ऋग्वेदः 1.14.7
तान्यजत्राँ ऋतावृधोऽग्ने पत्नीवतस्कृधि। मध्वः सुजिह्व पायय॥7॥ पदपाठ — देवनागरी तान्। यज॑त्रान्। ऋ॒त॒ऽवृधः॑। अग्ने॑। पत्नी॑ऽवतः। कृ॒धि॒। मध्वः॑। सु॒ऽजि॒ह्व॒। पा॒य॒य॒॥ 1.14.7 PADAPAATH — ROMAN tān | yajatrān | ṛta-vṛdhaḥ | agne | patnī-vataḥ | kṛdhi | madhvaḥ | su-jihva | pāyaya देवता — विश्वेदेवा:; छन्द — पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री; स्वर — षड्जः; ऋषि — मेधातिथिः काण्वः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती हे (अग्ने) जगदीश्वर ! आप (यजत्रान्) जो कला आदि पदार्थों में संयुक्त करने योग्य तथा (ॠतावृधः) सत्यता और यज्ञादि उत्तम कर्मों की वृद्धि करनेवाले हैं, (तान्) उन विद्युत् आदि पदार्थों को श्रेष्ठ करते हों, उन्हीं से हम लोगों को (पत्नीवतः) प्रशंसायुक्त स्त्रीवाले (कृधि) कीजिये। हे (सुजिह्व) श्रेष्ठता से पदार्थों की धारणाशक्तिवाले ईश्वर !आप (मध्वः) मधुर पदार्थों के रस को कृपा करके (पायय) पिलाइये।1। (सुजिह्व)...