ऋग्वेद 1.22.11
अभि नो देवीरवसा महः शर्मणा नृपत्नीः। अच्छिन्नपत्राः सचन्ताम्॥11॥ पदपाठ — देवनागरी अ॒भि। नः॒। दे॒वीः। अव॑सा। म॒हः। शर्म॑णा। नृ॒ऽपत्नीः॑। अच्छि॑न्नऽपत्राः। स॒च॒न्ता॒म्॥ 1.22.11 PADAPAATH — ROMAN abhi | naḥ | devīḥ | avasā | mahaḥ | śarmaṇā | nṛ-patnīḥ | acchinna-patrāḥ | sacantām देवता — देव्यः; छन्द — गायत्री; स्वर — षड्जः; ऋषि — मेधातिथिः काण्वः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती जैसी विद्या गुण कर्म और स्वभाववाले पुरुष हों उनकी स्त्री भी वैसी ही होनी ठीक हैं, क्योंकि जैसा तुल्य रूप विद्या गुण कर्म स्वभाववालों को सुख का सम्भव होता है, वैसा अन्य को भी नहीं हो सकता। इससे स्त्री अपने समान पुरुष वा पुरुष अपने समान स्त्रियों के साथ आपस में प्रसन्न होकर स्वयंवर विधान से विवाह करके सब कर्मों को सिद्ध करें॥11॥...