ऋग्वेदः 1.13.7
नक्तोषासा सुपेशसास्मिन्यज्ञ उप ह्वये। इदं नो बर्हिरासदे॥7॥ पदपाठ — देवनागरी नक्तो॒षासा॑। सु॒ऽपेश॑सा। अ॒स्मिन्। य॒ज्ञे। उप॑। ह्व॒ये॒। इ॒दम्। नः॒। ब॒र्हिः। आ॒ऽसदे॑॥ 1.13.7 PADAPAATH — ROMAN naktoṣāsā | su-peśasā | asmin | yajñe | upa | hvaye | idam | naḥ | barhiḥ | āsade देवता — उषासानक्ता; छन्द — पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री; स्वर — षड्जः; ऋषि — मेधातिथिः काण्वः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती मैं (अस्मिन्) इस घर तथा (यज्ञे) संगत करने के कामों में (सुपेशसा) अच्छे रूपवाले (नक्तोषसा) रात्रि-दिन को (उपह्वये) उपकार में लाता हूँ, जिस कारण (नः) हमारा (बर्हिः) निवासस्थान (आसदे) सुख की प्राप्ति कि लिये हो॥7॥ भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती मनुष्यों को उचित है कि इस संसार में विद्या से सदैव उपकार लेवें, क्योंकि रात्रि-दिन सब प्राणियों के सुख का हेतु होता है॥7॥ रामगोविन्द त्रिवेदी...