ऋग्वेदः 1.3.2
अश्विना पुरुदंससा नरा शवीरया धिया । धिष्ण्या वनतं गिरः ॥2॥ पदपाठ — देवनागरी अश्वि॑ना । पुरु॑ऽदंससा । नरा॑ । शवी॑रया । धि॒या । धिष्ण्या॑ । वन॑तम् । गिरः॑ ॥ 1.3.2 PADAPAATH — ROMAN aśvinā | puru-daṃsasā | narā | śavīrayā | dhiyā | dhiṣṇyā | vanatam | giraḥ देवता — अश्विनौ ; छन्द — निचृद्गायत्री ; स्वर — षड्जः; ऋषि — मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वतीहे विद्वानो ! तुम लोग (पुरुदंससा) जिनसे शिल्पविद्या के लिये अनेक कर्म सिद्ध होते हैं (धिष्ण्या) जो कि सवारियों में वेगादिकों की तीव्रता के उत्पन्न करने प्रबल (नरा) उस विद्या के फल को देनेवाले और (शवीरया) वेग देनेवाली (धिया) क्रिया से कारीगरी में युक्त करने योग्य अग्नि और जल हैं वे (गिरः)...