ऋग्वेद 1.22.17

इदं विष्णुर्वि चक्रमे त्रेधा नि दधे पदम्। समूळ्हमस्य पांसुरे॥17॥ पदपाठ — देवनागरी इ॒दम्। विष्णुः॑। वि। च॒क्र॒मे॒। त्रे॒धा। नि। द॒धे॒। प॒दम्। सम्ऽऊ॑ळ्हम्। अ॒स्य॒। पां॒सु॒रे॥ 1.22.17 PADAPAATH — ROMAN idam | viṣṇuḥ | vi | cakrame | tredhā | ni | dadhe | padam | sam-ūḷham | asya | pāṃsure देवता —        विष्णुः ;       छन्द —        पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मेधातिथिः काण्वः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती मनुष्य लोग ! जो (विष्णुः) व्यापक ईश्वर (त्रेधा) तीन प्रकार का (इदम्) यह प्रत्यक्ष वा अप्रत्यक्ष (पदम्) प्राप्त होनेवाला जगत् है, उसको (विचक्रमे) यथायोग्य प्रकृति और परमाणु आदि के पद वा अंशों को ग्रहण कर सावयव अर्थात् शरीरवाला करता और जिसने (अस्य) इस तीन प्रकार के जगत् का (समूढ़म्) अच्छी प्रकार तर्क से...

ऋग्वेद 1.22.16

अतो देवा अवन्तु नो यतो विष्णुर्विचक्रमे। पृथिव्याः सप्त धामभिः॥16॥ पदपाठ — देवनागरी अतः॑। दे॒वाः। अ॒व॒न्तु॒। नः॒। यतः॑। विष्णुः॑। वि॒ऽच॒क्र॒मे। पृ॒थि॒व्याः। स॒प्त। धाम॑ऽभिः॥ 1.22.16 PADAPAATH — ROMAN ataḥ | devāḥ | avantu | naḥ | yataḥ | viṣṇuḥ | vi-cakrame | pṛthivyāḥ | sapta | dhāma-bhiḥ देवता —        विष्णुर्देवो वा ;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मेधातिथिः काण्वः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती (यतः) जिस सदा वर्त्तमान नित्य कारण से (विष्णुः) चराचर संसार में व्यापक जगदीश्वर (पृथिव्याः) पृथिवी को लेकर (सप्त) सात अर्थात् पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, विराट्, परमाणु और प्रकृति पर्यन्त लोकों को (धामभिः) जो सब पदार्थों को धारण करते हैं उनके साथ (विचक्रमे) रचता है। (अतः) उसी से (देवाः) विद्वान् लोग (नः) हम लोगों को (अवन्तु)...

ऋग्वेद 1.22.15

स्योना पृथिवि भवानृक्षरा निवेशनी। यच्छा नः शर्म सप्रथः॥15॥ पदपाठ — देवनागरी स्यो॒ना। पृ॒थि॒वि॒। भ॒व॒। अ॒नृ॒क्ष॒रा। नि॒ऽवेश॑नी। यच्छ॑। नः॒। शर्म॑। स॒ऽप्रथः॑॥ 1.22.15 PADAPAATH — ROMAN syonā | pṛthivi | bhava | anṛkṣarā | ni-veśanī | yaccha | naḥ | śarma | sa-prathaḥ देवता —        पृथिवी ;       छन्द —        विराड्गायत्री ;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मेधातिथिः काण्वः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती जो यह (पृथिवी) अति विस्तार युक्त (स्योना) अत्यन्त सुख देने तथा (अनृक्षरा) जिसमें दुःख देनेवाले कंटक आदि न हों (निवेशनी) और जिसमें सुख से प्रवेश कर सकें, वैसी (भव) होती है, सो (नः) हमारे लिये (सप्रथः) विस्तारयुक्त सुखकारक पदार्थ वालों के साथ (शर्म्म) उत्तम सुख को (यच्छ) देती है॥15॥ भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती मनुष्यों को योग्य है, कि...

ऋग्वेद 1.22.14

तयोरिद्घृतवत्पयो विप्रा रिहन्ति धीतिभिः। गन्धर्वस्य ध्रुवे पदे॥14॥ पदपाठ — देवनागरी तयोः॑। इत्। घृ॒तऽव॑त्। पयः॑। विप्राः॑। रि॒ह॒न्ति॒। धी॒तिऽभिः॑। ग॒न्ध॒र्वस्य॑। ध्रु॒वे। प॒दे॥ 1.22.14 PADAPAATH — ROMAN tayoḥ | it | ghṛta-vat | payaḥ | viprāḥ | rihanti | dhīti-bhiḥ | gandharvasya | dhruve | pade देवता —        द्यावापृथिव्यौ ;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मेधातिथिः काण्वः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती जो (विप्राः) बुद्धिमान् पुरुष जिनसे प्रशंसनीय होते हैं (तयोः) उन प्रकाशमय और अप्रकाशमय लोकों के (धीतिभिः) धारण और आकर्षण आदि गुणों से (गन्धर्वस्य) पृथिवी को धारण करनेवाले वायु का (ध्रुवे) जो सब जगह भरा निश्चल (पदे) अन्तरिक्ष स्थान है, उसमें विमान आदि यानों को (रिहन्ति) गमनागमन करते हैं वे प्रशंसित होके, उक्त लोकों ही के आश्रय से (घृतवत्)...

ऋग्वेद 1.22.13

मही द्यौः पृथिवी च न इमं यज्ञं मिमिक्षताम्। पिपृतां नो भरीमभिः॥13॥ पदपाठ — देवनागरी म॒ही। द्यौः। पृ॒थि॒वी। च॒। नः॒। इ॒मम्। य॒ज्ञम्। मि॒मि॒क्ष॒ता॒म्। पि॒पृ॒ताम्। नः॒। भरी॑मऽभिः॥ 1.22.13 PADAPAATH — ROMAN mahī | dyauḥ | pṛthivī | ca | naḥ | imam | yajñam | mimikṣatām | pipṛtām | naḥ | bharīma-bhiḥ देवता —        द्यावापृथिव्यौ ;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मेधातिथिः काण्वः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती हे उपदेश के करने और सुननेवाले मनुष्यो ! तुम दोनों जो (मही) बड़े-बड़े गुणवाले (द्यौः) प्रकाशमय बि्जुली, सूर्य्य आदि और (पृथिवी) अप्रकाशवाले पृथिवी आदि लोकों का समूह (भरीमभिः) धारण और पुष्टि करनेवाले गुणों से (नः) हमारे (इमम्) इस (यज्ञम्) शिल्पविद्यामय यज्ञ (च) और (नः) हम लोगों को (पिपृताम्) सुख के साथ...

ऋग्वेद 1.22.12

इहेन्द्राणीमुप ह्वये वरुणानीं स्वस्तये। अग्नायीं सोमपीतये॥12॥ पदपाठ — देवनागरी इ॒ह। इ॒न्द्रा॒णीम्। उप॑। ह्व॒ये॒। व॒रु॒णा॒नीम्। स्व॒स्तये॑। अ॒ग्नायी॑म्। सोम॑ऽपीतये॥ 1.22.12 PADAPAATH — ROMAN iha | indrāṇīm | upa | hvaye | varuṇānīm | svastaye | agnāyīm | soma-pītaye देवता —        इन्द्राणीवरुणान्यग्नाय्यः ;       छन्द —        पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मेधातिथिः काण्वः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती हे मनुष्य लोगो ! जैसे हम लोग (इह ) इस व्यवहार में (स्वस्तये) अविनाशी प्रशंसनीय सुख वा (सोमपीतये) ऐश्वर्य्यों का जिस में भोग होता है उस कर्म के लिये जैसा (इन्द्राणीम्) सूर्य्य (वरुणानीम्) वायु वा जल और (अग्नायीम्) अग्नि की शक्ति हैं, वैसी स्त्रियों को पुरुष और पुरुषों को स्त्री लोग (उपह्वये) उपयोग के लिये स्वीकार करें वैसे तुम भी ग्रहण करो॥12॥ भावार्थ — महर्षि दयानन्द...