ऋग्वेद 1.23.2
उभा देवा दिविस्पृशेन्द्रवायू हवामहे। अस्य सोमस्य पीतये॥2॥ पदपाठ — देवनागरी उ॒भा। दे॒वा। दि॒वि॒ऽस्पृशा॑। इ॒न्द्र॒वा॒यू इति॑। ह॒वा॒म॒हे॒। अ॒स्य। सोम॑स्य। पी॒तये॑॥ 1.23.2 PADAPAATH — ROMAN ubhā | devā | divi-spṛśā | indravāyū iti | havāmahe | asya | somasya | pītaye देवता — इन्द्रवायू ; छन्द — पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री; स्वर — षड्जः; ऋषि — मेधातिथिः काण्वः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती हम लोग (अस्य) इस प्रत्यक्ष वा अप्रत्यक्ष (सोमस्य) उत्पन्न करनेवाले संसार के सुख के (पीतये) भोगने के लिये (दिविस्पृशा) जो प्रकाशयुक्त आकाश में विमान आदि यानों को पहुँचाने और (देवा) दिव्यगुणवाले (उभा) दोनों (इन्द्र वायू) अग्नि और पवन हैँ। उनको (हवामहे) साधने की इच्छा करते हैं॥2॥ भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती जो अग्नि पवन और जो वायु अग्नि से प्रकाशित होता है,...