक बार अस्तित्व में आने के बाद विज्ञान स्वतःप्रसारी है। उसकी यह प्रकृति उसके दुरुपयोग पर रोक लगाती है।
साहित्य मनुष्य के लिये बड़े सुख और विकास का साधन है। वस्तुतः किसी भाषा का साहित्य उसके उपयोगकर्ताओं की मनोवैज्ञानिक आत्मा है। साहित्य अपने पाठकों में एक मानवीय संवेदना उत्पन्न करता है जो उसमें व्यापक जीवनगत तत्वों के अस्तित्व का बोध उत्पन्न करती है। निसंदेह यह धारणा समझने में थोड़ी कठिन है। व्यापक जीवनगत तत्वों से हमारा आशय अन्य प्राणियों के चेतन अस्तित्व की संवेदना और बोध का होना है। साहित्य पाठक (वास्तव में आस्वादक क्योंकि साहित्य मौखिक भी होता है।) की अनुभूति को इतना प्रबल कर देता है कि वह न केवल अपने जैसे मनुष्यों के सुख दुख बल्कि मानवेतर प्राणियों के भी सुख दुख को अनुभव करने लगता है।
हम सभी को उन्माद और हंसी उत्पन्न करनेवाली कविताओं, कहानियों, चुटकुलों का अनुभव है। यह साहित्य का निकृष्टतम रूप है जो बेहद मजेदार लगता है। इसी से मिलते जुलते आवेग की शैली के लेखक हैं जो सांप्रदायिक कारणों से घृणा, अलगाव और दायित्वहीनता का बोध बढ़ाने का प्रयास करते हैं। इन्हें भी खूब पढ़ा जाता है। महत्वपूर्ण बात यह है कि खराब साहित्य भी हमें अच्छे साहित्य की ओर ले जाता है। किसी भी व्यक्ति के लिये नकारात्मक भावनाओं को अधिक देर तक ढोना संभव नहीं होता इसलिये खराब साहित्य के अधिक संपर्क में रहने वाला आस्वादक या तो साहित्य विमुख हो जाता है या मानवीय साहित्य की ओर अभिमुख हो जाता है। भाषा का अनवरत उपयोग निरंतर अर्थविस्तार के लिये प्रेरित करता है जो खराब साहित्य में संभव नहीं है। इन कारणों से हमने देखा है कि पाठक/आस्वादक जो साहित्य के निरंतर संपर्क में रहते हैं वे कम हिंसक, अधिक संवेदनशील और विचार विमर्श के प्रति आग्रह जैसे सकारात्मक गुणों से युक्त देखे जाते हैं।
इन अर्थों में इतिहास न तो विज्ञान की तरह स्वतःप्रसारी है और न ही साहित्य की तरह प्रतिरोधी मानवीय चेतना के गुण से युक्त है। इतिहास वास्तव में तो कोई विषय ही नहीं है। विभिन्न विज्ञानों की सहायता से अतीत के संबंध में प्राप्त होने वाली जानकारी का संग्रह कर लिया जाता है। यह संग्रह विभिन्न विषयों के दायरे में ही कैद रहता है और उसे अधिक से अधिक तथ्य का दर्जा दिया जाता है। किंतु इन तथ्यों से जब वर्तमान के किसी अंश को अथवा अतीत के ही वर्तमान से सम्बद्ध हो चुके किसी अंश को प्रकाशित करने का काम लिया जाता है तो वह इतिहास बन जाता है। इतिहास तब भी बनता है जब हम भिन्न कालों के तथ्यों को संबद्ध करने का प्रयास करते हैं। भलें ही हम न समझ पायें लेकिन संबद्धता के इन प्रयासों में वर्तमान सदा ही जोड़ने वाले तत्व के रूप में उपस्थित रहता है।
इतिहास की प्रकृति की इस संक्षिप्त धारणा का हम उसके अपने जीवन में उपस्थिति से आकलन करने का प्रयास करेंगे। यह आवश्यक नहीं कि हम इतिहास तक चलकर ही जायें। वह भी चलकर हम तक आ जाता है। हमारे जीवन में इतिहास दो रूपों में होता है बाध्यकारी और आरोपित। आरोपित तब जब हमें इतिहास की व्याखयाओं के अनुसार चलने के लिये प्रेरित किया जाता है, अर्थात् इतिहास को हम पर आरोपित किया जाता है। बाध्यकारी वह तब होता है जब वह हमारी इच्छा से परे हमें हमारे जीवन यापन के ढंग और परिवेश के माध्यम से प्रभावित करता है। इन्हें हम इतिहास के व्यक्त और अव्यक्त रूप कह सकते हैं। अव्यक्त या बाध्यकारी रूप उन विषयों में निहित हैं जिनका उपयोग हम अपने जीवन में करते हैं किंतु जिनके अर्थ अतीत में निहित होते हैं। ये हैं भाषा, संस्कृति, साहित्य, रीति रिवाज आदि। रोचक परिस्थिति यह भी है कि इतिहास की चेतना से युक्त ये विषय इतिहास के आरोपित रूप अर्थात् उसकी व्याखयाओं के प्रति हमें अधिक संवेदनशील बना देते हैं।
हम अपने जीवन में जिस भाषा का प्रयोग करते हैं उसका बहुत बड़ा हिस्सा हमें पहले से ही निर्धारित अर्थ के साथ मिलता है। हम अपने स्तर पर उनमें अधिक बदलाव नहीं कर पाते हैं। इसका सीधा सा अर्थ है कि हम उनके आशय को ढो रहे हैं। उन लोगों के जो सुदूर अतीत में कभी थे लेकिन अब कभी नहीं होंगे। वे केवल उस भाषा में जीवित हैं जिसे वे हमारे उपयोग के लिये छोड़ गये हैं। यदि कभी अर्थ संबंधी परिवर्तन होता भी है तो साहित्य, रीति रिवाज और अन्य भाषिक संरचनायें छूट गये या बदल गये अर्थ की स्मृति को कई बार संरक्षित कर लेते हैं। कुछ मामलों में ही सही इस संरक्षण के कारण नये अर्थ विस्तार से भाषाई संस्कृति के रूप परिवर्तन की प्रक्रिया तब तक के लिये धीमी पड़ जाती है जब तक कि वह भाषा ही लुप्त न हो जाये।
रीति रिवाज, संस्कृति और साहित्य भी अपने अपने ढंग से पुराने समय के आशय को संरक्षित करके रखते हैं। चूंकि उनमें अनुमोदन और सहमति का व्यापक निवेश होता है इसलिये उन्हें तात्कालिक ढंग से नहीं बदला जा सकता है। इसका अर्थ है कि वे हमें दोहराव और स्मरण के लिये बाध्य करते हैं। ये बहुत सामान्य से शब्द हैं जो इतिहास के अव्यक्त रूप को हमारे सामने लाते हैं। उक्त चीजें अतीत से हमारे संपर्क को बनाये रखती हैं और इतिहास से भी हमें परिचित रखती हैं। हम बार बार अतीत और इतिहास का उल्लेख साथ साथ इसलिये कर रहे हैं कि आपको यह याद रखने में आसानी हो कि इतिहास अतीत के संचय के अतिरिक्त भी कुछ है जो सौद्देश्य है और जिसका सदुपयोग या दुरुपयोग किया जा सकता है। किंतु जिस अर्थ में इतिहास हमारे साधारण यहां तक कि अनपढ़, अशिक्षित जन के जीवन में भी उपस्थित होता है उसके कारण भी इतिहास के दुरुपयोग की शक्ति कमजोर पड़ती है। दुरुपयोग के प्रति इस प्रतिरोध की संभावित उपस्थिति ही इतिहासकार के लिये कसौटी का काम करती है और उसे अधिक पथभ्रष्ट होने से रोकती है।
हमने संस्कृति, भाषा और साहित्य को इतिहास कहा है क्योंकि इन सबमें इनके प्रचलन के समय के समाज की व्याखया और उनके प्रति दृष्टिकोण भी समन्वित हो जाता है। हम नये अर्थों का निर्माण चाहे तुरंत न कर पाते हों लेकिन पुराने अर्थों की अवहेलना करने में तत्परता बरतते हैं। हम उनका तिरस्कार करते हैं क्योंकि हम उनसे या तो सहमत नहीं हो पाते हैं या वे हमारे लिये उपयोगी नहीं रह जाते हैं। नये अर्थ अथवा आशय के निर्माण के लिये व्यापक सहमति की आवश्यकता होती है इसलिये सामाजिक क्रियाओं में निहित इतिहास सदैव अमल में आनेवाला इतिहास ही बना रहता है, निर्णयकारी इतिहास बहुत कम बन पाता है।
व्यक्त इतिहास इतिहासकारों के कार्यों में देखा जा सकता है। लेकिन हमारे समय में इसका एक भिन्न और चिंतित कर देने वाला रूप भी है। वह है संचार माध्यमों और लेखकों के मध्य इतिहास की व्यापकता। आज का समय व्यापक संचार माध्यमों का है। लोग एक दूसरे से बहुत दूर होकर भी परस्पर बातचीत कर लेते हैं। यह समय सस्ते संचार माध्यमों और सस्ती सुलभ पुस्तकों और पठनीय सामग्री का है। वर्तमान संचार और विमर्श की एक अनूठी विशेषता यह भी है कि इसमें बात गढ़ने का पूरा अवकाश रहता है। कम पढ़े लिखे लोग भी अपनी बात को विचार के रूप में, तथ्य के रूप में या मत के रूप में हमारे सामने रख सकते हैं। यदि कोई व्यक्ति पढ़ा लिखा हो और परिश्रमी भी हो तो वह तथ्य और निष्कर्ष के बीच के अंतर को धुंधला कर सकता है। भाषा के प्रयोगों के द्वारा अर्थ और अनर्थ का स्थान परिवर्तन कर सकता है। साधारण अल्पशिक्षित व्यक्ति इन सबमें अंतर करने में सक्षम नहीं होता। अधिकांश मामलों में वह या तो उसे स्वीकार कर लेगा या नकार देगा। किसी भी स्थिति में वह मूल सामग्री की ओर नहीं जायेगा क्योंकि वह उसकी पहुंच और योग्यता से परे स्थित है। जहां यह अनर्थकारी सामग्री प्रयास करके उस तक पहुंचाई जाती है, वहीं मूल संदर्भ तक जाने के लिये उसे स्वयं परिश्रम और इच्छा करनी पड़ेगी जिसकी प्रायः कोई संभावना नहीं रहती।
इतिहास के चिंताजनक प्रसार का एक दूसरा रूप भी है जो अधिक औपचारिक है। वह है आधुनिक युग की विद्यालयीन शिक्षा। आधुनिक युग की शिक्षा का स्वरूप विमर्श का नहीं है बल्कि शिक्षक से छात्र की ओर निर्देशात्मक है। पाठ्यसामग्री के कथन मानक सत्य के रूप में प्रस्तुत किये जाते हैं। भारत जैसे देशों में यह और भी रूखा और कर्कश हो जाता है जहां शिक्षकों की शैक्षणिक योग्यता उल्लेखनीय नहीं है। पाठ्यसामग्री का चयन और व्याखया विशेषकर इतिहास और समाज विज्ञानों के क्षेत्र में अभी भी साम्राज्यवादी स्वरूप का है अथवा राजनैतिक आवश्यकताओं के अनुकूल है।
शिक्षा का यह औपचारिक स्वरूप अध्ययन की किसी गंभीर प्रवृत्ति का विकास नहीं करता। एक बार इससे निकल जाने के बाद लोग शायद ही कुछ उल्लेखनीय पढ़ते हैं। यही नहीं अपने शैक्षणिक काल में उनका पाला शायद ही कभी किसी संदर्भ ग्रन्थ से पड़ता होगा। उनके लिये स्तरीय और विश्वसनीय विषयगत सामग्री तथा स्तरहीन और साधारण प्रचारात्मक सामग्री में विभेद कर पाना भी संभव नहीं होता। दुर्भाग्यवश यह स्थिति साधारण जन की ही नहीं है बल्कि उन अधिकांश लोगों की भी है जो नीति निर्णय के प्राधिकार का उपयोग करते हैं, सार्वजनिक विमर्श में महत्वपूर्ण स्थिति में पहुंच जाते हैं अथवा लेखन कार्य, पत्रकारिता जैसे ज्ञान मीमांसा के क्षेत्र में विश्वसनीय समझे जाने वाले काम करने लगते हैं।
इसका परिणाम भी घातक हो रहा है। वास्तविक इतिहास लेखक जिस बात को कहने में हिचकिचाते हैं, उसे अधकचरे लेखक और राजनैतिक कार्यकर्ता प्रायः वैज्ञानिक सिद्धान्तों जैसा प्रामाणिक बनाकर प्रस्तुत करते हैं। जिन सिद्धांतों को पुराने लेखकों ने स्वयं ही अटकल अथवा अनुमान के रूप में हिचकिचाते हुये सामने रखा था, उन्हें ये लेखक ज्यामिति के स्वयं सिद्धों की तरह काम में लाते हैं। साम्राज्यवादी लेखक जैसे इतिहास को यूरोप की दृष्टि से देखते थे, हमारे यहां भारतवादी लेखक भी हैं जो संसार को भारत की दृष्टि से ही देखने का प्रयास करने में व्यस्त रहते हैं। साम्राज्यवादी इतिहास लेखन के विषय में यह सोचा जाता है कि वह अब उपयोगी न रह जाने के कारण त्याग दी गई होगी। यह सच नहीं है। लेखक चूंकि अंग्रेजी में लिखते हैं जिसके पाठक आज भी पुराने साम्राज्यों से लगाव रखते हैं इसलिये इन लेखकों को अधिक स्वयं की प्रेरणा से अथवा प्रकाशकों के आग्रह पर अधिक बिकने के लिये साम्राज्यवादी दृष्टि अपनानी पड़ती है। मार्क्सवाद स्वयं को वैश्विक अवधारणा के रूप में जाने जाने के लिये साम्राज्यवादी धारणा को अपना लेता है क्योंकि पुराने साम्राज्यवाद की यह धारणा थी कि किसी भी वैश्विक संदर्भ में साम्राज्य ही केन्द्र में और उद्धारक के रूप में होना चाहिये।
ज्ञानार्जन एक बार में परिश्रम करके संचित कर लिया जाने वाला काम नहीं है। न ही इसे पीढ़ीगत उत्तराधिकार अथवा दानादि द्वारा एक से दूसरे तक अंतरित किया जा सकता है। नियमित पठन, स्वाध्याय, निष्पक्ष व गंभीर सामग्री की पहचान की योग्यता आदि के द्वारा अर्जित ज्ञान का रखरखाव और संवर्धन करना पड़ता है क्योंकि मस्तिष्क में संचित ज्ञान का निरंतर क्षय होता है। निरंतर बदलने वाली परिस्थितियों के कारण इतिहास, साहित्य आदि की बहुत सी जानकारी तो अप्रासंगिक भी हो जाती है।
हमारे देश में उपर्युक्त परिस्थिति ने सामाजिक बोध के स्तर पर बहुत अधिक अराजकता उत्पन्न कर दी है। एक तो इतिहास जैसे दृष्टिकोण प्रधान विषय में उपलब्ध सामग्री वेदैशिक प्रभाव से युक्त है, द्वितीयतः वह तात्कालिक आवश्यकताओं, वैमनस्य, प्रतिशोध और घृणावाद की व्याखयाओं के दबाब में है। सामाजिक विज्ञानों के क्षेत्र में प्रायः कोई प्रगति न होने के कारण स्थिति और भी सोचनीय हो गई है। नियमतः इतिहास को अपनी व्याखयाओं के स्रोत के लिये सामाजिक विज्ञानों की ओर देखना चाहिये लेकिन उस ओर बिल्कुल अंधेरा है। इन और ऐसे ही अन्य कारणों से हमारे सामाजिक विमर्श का परिदृश्य धुंध और छायाओं से भरा हुआ है।
इस धुंध में, इन छायाओं में हमारी पहचान निरंतर घुलती जा रही है। हम निरंतर अपने आपको कमतर, छोटा करते जा रहे हैं। इसका एक कारण तो यह है कि हम निरंतर उपजीवी, द्वितीयक और हीन श्रेणी के विमर्श पर निर्भर होते जा रहे हैं तथा दूसरा व अधिक महत्वपूर्ण कारण यह है कि हमने अपना कोई पक्ष, अपनी कोई दृष्टि ही विकसित नहीं की है। वस्तुतः दृष्टि के अभाव की यह समस्या हमारे इतिहास से ही हमें विरासत में मिली है। इसलिये यह अपरिहार्य होगा कि हम अपने लिये अपने स्वयं के परिप्रेक्ष्य की आवश्यकता का निर्धारण व परिभाषीकरण अपने सामूहिक अतीत में और उसमें निहित कतिपय समस्याओं के द्वारा करेंगे।
अपनी दृष्टि की बात इसलिये महत्वपूर्ण है कि इसके साथ सामूहिक हम के निर्माण की धारणा जुड़ी हुई है। मानव जीवन में समाज की धारणा अमूर्त नहीं होती। व्यक्ति न केवल भौतिक रूप से बल्कि मानसिक रूप से भी कभी अकेला नहीं होता। वह हमेशा एक समाज का अंग होता है। वास्तव में वह एक समाज का अंग नहीं होता। वह एक साथ कई समाजों का अंग होता है। जिस तरह व्यक्ति शब्द कई प्रकार की बनावटों वाले लोगों के लिये प्रयोग की जाने वाली संज्ञा है वैसे ही समाज शब्द का प्रयोग भी हम कई प्रकार की लोगों की जमावटों के लिये करते हैं। जैसे हर व्यक्ति एक मैं होता है उसी प्रकार हर समाज एक हम होता है।
हम एक साथ एक ही समय में कई समाजों में रहते हैं। ऐसे कई कारक हैं जो मनुष्यों का समूहन करते हैं। जैसे भाषा, स्थान विशेष, राजनैतिक अथवा सांस्कृतिक कारक आदि। इन्हें समुदाय भी कहा जाता है लेकिन मानव चेतना में इनकी स्थिति समाज की ही होती है क्योंकि व्यवहार और संबोधन में किसी कारक से जुड़े प्रसंग में संबंधित जन अपने आपको एक हम में समाविष्ट करते हैं। जैसे हम हिंदी भाषी, हम मध्य प्रांतीय, हम सिक्ख, हम दलित आदि। इस वर्गीकरण से आप आसानी से समझ सकते हैं कि हर व्यक्ति एक ही समय में कई हमों का सदस्य हो सकता है अर्थात हम कभी भी एक मानव समाज में नहीं रहते बल्कि कई मानव समाजों में रहते हैं। किसी एक समाज में जो लोग हमारे सामूहिक हम का हिस्सा हैं वे किसी दूसरे समाज में नहीं भी होंगे जो एक में नहीं थे वे दूसरे में हो जायेगे। मानव व्यवहार की विचित्रता और आकस्मिकता इसी जटिलता में छुपी है।
ये समाज मात्र देश(स्थान) में ही नहीं फैले होते बल्कि इनका फैलाव काल में भी होता है। उदाहरण के लिये किसी भाषा के समाज को लें। उस भाषा की और उसे बोलने वाले लोगों का अस्तित्व अतीत में भी होता है। पर अतीत अब अस्तित्व में नहीं है। वे लोग भी मर चुके हैं। इसके बावजूद उस भाषा के जीवित बोलने वाले लोगों के हम का अस्तित्व वे मृतक और वह बीता समय भी होता है। इसी प्रकार आने वाला संभावनाशील समय भी। यहां इतिहास वर्तमान से मिल जाता है। इसी से हम समझ सकते हैं कि इतिहास को अपने आपसे अलग करना क्यों संभव नहीं है!
इस तरह सैद्धान्तिक रूप से हम जिस मानव समाज के बारे में बात करते हैं, वह हमें हमारे व्यवहार में कहीं मिलता ही नहीं है। क्योंकि व्यवहार के लिये हम हमेशा किसी एक कारक को चुनने के लिये बाध्य होते हैं इसलिये हम उस कारक से बनने वाले समाज को चुन पाते हैं। उदाहरण के लिये यदि हम भाषा सम्बंधी किसी व्यवहार की अनुक्रिया कर रहे होते हैं तो उस भाषा के समाज के सदस्य के रूप में अनुक्रिया करते हैं। कभी कभी हम ऐसी स्थिति में फंस जाते हैं कि हमें दो विपरीत दिशा वाले समाजो का प्रतिनिधित्व करना पड़ता है। जैसे भाषा अथवा धर्म का द्वैध या धर्म अथवा संस्कृति का द्वैध। ऐसी स्थितियां हमारे लिये तनाव की निरंतरता के रूप में अभिव्यक्त होती हैं जो अपनी सामाजिक प्रकृति के कारण सामाजिक तनाव का रूप ले लेती हैं।
जब हम अपने बारे में अथवा अपने समाज के बारे में बात करते हैं तो अपने लिये सरलतम दृष्टि, सरलतम विकल्प चुन लेते हैं। यह सरलता बाध्यकारी किंतु हानिकारक होती है। इन परिस्थितियों में अभिव्यक्ति तो सरल हो जाती है लेकिन संप्रेषण कठिन और भ्रमित कर देने वाला हो जाता है। अभिव्यक्ति की सरलता अर्थ की अनिश्चयता को बढ़ा देती है। सरल और दैनिक जीवन के शब्दों में अर्थ संबंधी अनिश्चितता रहती है। हमारे दैनिक जीवन की भाषा संक्षिप्त समय और सीमित देश (स्थान) के लिये बनी होती है। उनसे इतिहास या विज्ञान सम्बंधी किसी व्याखया को व्यक्त कर पाना बहुत अधिक कठन होता है।
इतिहास से लेकर भाषा तक हमने बहुत से विषयों का उल्लेख यहां किया है। इससे भी पाठकों के मन में उलझन उत्पन्न होने की संभावना है। इसका कारण यह है कि यहां हम एक भिन्न विषय अपनी संस्कृति के आदि स्रोत और उससे हमारी आज की व आगे की पहचान पर पड़ने वाले प्रभाव का आकलन करने जा रहे हैं न कि किसी विषय विशेष की जानकारी देने का प्रयास कर रहे हैं। पिछले अंक में हमने यह प्रस्ताव पाठकों के सम्मुख रखा था कि वे वेदों के सम्बंध में अपनी धारणाओं को टटोलें। अधिकांश लोगों का मानना है कि वेद हिंदुओं के धर्मग्रन्थ हैं। हिंदू भी इसे नकारते नहीं हैं। लेकिन व्यवहार में वे एक विचित्र धर्म का अनुपालन करते हैं जो वेदों में निहित धर्म सम्बंधी मान्यताओं से बिल्कुल भिन्न है। यही नहीं वे वेदों का इतना कुछ आदर भी नहीं करते। किसी हिंदू के सामने गीता अथवा भागवत की आलोचना करिये। वह लड़ने को हो जायेगा। लेकिन वेदों की निंदा भी आप करेंगे तो वह तटस्थ होकर सुनता रहेगा। स्वयं वेद भी आज के अर्थ में जो धर्म है उसका प्रस्ताव नहीं करते हैं।
हमने यह भी कहा था कि वेद हमारे आदि पूर्वजों का मंतव्य हैं। वे हमारी संस्कृति का आदि अथवा मूल स्रोत हैं। यह बात केवल वर्तमान भारत के निवासियों के लिये ही सच नहीं है बल्कि उन लोगों के लिये भी उतनी ही सच है जो आज श्रीलंका, पाकिस्तान अथवा बांग्लादेश में रहते हैं और स्वयं को वेदोक्त धर्म का अनुयायी नहीं मानते। यों तो वैदिक काल की भाषा के संबंधसूत्र संसार की बहुत सी भाषाओं और बड़े भू भाग तक फैले मिलते हैं। जहां तक उनके हमारे पूर्वज होने की बात है तो उसे पूर्वज शब्द से व्यक्त होने वाली धारणा को ठीक से समझने की आवश्यकता है। सामान्यतः हम अपने परिवार के पिछली पीढ़ियों के लोगों को अपना पूर्वज मानते हैं क्योंकि उनसे हमें विरासत में सम्पत्ति मिलती है। परंतु संपत्ति सबसे कम महत्वपूर्ण विरासत है। हमारे पास चाहे जितनी संपत्ति हो जाये जीवन बिताने के लिये उसका एक विशेष हिस्सा ही काम आ सकता है। लेकिन अधिक महत्वपूर्ण विरासत है भाषा, साहित्य, धर्म और संस्कृति जैसी सत्तायें। हमारा जीवन हमारे चाहे अनचाहे इन्हीं में बीतता है। जो लोग इन्हें बनाते, परिष्कार करते हैं वे ही हमारे वास्तविक पूर्वज हैं। विज्ञान और वेद दोनो की दृष्टि से रक्त अथवा विवाह संबंध का महत्व और औचित्य जीवनगत है अर्थात् मनुष्य के जीवित रहने तक है। एक वैदिक }चा में शोकाकुल पत्नी को जिसका पति हाल ही में मरा है संबोधित करते हुये कहा गया है कि यह व्यक्ति मर चुका है, अब इससे तुम्हारा कोई संबंध नहीं रह गया है। अब यह वापस नहीं आयेगा इसलिये और अधिक शोक मत करो। उठो, अपने घर जाओ और बचे हुये जीवित व्यक्तियों के साथ सुखपूर्वक रहो।
पूर्वजों संबंधी अपनी धारणा का परिष्कार करते हुये और इतिहास संबंधी भ्रमों का उन्मूलन कर, अपनी समझ बढ़ाकर ही हम अपने जीवन को अधिक सामंजस्यकारी और मानवीय बना सकते हैं। आज हमारे जीवन में जो भी पारस्परिक वैमनस्य और तनाव है उसका सबसे बड़ा कारण इतिहास संबंधी हमारी अनभिज्ञता और भ्रामक व त्रुटिपूर्ण विचारों को अपना लेना है। प्रस्तुत लेख में इतिहास संबंधी संक्षिप्त विवेचना के बाद हम दो ऐसे सामाजिक भ्रमों पर उदाहरण के रूप में थोड़ा सा विचार करते हैं जिनके कारण बहुत अधिक तनाव उत्पन्न होता है और जिनके बारे में प्रतिदिन हमें कुछ न कुछ पढ़ने या सुनने को मिलता है। पहला भ्रम है जाति और वर्ण के बीच संबंध तथा दूसरा हिंदू और मुसलमान दोनो की कौमो संबंधी भिन्नता है। हमारा आपसे आग्रह है कि इस लेख को पढ़ने के बाद आप इनके बारे में भिन्न भिन्न स्रोतों से सामग्री का संचय करें और उसका विश्लेषण करें। विश्लेषण करते समय इन विषयों के बारे में प्रचलित विभिन्न मतों की भाषा पर अवश्य विचार करें।
प्रथमतः जाति और वर्ण। हमें अंग्रेजों के समय से ही यह समझाया जाता रहा है कि ब्राह्मणों ने अपने समय में समाज को चार भागों में बांटा। उन्हीं से जातिया बनीं। इतिहासकारों का मानना है कि जातियों का निर्माण बड़े और व्यापक समाज के धीरे धीरे सम्मिश्रण और सामाजिक उन्नति की प्रक्रिया में पेशेगत श्रेणियों के बढ़ने के साथ हुआ। वर्ण व्यवस्था विभिन्न सामाजिक वर्गों के लिये समुचित धार्मिक कर्तव्यों का निर्धारण करने का विधान था जिसका सामाजिक श्रेणीकरण से अधिक संबंध नहीं था। इनका पारस्परिक संबंध बहुत बाद में बना। जाति व्यवस्था एक बुराई है लेकिन उसके लिये मूल धर्मग्रन्थों में कोई प्रावधान नहीं है। वर्ण व्यवस्था के विषय में धर्मग्रन्थों में कोई प्रावधान ही नहीं किये गये हैं। बस कर्तव्यों का संक्षिप्त सा निर्देश है। स्मृतियों में जो कि धर्मग्रन्थ नहीं बल्कि विधिग्रन्थ हैं विभिन्न वर्णों के लोगों के सम्मिश्रण से उत्पन्न परिस्थिति के लिये निर्देश हैं। आज कुछ मिलावटों के आधार पर जातीय घृणा और वैमनस्य को बढ़ाने के लिये दिन रात प्रयास किये जा रहे हैं, साहित्य सृजन किया जा रहा है। हमारे ये बहादुर ब्राह्मणों के विरुद्ध दिन रात विषवमन करते हैं किंतु स्वयं अपनी जाति का अपनी निकटवर्ती जातियों के साथ सम्मिलन और एकीकरण में असफलता का उल्लेख भी नहीं करते।
ऐसा ही विचित्र विषय है हिंदू और मुसलमानों का दो कौमों के रूप में स्वीकार किया जाना। संसार में कहीं भी धर्म कौम का निर्धारक नहीं है। एक पाकिस्तानी मुसलमान भी उतना ही भारतीय है जितना भारतीय हिंदू। दोनों के पूर्वज एक हैं, भाषायें एक हैं और संस्कृति भी एक है। संस्कृति के बहुत से घटक होते हैं जिनमें धर्म का हिस्सा बहुत छोटा होता है। यह कभी भी संभव नहीं होगा कि भारतीय मुसलमान अपनी संस्कृति अथवा इतिहास बदल लें। यही कारण है कि मध्यकाल में जब लोगों की अभिव्यक्ति सधी हुई और जटिल नहीं होती थी तब अरब के लोग भारतीय मुसलमानों को भी हिंदू ही कहा करते थे। यह अधिक सही संबोधन था। आज वे भले ही उन्हें हिंदू नहीं कहते लेकिन वे उन्हें अपना भी नहीं मानते। इस्लाम को वे ऐक्यकारी तत्व नहीं मानते।
हिंदू मुस्लिम वैमनस्य के भी वे ही कारण हैं जो जातिगत वैमनस्य के हैं। वे हैं इतिहास संबंधी भ्रामक विचार और निहित स्वार्थी तत्वों का उत्पन्न हो जाना। जन सामान्य के बीच घृणा और वैमनस्य को बढ़ाकर अलग थलग किया जा सकता है और उन्हें छोटे छोटे टुकड़ों में संगठित कर अपने पीछे लगाया जा सकता है और उनका शोषण किया जा सकता है। शातिर व्यक्ति सदा विघटन को बढ़ाने की दिशा में काम करते हैं। इसके लिये बस उन्हें सबसे पहले इतिहास में जाकर तोड़फोड़ करनी होती है।
जिस तरह उलझे हुये धागों को सुलझाने के लिये हम लंबाई में आगे पीछे जाकर उलझे हुये धागों को अलग अलग करते हैं तथा जहां धागे अधिक मिले होते हैं वहां उन्हें काटकर अथवा कठोरता से सुलझाकर अलग अलग करते हैं उसी प्रकार विघटकारी तत्व इतिहास में पीछे जाकर विघटन के सूत्रों को पकड़कर ले आते हैं। मानव समाज में बिखराव भी एक प्राकृतिक प्रक्रिया है। हर समय आपको ऐसे तत्व मिल जायेंगे जो समाज को विघटित कर अपना उल्लू सीधा करते हैं। लेकिन ऐसे प्रयास सीमित और देश काल की दृष्टि से संक्षिप्त होते हैं। उनमें निरंतरता नहीं होती क्योंकि वे कुछ लोगों या समुदायों की स्वार्थपूर्ति या तुष्टि के लिये होते हैं। उन्हें आगे के समय तक लाने के लिये प्रायः इतिहास में तोड़फोड़ करनी पड़ती है। थोड़ी सी सावधानी से उसको परखकर आप उसे आसानी से पकड़ सकते हैं।
अंत में हम अपनी बात दो इतिहासकारों के शब्दों से करते हैं, –
”इतिहास की चेतना से युक्त लोगों में इतिहास खुद को दुहरा नहीं पाता इसका कारण यह है कि उसके पात्र नाटक के दूसरे प्रदर्शन के समय पहले से ही उसके परिणामों से वाकिफ होते हैं और इस तरह से उनकी क्रियायें उस ज्ञान से प्रभावित हो जाती हैं।” ई. एच. कार.
”न केवल अपने समय के बल्कि बीते हुये अन्य समयों के अनुचित प्रभाव से, अपने परिवेश के अत्याचार से और जिस हवा में हम सांस लेते हैं उसके दबाब से केवल इतिहास ही हमें मुक्ति दे सकता है।” जॉन एक्टन -लेक्चर्स ऑन माडर्न हिस्ट्री पृ ३३