ऋग्वेदः 1.8.10

एवा ह्यस्य काम्या स्तोम उक्थं च शंस्या। इन्द्राय सोमपीतये॥10॥ पदपाठ — देवनागरी ए॒व। हि। अ॒स्य॒। काम्या॑। स्तोमः॑। उ॒क्थम्। च॒। शंस्या॑। इन्द्रा॑य। सोम॑ऽपीतये॥ 1.8.10 PADAPAATH — ROMAN eva | hi | asya | kāmyā | stomaḥ | uktham | ca | śaṃsyā | indrāya | soma-pītaye देवता —        इन्द्र:;       छन्द —        वर्धमाना गायत्री ;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः   मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती (अस्य) जो-2 इन चार वेदों के, (काम्ये) अत्यन्त मनोहर, (शंस्ये) प्रशंसा करने योग्य कर्म वा, (स्तोमः) स्तोत्र हैं, (च) तथा, (उक्थं) जिसमें परमेश्वर के गुणों का कीर्तन है वे, (इन्द्राय) परमेश्वर की प्रशंसा के लिये हैं, कैसा वह परमेश्वर है कि जो, (सोमपीतये) अपनी व्याप्ति से सब पदार्थों के अंश-2 में रम रहा है॥10॥...

ऋग्वेदः 1.8.9

एवा हि ते विभूतय ऊतय इन्द्र मावते। सद्यश्चित्सन्ति दाशुषे॥9॥ पदपाठ — देवनागरी ए॒व। हि। ते॒। विऽभू॑तयः। ऊ॒तयः॑। इ॒न्द्र॒। माऽव॑ते। स॒द्यः। चि॒त्। सन्ति॑। दा॒शुषे॑॥ 1.8.9 PADAPAATH — ROMAN eva | hi | te | vi-bhūtayaḥ | ūtayaḥ | indra | māvate | sadyaḥ | cit | santi | dāśuṣe देवता —        इन्द्र:;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः   मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती हे, (इन्द्र) जगदीश्वर! आपकी कृपा से जैसे, (ते) आपके, (विभूतयः) जो-2 उत्तम ऐश्वर्य्य और, (ऊतयः) रक्षा विज्ञान आदि गुण मुझको प्राप्त, (सन्ति) हैं। वैसे, (मावते) मेरे तुल्य, (दाशुषेचित्) सबके उपकार और धर्म में मन को देनेवाले पुरुष को, (सद्य एव) शीघ्र ही प्राप्त हो॥9॥ भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती इस मन्त्र में लुप्तोपमालंकार...

ऋग्वेदः 1.8.8

एवा ह्यस्य सूनृता विरप्शी गोमती मही। पक्वा शाखा न दाशुषे॥8॥ पदपाठ — देवनागरी ए॒व। हि। अ॒स्य॒। सू॒नृता॑। वि॒ऽर॒प्शी। गोऽम॑ती। म॒ही। प॒क्वा। शाखा॑। न। दा॒शुषे॑॥ 1.8.8 PADAPAATH — ROMAN eva | hi | asya | sūnṛtā | vi-rapśī | go–matī | mahī | pakvā | śākhā | na | dāśuṣe देवता —        इन्द्र:;       छन्द —        निचृद्गायत्री ;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः   मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती (पक्वाशाखान्) जैसे आम और कटहल आदि वृक्ष, पकी डाली और फलयुक्त होने से प्राणियों को सुख देनेहारे होते हैं, (अस्य हि) वैसे ही इस परमेश्वर की, (गोमती) जिसको बहुत से विद्वान् सेवन करनेवाले हैं जो, (सूनृता) प्रिय और सत्य वचन प्रकाश करनेवाली, (विरप्शी) महाविद्यायुक्त और, (मही) सबको सत्कार करने योग्य चारों...

ऋग्वेदः 1.8.7

यः कुक्षिः सोमपातमः समुद्र इव पिन्वते। उर्वीरापो न काकुदः॥7॥ पदपाठ — देवनागरी यः। कु॒क्षिः। सो॒म॒ऽपात॑मः। स॒मु॒द्रःऽइ॑व। पिन्व॑ते। उ॒र्वीः। आपः॑। न। का॒कुदः॑॥ 1.8.7 PADAPAATH — ROMAN yaḥ | kukṣiḥ | soma-pātamaḥ | samudraḥ-iva | pinvate | urvīḥ | āpaḥ | na | kākudaḥ देवता —        इन्द्र:;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः   मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती (समुद्र इव) जैसे समुद्र को जल, (आपोनकाकुदः) शब्दों के उच्चारण आदि व्यवहारों के करानेवाले प्राण वाणी को सेवन करते हैं। वैसे, (कुक्षिः) सब पदार्थों से रस को खींचने वाला तथा, (सोमपातमः) सोम अर्थात् सन्सार के पदार्थों का रक्षक जो सूर्य्य है वह, (उर्वीः) सब पृथिवी को सेवन वा सेचन करता है॥7॥ भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती इस मन्त्र में...

ऋग्वेदः 1.8.6

समोहे वा य आशत नरस्तोकस्य सनितौ। विप्रासो वा धियायवः॥6॥ पदपाठ — देवनागरी स॒म्ऽओ॒हे। वा॒। ये। आश॑त। नरः॑। तो॒कस्य॑। सनि॑तौ। विप्रा॑सः। वा॒। धि॒या॒ऽयवः॑॥ 1.8.6 PADAPAATH — ROMAN sam-ohe | vā | ye | āśata | naraḥ | tokasya | sanitau | viprāsaḥ | vā | dhiyāyavaḥ देवता —        इन्द्र:;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः   मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती (विप्रासः) जो अत्यन्त बुद्धिमान्, (नरः) मनुष्य हैं वे, (समोहे) संग्राम में निमित्त शत्रुओं को जीतने के लिये, (आशत) तत्पर हैं, (वा) अथवा (धियायवः) जो कि विज्ञान देने की इच्छा करनेवाले हैं वे, (तोकस्य) संतानों के, (सनितौ) विद्या की शिक्षा में, (आशत) उद्योग करते रहें॥6॥ भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती ईश्वर सब मनुष्यों को आज्ञा देता है कि- इस संसार में...

ऋग्वेदः 1.8.5

महाँ इन्द्रः परश्च नु महित्वमस्तु वज्रिणे। द्यौर्न प्रथिना शवः॥5॥ पदपाठ — देवनागरी म॒हान्। इन्द्रः॑। प॒रः। च॒। नु। म॒हि॒ऽत्वम्। अ॒स्तु॒। व॒ज्रिणे॑। द्यौः। न। प्र॒थि॒ना। शवः॑॥ 1.8.5 PADAPAATH — ROMAN mahān | indraḥ | paraḥ | ca | nu | mahi-tvam | astu | vajriṇe | dyauḥ | na | prathinā | śavaḥ देवता —        इन्द्र:;       छन्द —        निचृद्गायत्री ;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः   मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती (न) जैसे मूर्त्तिमान् संसार को प्रकाशयुक्त करने के लिये, (द्यौः) सूर्य्यप्रकाश, (प्रथिना) विस्तार से प्राप्त होता है वैसे ही जो, (महान्) सब प्रकार से अनन्त गुण अत्त्युत्तमस्वभाव अतुल सामर्थ्ययुक्त और, (परः) अत्यन्त श्रेष्ठ, (इन्द्रः) सब जगत् की रक्षा करने वाला परमेश्वर है और, (वज्रिणे) न्याय की रीति से दण्ड...