ऋग्वेदः 1.7.8

वृषा यूथेव वंसगः कृष्टीरियर्त्योजसा। ईशानो अप्रतिष्कुतः॥8॥ पदपाठ — देवनागरीवृषा॑। यू॒थाऽइ॑व। वंस॑गः। कृ॒ष्टीः इ॒य॒र्ति॒। ओज॑सा। ईशा॑नः। अप्र॑तिऽस्कुतः॥ 1.7.8 PADAPAATH — ROMANvṛṣā | yūthāiva | vaṃsagaḥ | kṛṣṭīḥ iyarti | ojasā | īśānaḥ | aprati-skutaḥ देवता —        इन्द्र:;       छन्द —        पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री;      स्वर —       षड्जः;       ऋषि —        मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः   मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती जैसे (वृषा) वीर्य्यदाता रक्षा करनेहारा (वंसगः) यथायोग्य गाय के विभागों को सेवन करनेहारा बैल (ओजसा) अपने बल से (यूथेव) गाय के समूहों को प्राप्त होता है वैसे ही (वंसगः) धर्म के सेवन करनेवाले पुरुष को प्राप्त होने और (वृषा) शुभगुणों की वर्षा करनेवाला (ईशानः) ऐश्वर्य्यवान् जगत् को रचनेवाला परमेश्वर अपने (ओजसा) बल से (कृष्टीः) धर्मात्मा मनुष्यों को तथा (वंसगः) अलग-2 पदार्थों को पहुंचाने और (वृषा) जल वर्षानेवाला सूर्य्य (ओजसा)...

ऋग्वेदः 1.7.7

तुञ्जेतुञ्जे य उत्तरे स्तोमा इन्द्रस्य वज्रिणः। न विन्धे अस्य सुष्टुतिम्॥7॥ पदपाठ — देवनागरीतु॒ञ्जेऽतु॑ञ्जे। ये। उत्ऽत॑रे। स्तोमाः॑। इन्द्र॑स्य। व॒ज्रिणः॑। न। वि॒न्धे॒। अ॒स्य॒। सु॒ऽस्तु॒तिम्॥ 1.7.7 PADAPAATH — ROMANtuñje–tuñje | ye | ut-tare | stomāḥ | indrasya | vajriṇaḥ | na | vindhe | asya | su-stutim देवता —        इन्द्र:;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः   मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती(न) नहीं मैं (ये) जो (वज्रिणः) अनन्त पराक्रमवान् (इन्द्रस्य) सब दुःखों के विनाश करनेहारे (अस्य) इस परमेश्वर के (तुंजेतुंजे) पदार्थ-2 के देने में (उत्तरे) सिद्धान्त से निश्चित किये हुए (स्तोमाः) स्तुतियों के समूह हैं उनसे भी (अस्य) परमेश्वर की (सुष्टुतिं) शोभायमान स्तुति का पार मैं जीव (न) नहीं (बिन्धे) पा सकता हूं॥7॥ भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वतीईश्वर ने...

ऋग्वेदः 1.7.6

स नो वृषन्नमुं चरुं सत्रादावन्नपा वृधि। अस्मभ्यमप्रतिष्कुतः॥6॥ पदपाठ — देवनागरी सः। नः॒। वृ॒ष॒न् अ॒मुम्। च॒रुम्। सत्रा॑ऽदावन्। अप॑। वृ॒धि॒। अ॒स्मभ्य॑म्। अप्र॑तिऽस्कुतः॥ 1.7.6 PADAPAATH — ROMANsaḥ | naḥ | vṛṣan amum | carum | satrādāvan | apa | vṛdhi | asmabhyam | aprati-skutaḥ देवता —        इन्द्र:;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः   मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वतीहे (वृषन्) सुखों के वर्षाने और (सत्रादावन्) सत्यज्ञान को देनेवाले (सः) परमेश्वर ! आप (अस्मभ्यम्) जो कि हम लोग आपकी आज्ञा वा अपने पुरुषार्थ में वर्त्तमान हैं उनके लिये (अप्रतिष्कुतः) निश्चय करानेहारे (नः) हमारे (अमुं) उस आनन्द करनेहारे प्रत्यक्ष मोक्ष का द्वार (चरुं) ज्ञान लाभ को (अपावृधि) खोल दीजिये। तथा हे परमेश्वर ! जो यह आपका बनाया हुआ (वृषन्) जल को...

ऋग्वेदः 1.7.5

इन्द्रं वयं महाधन इन्द्रमर्भे हवामहे। युजं वृत्रेषु वज्रिणम्॥5॥ पदपाठ — देवनागरीइन्द्र॑म्। व॒यम्। म॒हा॒ऽध॒ने। इन्द्र॑म्। अर्भे॑। ह॒वा॒म॒हे॒। युज॑म्। वृ॒त्रेषु॑। व॒ज्रिण॑म्॥ 1.7.5 PADAPAATH — ROMANindram | vayam | mahādhane | indram | arbhe | havāmahe | yujam | vṛtreṣu | vajriṇam देवता —        इन्द्र:;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः   मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वतीहम लोग (महाधने) बडे-2 भारी संग्रामों में (इन्द्रं) परमेश्वर का (हवामहे) अधिक स्मरण करते रहते हैं और (अर्भे) छोटे-2 संग्रामों में भी इसी प्रकार (वज्रिणं) किरणवाले (इन्द्रं) सूर्य्य वा जलवाले वायु का जो कि (वृत्रेषु) मेघ के अंगों में (युजं) युक्त होने वाले इनके प्रकाश और सबमें गमनागमनादि गुणों के समान विद्या न्याय प्रकाश और दूतों के द्वारा सब राज्य का वर्त्तमान विदित...

ऋग्वेदः 1.7.4

इन्द्र वाजेषु नोऽव सहस्रप्रधनेषु च। उग्र उग्राभिरूतिभिः॥4॥ पदपाठ — देवनागरीइन्द्रः॑। वाजे॑षु। नः॒। अ॒व॒। स॒हस्र॑ऽप्रधनेषु। च॒। उ॒ग्रः। उ॒ग्राभिः॑। ऊ॒तिऽभिः॑॥ 1.7.4 PADAPAATH — ROMAN indraḥ | vājeṣu | naḥ | ava | sahasra-pradhaneṣu | ca | ugraḥ | ugrābhiḥ | ūti-bhiḥ देवता —        इन्द्र:;       छन्द —        निचृद्गायत्री ;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः   मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वतीहे जगदीश्वर ! (इन्द्र) परमैश्वर्य्य देने तथा (उग्रः) सबप्रकार से अनन्त पराक्रमवान् आप (सहस्रप्रधनेषु) असंख्यात धन को देनेवाले चक्रवर्त्ति राज्यको सिद्ध करनेवाले (वाजेषु) महायुद्धों में (उग्राभिः) अत्यन्त सुख देनेवाली (ऊतिभिः) उत्तम-2 पदार्थों की प्राप्ति तथा पदार्थों के विज्ञान और आनन्द में प्रवेश कराने से हमलोगों की (अव) रक्षा कीजिये॥4॥ भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वतीपरमेश्वर का यह स्वभाव है कि युद्ध करनेवाले धर्मात्मा...

ऋग्वेदः 1.7.3

इन्द्रो दीर्घाय चक्षस आ सूर्यं रोहयद्दिवि। वि गोभिरद्रिमैरयत्॥3॥ पदपाठ — देवनागरीइन्द्रः॑। दी॒र्घाय॑। चक्ष॑से॑। आ। सूर्य॑म्। रो॒ह॒य॒त्। दि॒वि। वि। गोभिः॑। अद्रि॑म्। ऐ॒र॒य॒त्॥ 1.7.3 PADAPAATH — ROMANindraḥ | dīrghāya | cakṣase | ā | sūryam | rohayat | divi | vi | gobhiḥ | adrim | airayat देवता —        इन्द्र:;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः   मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती(इन्द्रः) जो सब संसार का बनानेवाला परमेश्वर है उसने (दीर्घाय) निरन्तर अच्छी प्रकार (चक्षसे) दर्शन के लिये (दिवि) सब पदार्थों के प्रकाश होने के निमित्त जिस (सूर्य्यं) प्रसिद्ध सूर्य्यलोक को (आरोहयत्) लोकों के बीच में स्थापित किया है वह (गोभिः) जो अपनी किरणों के द्वारा (अद्रिं) मेघ को (व्यैरयत्) अनेक प्रकार से वर्षा होने के लिये ऊपर...