ऋग्वेदः 1.3.8
विश्वे देवासो अप्तुरः सुतमा गन्त तूर्णयः । उस्रा इव स्वसराणि ॥8॥ पदपाठ — देवनागरीविश्वे॑ । दे॒वासः॑ । अ॒प्ऽतुरः॑ । सु॒तम् । आ । ग॒न्त॒ । तूर्ण॑यः । उ॒स्राःऽइ॑व । स्वस॑राणि ॥ 1.3.8 PADAPAATH — ROMAN viśve | devāsaḥ | ap-turaḥ | sutam | ā | ganta | tūrṇayaḥ | usrāḥ-iva | svasarāṇi देवता — विश्वेदेवा:; छन्द — गायत्री; स्वर — षड्जः; ऋषि — मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वतीहे (अप्तुरः) मनुष्यों को शरीर और विद्या आदिका बल देने और (तूर्णयः) उस विद्या आदि के प्रकाश करने में शीघ्रता करनेवाले (विश्वेदेवासः) सब विद्वान् लोग जैसे (स्वसराणि) दिनों को प्रकाश करनेके लिये (उस्राइव) सूर्य्य की किरण आती जाती हैं वैसे ही तुम भी मनुष्यों के समीप (सुतम्) कर्म-उपासना और ज्ञान...