ऋग्वेदः 1.9.6
अस्मान्त्सु तत्र चोदयेन्द्र राये रभस्वतः। तुविद्युम्न यशस्वतः॥6॥ पदपाठ — देवनागरी अ॒स्मान्। सु। तत्र॑। चो॒द॒य॒। इन्द्र॑। रा॒ये। रभ॑स्वतः। तुवि॑ऽद्युम्न। यश॑स्वतः॥ 1.9.6 PADAPAATH — ROMAN asmān | su | tatra | codaya | indra | rāye | rabhasvataḥ | tuvi-dyumna | yaśasvataḥ देवता — इन्द्र:; छन्द — पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री; स्वर — षड्जः; ऋषि — मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती हे (तुविद्युम्न) अत्यन्त विद्यादिधनयुक्त, (इन्द्र) अन्तर्यामी ईश्वर! (रभस्वतः) जो आलस्य को छोड़ के कार्य्यों के आरम्भ करने, (यशस्वतः) सत्कीर्ति सहित, (अस्मान्) हमलोग पुरुषार्थी विद्या धर्म और सर्वोपकार से नित्य प्रयत्न करनेवाले मनुष्यों को, (तत्र) श्रेष्ठ पुरुषार्थ में, (राये) उत्तम-2 धन की प्राप्ति के लिये, (सुचोदय) अच्छी प्रकार युक्त कीजिये॥6॥ भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती सब मनुष्यों को उचित है कि इस...