Category: ऋग्वेद:

ऋग्वेद 1.27.6

विभक्तासि चित्रभानो सिन्धोरूर्मा उपाक आ। सद्यो दाशुषे क्षरसि॥6॥ पदपाठ — देवनागरीवि॒ऽभ॒क्ता। अ॒सि॒। चि॒त्र॒भा॒नो॒ इति॑ चित्रऽभानो। सिन्धोः॑। ऊ॒र्मौ। उ॒पा॒के। आ। स॒द्यः। दा॒शुषे॑। क्ष॒र॒सि॒॥ 1.27.6 PADAPAATH — ROMANvi-bhaktā | asi | citrabhāno iticitra-bhāno | sindhoḥ | ūrmau | upāke | ā | sadyaḥ | dāśuṣe | kṣarasi देवता —        अग्निः ;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        शुनःशेप आजीगर्तिः  मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वतीजैसे हे (चित्रभानो) विविध विद्यायुक्त विद्वान् मनुष्य! आप (सिन्धोः) समुद्र की (ऊर्मौ) तरंगों में जल के बिन्दु कणों के समान सब पदार्थ विद्या के (विभक्ता) अलग-अलग करनेवाले (असि) हैं और (दाशुषे) विद्या का ग्रहण वा अनुष्ठान करनेवाले मनुष्य के लिये (उपाके) समीप सत्य बोध उपदेश को (सद्यः) शीघ्र (आक्षरसि) अच्छे प्रकार वर्षाते हो वैसे भाग्यशाली विद्वान् आप...

ऋग्वेद 1.27.5

आ नो भज परमेष्वा वाजेषु मध्यमेषु। शिक्षा वस्वो अन्तमस्य॥5॥ पदपाठ — देवनागरीआ। नः॑। भ॒ज॒। प॒र॒मेषु॑। आ। वाजे॑षु। म॒ध्य॒मेषु॑। शिक्षा॑। वस्वः॑। अन्त॑मस्य॥ 1.27.5 PADAPAATH — ROMANā | naḥ | bhaja | parameṣu | ā | vājeṣu | madhyameṣu | śikṣā | vasvaḥ | antamasya देवता —        अग्निः ;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        शुनःशेप आजीगर्तिः  मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वतीहे विद्वान् मनुष्य ! (परमेषु) उत्तम (मध्यमेषु) मध्यम आनन्द के देनेवाले वा (वाजेषु) सुख प्राप्तिमय युद्धों वा उत्तम अन्नादि में (अन्तमस्य) जिस प्रत्यक्ष सुख मिलनेवाले संग्राम के बीच में (नः) हम लोगों को (आशिक्ष) सब विद्याओं की शिक्षा कीजिये इसी प्रकार हम लोगों के (वस्वः) धन आदि उत्तम-उत्तम पदार्थों का(आभज) अच्छे प्रकार स्वीकार कीजिये॥5॥  भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वतीइस प्रकार जिन धार्मिक पुरुषार्थी पुरुषों से सेवन किया हुआ विद्वान् सब विद्याओं को प्राप्त...

ऋग्वेद 1.27.4

इममू षु त्वमस्माकं सनिं गायत्रं नव्यांसम्। अग्ने देवेषु प्र वोचः॥4॥ पदपाठ — देवनागरीइ॒मम्। ऊँ॒ इति॑। सु। त्वम्। अ॒स्माक॑म्। स॒निम्। गा॒य॒त्रम्। नव्यां॑सम्। अग्ने॑। दे॒वेषु॑। प्र। वो॒चः॒॥ 1.27.4 PADAPAATH — ROMANimam | oṃ iti | su | tvam | asmākam | sanim | gāyatram | navyāṃsam | agne | deveṣu | pra | vocaḥ देवता —        अग्निः ;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        शुनःशेप आजीगर्तिः  मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती हे (अग्ने) अनन्त विद्यामय जगदीश्वर ! (त्वम्) सब विद्याओं का उपदेश करने और सब मंगलों के देनेवाले आप जैसे सृष्टि की आदि में (देवेषु) पुण्यात्मा अग्नि वायु आदित्य अंगिरा नामक मनुष्यों के आत्माओं में (नव्यांसम्) नवीन-नवीन बोध करानेवाला (गायत्रम्) गायत्री आदि छन्दों से युक्त (सुसनिम्) जिनमें सब प्राणी सुखों का सेवन करते हैं उन चारों वेदों का (प्रवोचः) उपदेश किया और अगले कल्प...

ऋग्वेद 1.27.3

स नो दूराच्चासाच्च नि मर्त्यादघायोः। पाहि सदमिद्विश्वायुः॥3॥ पदपाठ — देवनागरीसः। नः॒। दू॒रात्। च॒। आ॒सात्। च॒। नि। मर्त्या॑त्। अ॒घ॒ऽयोः। पा॒हि। सद॑म्। इत्। वि॒श्वऽआ॑युः॥ 1.27.3 PADAPAATH — ROMANsaḥ | naḥ | dūrāt | ca | āsāt | ca | ni | martyāt | agha-yoḥ | pāhi | sadam | it | viśva-āyuḥ देवता —        अग्निः ;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        शुनःशेप आजीगर्तिः  मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती(विश्वायुः) जिससे कि समस्त आयु सुख से प्राप्त होती है (सः) वह जगदीश्वर वा भौतिक अग्नि (अघायोः) जो पाप करना चाहते हैं उन (मर्त्त्यात्) शत्रुजनों से (दूरात्) दूर वा(आसात्) समीप से (नः) हम लोगों की वा हम लोगों के (सदः) सब सुख रहनेवाले शिल्पव्यवहार वा देहादिकों की (नि) (पाहि) निरन्तर रक्षा करता है॥3॥ #[देने। सं0] भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वतीइस मन्त्र में श्लेषालंकार है। मनुष्यों से उपासना किया हुआ ईश्वर...

ऋग्वेद 1.27.2

स घा नः सूनुः शवसा पृथुप्रगामा सुशेवः। मीढ्वाँ अस्माकं बभूयात्॥2॥ पदपाठ — देवनागरीसः। घ॒। नः॒। सू॒नुः। शव॑सा। पृ॒थुऽप्र॑गामा। सु॒ऽशेवः॑। मी॒ढ्वान्। अ॒स्माक॑म्। ब॒भू॒या॒त्॥ 1.27.2 PADAPAATH — ROMANsaḥ | gha | naḥ | sūnuḥ | śavasā | pṛthu-pragāmā | su-śevaḥ | mīḍhavān | asmākam | babhūyāt देवता —        अग्निः ;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        शुनःशेप आजीगर्तिः  मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वतीजो (सूनुः) धर्मात्मा पुत्र (शवसा) अपने पुरुषार्थ बल आदि गुण से (पृथुप्रगामा) अत्यन्त विस्तारयुक्त विमानादि रथों से उत्तम गमन करने तथा (मीढ्वान्) योग्य सुख का सींचनेवाला है वह (नः) हम लोगों की (घ) ही उत्तम क्रिया से धर्म और शिल्पकार्यों को करनेवाला (बभूयात्) हो। इस मन्त्र में सायणाचार्य ने लिट् के स्थान में लिङ् लकार कहकर तिड् को तिङ् होना यह अशुद्धता से व्याख्यान किया है क्योंकि तिङातिङो भवन्तीति वक्तव्यम् इस वार्तिक से...

ऋग्वेद 1.27.1

अश्वं न त्वा वारवन्तं वन्दध्या अग्निं नमोभिः। सम्राजन्तमध्वराणाम्॥1॥ पदपाठ — देवनागरीअश्व॑म्। न। त्वा॒। वार॑ऽवन्तम्। व॒न्दध्यै॑। अ॒ग्निम्। नमो॑भिः। स॒म्ऽराज॑न्तम्। अ॒ध्व॒राणा॑म्॥ 1.27.1 PADAPAATH — ROMANaśvam | na | tvā | vāra-vantam | vandadhyai | agnim | namobhiḥ | sam-rājantam | adhvarāṇām देवता —        अग्निः ;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        शुनःशेप आजीगर्तिः  मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वतीहम लोग (नमोभिः) नमस्कार स्तुति और अन्न आदि पदार्थों के साथ (वारवन्तम्) उत्तम केशवाले (अश्वम्) वेगवाले घोड़े के (न) समान। (अध्वराणाम्)राज्य के पालन अग्निहोत्र से लेकर शिल्पपर्य्यन्त यज्ञों में (सम्राजन्तम्) प्रकाशयुक्त (त्वा) आप विद्वान् को (वन्दध्यै) स्तुति करने को प्रवृत्त हुए भये सेवा करते हैं॥1॥ भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वतीइस मन्त्र में उपमालंकार है। जैसे विद्वान् स्वविद्या के प्रकाश आदि गुणों से अपने राज्य में अविद्या अन्धकार को निवारण कर प्रकाशित होते हैं वैसे परमेश्वर सर्वज्ञपन...