ऋग्वेद 1.21.5

ता महान्ता सदस्पती इन्द्राग्नी रक्ष उब्जतम्। अप्रजाः सन्त्वत्रिणः॥5॥ पदपाठ — देवनागरी ता। म॒हान्ता॑। सद॒स्पती॒ इति॑। इन्द्रा॒ग्नी॒ इति॑। रक्षः॑। उ॒ब्ज॒त॒म्। अप्र॑जाः। स॒न्तु॒। अ॒त्रिणः॑॥ 1.21.5 PADAPAATH — ROMAN tā | mahāntā | sadaspatī iti | indrāgnī iti | rakṣaḥ | ubjatam | aprajāḥ | santu | atriṇaḥ देवता —        इन्द्राग्नी ;       छन्द —        निचृद्गायत्री ;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मेधातिथिः काण्वः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती मनुष्यों ने जो अच्छी प्रकार क्रिया की कुशलता में संयुक्त किये हुए (महान्ता) बड़े-बड़े उत्तम गुणवाले (ता) पूर्वोक्त (सदस्पती) सभाओं के पालन के निमित्त (इन्द्राग्नी) वायु और अग्नि हैं, जो (रक्षः) दुष्ट व्यवहारों को (उब्जतम्) नाश करते और उनसे (अत्रिणः) शत्रु जन (अप्रजाः) पुत्रादिरहित (सन्तु) हों, उनका उपयोग सब लोग क्यों न करें॥5॥ भावार्थ —...

ऋग्वेद 1.21.4

उग्रा सन्ता हवामह उपेदं सवनं सुतम्। इन्द्राग्नी एह गच्छताम्॥4॥ पदपाठ — देवनागरी उ॒ग्रा। सन्ता॑। ह॒वा॒म॒हे॒। उप॑। इ॒दम्। सव॑नम्। सु॒तम्। इ॒न्द्रा॒ग्नी इति॑। आ। इ॒ह। ग॒च्छ॒ता॒म्॥ 1.21.4 PADAPAATH — ROMAN ugrā | santā | havāmahe | upa | idam | savanam | sutam | indrāgnī iti | ā | iha | gacchatām देवता —        इन्द्राग्नी ;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मेधातिथिः काण्वः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती हम लोग विद्या की सिद्धि के लिये जिन (उग्रा) तीव्र (सन्ता) वर्त्तमान (इन्द्राग्नी) वायु और अग्नि का (हवामहे) उपदेश वा श्रवण करते हैं, वे (इदम्) इस प्रत्यक्ष (सवनम्) अर्थात् जिससे पदार्थों को उत्पन्न और (सुतम्) उत्तम शिल्पक्रिया से सिद्ध किये हुए व्यवहार को (उपागच्छताम्) हमारे निकटवर्त्ती करते हैं॥4॥ भावार्थ — महर्षि...

ऋग्वेद 1.21.3

ता मित्रस्य प्रशस्तय इन्द्राग्नी ता हवामहे। सोमपा सोमपीतये॥3॥ पदपाठ — देवनागरी ता। मि॒त्रस्य॑। प्रऽश॑स्तये। इ॒न्द्रा॒ग्नी इति॑। ता। ह॒वा॒म॒हे॒। सो॒म॒ऽपा। सोम॑ऽपीतये॥ 1.21.3 PADAPAATH — ROMAN tā | mitrasya | pra-śastaye | indrāgnī iti | tā | havāmahe | soma-pā | soma-pītaye देवता —        इन्द्राग्नी ;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मेधातिथिः काण्वः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती जैसे विद्वान् लोग वायु और अग्नि के गुणों को जानकर उपकार लेते हैं, वैसे हम लोग भी (ता) उन पूर्वोक्त (मित्रस्य) सबके उपकार करनेहारे और सबके मित्र के (प्रशस्तये) प्रशंसनीय सुख के लिये तथा (सोमपीतये) सोम अर्थात् जिस व्यवहार में संसारी पदार्थों की अच्छी प्रकार रक्षा होती है उसके लिये (ता) उन (सोमपा) सब पदार्थों की रक्षा करनेवाले (इन्द्राग्नी) वायु और...

ऋग्वेद 1.21.2

ता यज्ञेषु प्र शंसतेन्द्राग्नी शुम्भता नरः। ता गायत्रेषु गायत॥2॥ पदपाठ — देवनागरी ता। य॒ज्ञेषु॑। प्र। शं॒स॒त॒। इ॒न्द्रा॒ग्नी इति॑। शु॒म्भ॒त॒। न॒रः॒। ता। गा॒य॒त्रेषु॑। गा॒य॒त॒॥ 1.21.2 PADAPAATH — ROMAN tā | yajñeṣu | pra | śaṃsata | indrāgnī iti | śumbhata | naraḥ | tā | gāyatreṣu | gāyata देवता —        इन्द्राग्नी ;       छन्द —        पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मेधातिथिः काण्वः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती हे (नरः) यज्ञ करनेवाले मनुष्यो ! तुम जिस पूर्वोक्त (इन्द्राग्नी) वायु और अग्नि के (प्रशंसत) गुणों को प्रकाशित तथा (शुम्भत) सब जगह कामों में प्रदीप्त करते हो (ता) उनको (गायत्रेषु) गायत्री छन्दवाले वेद के स्तोत्रों में (गायत) षड्ज आदि स्वरों से गाओ॥2॥ भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती कोई भी मनुष्य अभ्यास के बिना वायु...

ऋग्वेद 1.21.1

इहेन्द्राग्नी उप ह्वये तयोरित्स्तोममुश्मसि। ता सोमं सोमपातमा॥1॥ पदपाठ — देवनागरी इ॒ह। इ॒न्द्रा॒ग्नी इति॑। उप॑। ह्व॒ये॒। तयोः॑। इत्। स्तोम॑म्। उ॒श्म॒सि॒। ता। सोम॑म्। सो॒म॒ऽपात॑मा॥ 1.21.1 PADAPAATH — ROMAN iha | indrāgnī iti | upa | hvaye | tayoḥ | it | stomam | uśmasi | tā | somam | soma-pātamā देवता —        इन्द्राग्नी ;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मेधातिथिः काण्वः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती (इह) इस संसार होमादि शिल्प में जो (सोमपातमा) पदार्थों की अत्यन्त पालन के निमित्त और (सोमम्) संसारी पदार्थों की निरन्तर रक्षा करनेवाले (इन्द्राग्नी) वायु और अग्नि हैं, (ता) उनको मैं (उपह्वये) अपने समीप काम की सिद्धि के लिये वश में लाता हूँ, और (तयोः) उनके (इत्) और (स्तोमम्) गुणों के प्रकाश करने को...

ऋग्वेद 1.20.8

अधारयन्त वह्नयोऽभजन्त सुकृत्यया। भागं देवेषु यज्ञियम्॥8॥ पदपाठ — देवनागरी अधा॑रयन्त। वह्न॑यः। अभ॑जन्त। सु॒ऽकृ॒त्यया॑। भा॒गम्। दे॒वेषु॑। य॒ज्ञिय॑म्॥ 1.20.8 PADAPAATH — ROMAN adhārayanta | vahnayaḥ | abhajanta | su-kṛtyayā | bhāgam | deveṣu | yajñiyam देवता —        ऋभवः ;       छन्द —        पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मेधातिथिः काण्वः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती जो (वह्नयः) संसार में शुभकर्म वा उत्तम गुणों को प्राप्त करानेवाले बुद्धिमान् सज्जन पुरुष (सुकृत्यया) श्रेष्ठ कर्म से (देवेषु) विद्वानों में रहकर (यज्ञियम्) यज्ञ से सिद्ध कर्म को (अधारयन्त) धारण करते हैं, वे (भागम्) आनन्द को निरन्तर (अभजन्त) सेवन करते हैं॥8॥ भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती मनुष्यों को योग्य है कि अच्छे कर्म वा विद्वानों की संगति तथा पूर्वोक्त यज्ञ के अनुष्ठान से व्यवहार सुख से लेकर मोक्षपर्यन्त...