ऋग्वेदः 1.5.4

यस्य संस्थे न वृण्वते हरी समत्सु शत्रवः । तस्मा इन्द्राय गायत ॥4॥ पदपाठ — देवनागरीयस्य॑ । स॒म्ऽस्थे । न । वृ॒ण्वते॑ । हरी॒ इति॑ । स॒मत्ऽसु॑ । शत्र॑वः । तस्मै॑ । इन्द्रा॑य । गा॒य॒त॒ ॥ 1.5.4 PADAPAATH — ROMANyasya | sam-sthe | na | vṛṇvate | harī iti | samat-su | śatravaḥ | tasmai | indrāya | gāyata देवता —        इन्द्र:;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः   मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वतीहे मनुष्यो ! तुम लोग (यस्य) जिस परमेश्वर वा सूर्य्यके (हरी) पदार्थों को प्राप्त करानेवाले बल और पराक्रम तथा प्रकाश और आकर्षण (संस्थे) इस संसार में वर्त्तमान हैं जिनके सहाय से (समत्सु) युद्धों में (शत्रवः) बैरी लोग (न) (वृण्वते) अच्छी प्रकार बल नहीं कर...

ऋग्वेदः 1.5.3

स घा नो योग आ भुवत्स राये स पुरंध्याम् । गमद्वाजेभिरा स नः ॥3॥ पदपाठ — देवनागरीसः । घ॒ । नः॒ । योगे॑ । आ । भु॒व॒त् । सः । रा॒ये । सः । पुर॑म्ऽध्याम् । गम॑त् । वाजे॑भिः । आ । सः । नः॒ ॥ 1.5.3 PADAPAATH — ROMANsaḥ | gha | naḥ | yoge | ā | bhuvat | saḥ | rāye | saḥ | puram-dhyām | gamat | vājebhiḥ | ā | saḥ | naḥ देवता —        इन्द्र:;       छन्द —        पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री;       स्वर —       षड्जः;       ऋषि —        मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः   मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती(सः) पूर्वोक्त इन्द्र परमेश्वर और स्पर्शवान् वायु (नः) हम लोगों के (योगे) सब सुखों के सिद्ध करानेवाले वा पदार्थों को प्राप्त करानेवाले योग तथा...

ऋग्वेदः 1.5.2

पुरूतमं पुरूणामीशानं वार्याणाम् । इन्द्रं सोमे सचा सुते ॥2॥ पदपाठ — देवनागरीपु॒रु॒ऽतम॑म् । पु॒रू॒णाम् । ईशा॑नम् । वार्या॑णम् । इन्द्र॑म् । सोमे॑ । सचा॑ । सु॒ते ॥ 1.5.2 PADAPAATH — ROMANpuru-tamam | purūṇām | īśānam | vāryāṇam | indram | some | sacā | sute देवता —        इन्द्र:;       छन्द —        आर्च्युष्णिक् ;       स्वर —        ऋषभः ;       ऋषि —        मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः   मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वतीहे मित्र विद्वान् लोगो (वार्य्याणाम्) अत्यन्त उत्तम (पुरूणाम्) आकाश से लेके पृथिवी पर्यन्त असंख्यात पदार्थों को (ईशानम्) रचने में समर्थ (पुरूतमम्) दुष्टस्वभाव वाले जीवों को ग्लानि प्राप्त करानेवाले (इन्द्रम्) और श्रेष्ठ जीवों को सब ऐश्वर्य्य के देनेवाले परमेश्वर के तथा (वार्य्याणाम्) अत्यन्त उत्तम (पुरूणाम्) आकाश से लेके पृथिवीपर्यन्त बहुत से पदार्थों की विद्याओं के साधक...

ऋग्वेदः 1.5.1

आ त्वेता नि षीदतेन्द्रमभि प्र गायत । सखायः स्तोमवाहसः ॥1॥ पदपाठ — देवनागरीआ । तु । आ । इ॒त॒ । नि । सी॒द॒त॒ । इन्द्र॑म् । अ॒भि । प्र । गा॒य॒त॒ । सखा॑यः॒ । स्तोम॑ऽवाहसः ॥ 1.5.1 PADAPAATH — ROMANā | tu | ā | ita | ni | sīdata | indram | abhi | pra | gāyata | sakhāyaḥ | stoma-vāhasaḥ देवता —        इन्द्र:;       छन्द —        विराड्गायत्री ;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः   मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वतीहे (स्तोमवाहसः) प्रशंसनीय गुणयुक्त वा प्रशंसा कराने और (सखायः) सबसे मित्रभाव में वर्त्तनेवाले विद्वान् लोगो तुम और हम लोग सब मिलके परस्पर प्रीति के साथ मुक्ति और शिल्प विद्या को सिद्ध करने में (आनिषीदत) स्थित हों, अर्थात् उसकी निरन्तर...

ऋग्वेदः 1.4.10

यो रायोऽवनिर्महान्त्सुपारः सुन्वतः सखा । तस्मा इन्द्राय गायत ॥10॥ पदपाठ — देवनागरीयः । रा॒यः । अ॒वनिः॑ । म॒हान् । सु॒ऽपा॒रः । सु॒न्व॒तः । सखा॑ । तस्मै॑ । इन्द्रा॑य । गा॒य॒त॒ ॥ 1.4.10 PADAPAATH — ROMANyaḥ | rāyaḥ | avaniḥ | mahān | su-pāraḥ | sunvataḥ | sakhā | tasmai | indrāya | gāyata देवता —        इन्द्र:;       छन्द —        निचृद्गायत्री ;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः   मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वतीहे विद्वान् मनुष्यो ! जो बड़ों से बड़ा (सुपारः) अच्छी प्रकार सब कामनाओं की परिपूर्णता करनेहारा (सुन्वतः) प्राप्त हुए सोमविद्यावाले धर्मात्मा पुरुष को (सखा) मित्रता से सुख देने तथा (रायः) विद्या सुवर्ण आदि धन का (अवनिः) रक्षक और इस संसार में उक्त पदार्थों में जीवों को पहुँचाने और...

ऋग्वेदः 1.4.9

तं त्वा वाजेषु वाजिनं वाजयामः शतक्रतो । धनानामिन्द्र सातये ॥9॥ पदपाठ — देवनागरीतम् । त्वा॒ । वाजे॑षु । वा॒जिन॑म् । वा॒जया॑मः । श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शतऽक्रतो । धना॑नाम् । इ॒न्द्र॒ । सा॒तये॑ ॥ 1.4.9 PADAPAATH — ROMANtam | tvā | vājeṣu | vājinam | vājayāmaḥ | śatakrato itiśata-krato | dhanānām | indra | sātaye देवता —        इन्द्र:;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः   मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वतीहे (शतक्रतो) असंख्यात वस्तुओं में विज्ञान रखनेवाले (इन्द्र) परम ऐश्वर्य्यवान् जगदीश्वर ! हम लोग (धनानाम्) पूर्ण विद्या और राज्य को सिद्ध करनेवाले पदार्थों का (सातये) सुखभोग वा अच्छे प्रकार सेवन करने के लिये (वाजेषु) युद्धादि व्यवहारों में (वाजिनम्) विजय करानेवाले और (तम्) उक्त गुणयुक्त (त्वाम्) आपको ही (वाजयामः) नित्य...