ऋग्वेदः 1.10.3
युक्ष्वा हि केशिना हरी वृषणा कक्ष्यप्रा। अथा न इन्द्र सोमपा गिरामुपश्रुतिं चर॥3॥ पदपाठ — देवनागरी यु॒क्ष्व। हि। के॒शिना॑। हरी॒ इति॑। वृष॑णा। क॒क्ष्य॒ऽप्रा। अथ॑। नः॒। इ॒न्द्र॒। सो॒म॒ऽपाः॒। गि॒राम्। उप॑ऽश्रुतिम्। च॒र॒॥ 1.10.3 PADAPAATH — ROMAN yukṣva | hi | keśinā | harī iti | vṛṣaṇā | kakṣya-prā | atha | naḥ | indra | soma-pāḥ | girām | upa-śrutim | cara देवता — इन्द्र:; छन्द — विराड्नुष्टुप् ; स्वर — गान्धारः ; ऋषि — मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती हे, (सोमपाः) उत्तम पदार्थों के रक्षक, (इन्द्र) सबमें व्याप्त होनेवाले ईश्वर! जैसे आपका रचा हुआ सूर्य्यलोक जो अपने, (केशिना) प्रकाशयुक्त बल और आकर्षण अर्थात् पदार्थों के खींचने का सामर्थ्य जो कि, (वृषणा) वर्षा के हेतु और, (कक्ष्यप्रा) अपनी-2 कक्षाओं में...