ऋग्वेदः 1.2.5

वायविन्द्रश्च चेतथः सुतानां वाजिनीवसू । तावा यातमुप द्रवत् ॥5॥ पदपाठ — देवनागरी वायो॒ इति॑ । इन्द्रः॑ । च॒ । चे॒त॒थः॒ । सु॒ताना॑म् । वा॒जि॒नी॒व॒सू॒ इति॑ वाजिनीऽवसू । तौ । आ । या॒त॒म् । उप॑ । द्र॒वत् ॥ 1.2.5 PADAPAATH — ROMAN vāyo iti | indraḥ | ca | cetathaḥ | sutānām | vājinīvasūitivājinī-vasū | tau | ā | yātam | upa | dravat देवता —        इन्द्रवायू ;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः   मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती(वायो) ज्ञानस्वरूप ईश्वर! आपके धारण किये हुए (वाजिनीवसू) प्रातःकाल केतुल्य प्रकाशमान (इन्द्रश्च) पूर्वोक्त सूर्य्यलोक और वायु (सुतानाम्) आपके उत्पन्नकिये हुए पदार्थों को (चेतथः) धारण और प्रकाश करके उनको जीवों के दृष्टिगोचरकरते हैं इसी कारण वे (द्रवत्) शीघ्रता से...

ऋग्वेदः 1.2.4

इन्द्रवायू इमे सुता उप प्रयोभिरा गतम् । इन्दवो वामुशन्ति हि ॥4॥ पदपाठ — देवनागरी इन्द्र॑वायू॒ इति॑ । इ॒मे । सु॒ताः । उप॑ । प्रयः॑ऽभिः॒ । आ । ग॒त॒म् । इन्द॑वः । वाम् । उ॒शन्ति॑ । हि ॥ 1.2.4 PADAPAATH — ROMAN indravāyūiti | ime | sutāḥ | upa | prayaḥ-bhiḥ | ā | gatam | indavaḥ | vām | uśanti | hi देवता —        इन्द्रवायू ;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः   मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती (इमे सुताः) जैसे प्रत्यक्ष जल क्रिया में यज्ञ और प्राप्त होने योग्य भोग (इन्द्र वायु) सूर्य और पवन के योग से प्रकाशित होते हैं। यहां इन्द्र शब्द के ले ऋग्वेद के मन्त्र का प्रमाण दिखलाते हैं (इन्द्रेण) सूर्य...

ऋग्वेदः 1.2.3

वायो तव प्रपृञ्चती धेना जिगाति दाशुषे । उरूची सोमपीतये ॥3॥ पदपाठ — देवनागरी वायो॒ इति॑ । तव॑ । प्र॒ऽपृ॒ञ्च॒ती । धेना॑ । जि॒गा॒ति॒ । दा॒शुषे॑ । उ॒रू॒ची । सोम॑ऽपीतये ॥ 1.2.3 PADAPAATH — ROMAN vāyo iti | tava | pra-pṛñcatī | dhenā | jigāti | dāśuṣe | urūcī | soma-pītaye देवता —        वायु:;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः   मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती (वायो) हे वेदविद्या के प्रकाश करनेवाले परमेश्वर ! (तव) आपकी (प्रपृंचती) सब विद्याओं के सम्बन्ध से विज्ञान का प्रकाश कराने और (उरूची) अनेक विद्याओं के प्रयोजन को प्राप्त करानेहारी (धेना) चार वेदों की वाणी है सो (सोमपीतये) जानने योग्य संसारी पदार्थों के निरन्तर विचार करने तथा (दाशुषे) निष्कपट से प्रीति के साथ विद्या देनेवाले पुरुषार्थी विद्वान् को (जिगाति) प्राप्त...

ऋग्वेदः 1.2.2

वाय उक्थेभिर्जरन्ते त्वामच्छा जरितारः । सुतसोमा अहर्विदः ॥2॥ पदपाठ — देवनागरी वायो॒ इति॑ । उ॒क्थेभिः॑ । ज॒र॒न्ते॒ । त्वाम् । अच्छ॑ । ज॒रि॒तारः॑ । सु॒तऽसो॑माः । अ॒हः॒ऽविदः॑ ॥ 1.2.2 PADAPAATH — ROMAN vāyo iti | ukthebhiḥ | jarante | tvām | accha | jaritāraḥ | suta-somāḥ | ahaḥ-vidaḥ देवता —        वायु:;       छन्द —        पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री;      स्वर —       षड्जः;       ऋषि —        मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः   मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती “(वायो) हे अनन्त बलवान् ईश्वर ! जो-जो (अहर्विदः) विज्ञानरूप प्रकाश को प्राप्त होने (सुतसोमाः) ओषधि आदि पदार्थों के रस को उत्पन्न करने (जरितारः) स्तुति और सत्कार के करनेवाले विद्वान् लोग हैं वे (उक्थेभिः) वेदोक्त स्तोत्रों से (त्वा्म्) आपको (अच्छ) साक्षात् करने के लिये (जरन्ते) स्तुति करते हैं ॥2॥ भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती यहाँ...

ऋग्वेदः 1.2.1

वायवा याहि दर्शतेमे सोमा अरंकृताः ।तेषां पाहि श्रुधी हवम् ॥1॥ पदपाठ — देवनागरी वायो॒ इति॑ । आ । या॒हि॒ । द॒र्श॒त॒ । इ॒मे । सोमाः॑ । अरं॑ऽकृताः । तेषा॑म् । पा॒हि॒ । श्रु॒धि । हव॑म् ॥ 1.2.1 PADAPAATH — ROMAN vāyo iti | ā | yāhi | darśata | ime | somāḥ | araṃ-kṛtāḥ | teṣām | pāhi | śrudhi | havam देवता —        वायु:;       छन्द —        पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री;       स्वर —       षड्जः;      ऋषि —        मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः   मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती “(दर्शत) हे ज्ञान से देखने योग्य (वायो) अनन्त बलयुक्त सबके प्राणरूप अन्तर्यामी परमेश्वर ! आप हमारे हृदय में (आयाहि) प्रकाशित हूजिये कैसे आप हैं कि जिन्होंने (इमे) इन प्रत्यक्ष (सोमाः) संसारी पदार्थों को (अरंकृता) अलंकृत अर्थात् सुशोभित कर रक्खा...

ऋग्वेदः 1.1.9

स नः पितेव सूनवेऽग्ने सूपायनो भव । सचस्वा नः स्वस्तये ॥9॥ पदपाठ — देवनागरी सः । नः॒ । पि॒ताऽइ॑व । सू॒नवे॑ । अग्ने॑ । सु॒ऽउ॒पा॒य॒नः । भ॒व॒ । सच॑स्व । नः॒ । स्व॒स्तये॑ ॥ 1.1.9 PADAPAATH — ROMAN saḥ | naḥ | pitāiva | sūnave | agne | su-upāyanaḥ | bhava | sacasva | naḥ | svastaye देवता —        अग्निः ;       छन्द —        विराड्गायत्री ;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः   मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती हे (सः) उक्तगुणयुक्त (अग्ने) ज्ञानस्वरूप परमेश्वर ! (पितेव) जैसे पिता (सूनवे) अपने पुत्र के लिये उत्तम ज्ञान का देनेवाला होता है, वैसे ही आप (नः) हम लोगों के लिये (सूपायनः) शोभन ज्ञान जो कि सब सुखों का साधक और उत्तम-उत्तम पदार्थों को...