ऋग्वेदः 1.14.9
आकीं सूर्यस्य रोचनाद्विश्वान्देवाँ उषर्बुधः। विप्रो होतेह वक्षति॥9॥ पदपाठ — देवनागरी आकी॑म्। सूर्य॑स्य। रो॒च॒नात्। विश्वा॑न्। दे॒वान्। उ॒षः॒ऽबुधः॑। विप्रः॑। होता॑। इ॒ह। व॒क्ष॒ति॒॥ 1.14.9 PADAPAATH — ROMAN ākīm | sūryasya | rocanāt | viśvān | devān | uṣaḥ-budhaḥ | vipraḥ | hotā | iha | vakṣati देवता — विश्वेदेवा:; छन्द — गायत्री; स्वर — षड्जः; ऋषि — मेधातिथिः काण्वः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती जो (होता) होम में छोड़ने योग्य वस्तुओं का देने-लेनेवाला (विप्रः) बुद्धिमान् विद्वान् पुरुष है, वही (सूर्य्यस्य) चराचर के आत्मा परमेश्वर वा सूर्य्यलोक के (रोचनात्) प्रकाश से (इह) इस जन्म वा लोक में (उषर्बुधः) प्रातःकाल को प्राप्त होकर सुखों को चितानेवालों (विश्वान्) जो कि समस्त (देवान्) श्रेष्ठ भोगों को (वक्षति) प्राप्त होता वा कराता है। वही सब विद्याओं को प्राप्त हो के आनन्दयुक्त होता है॥9॥ भावार्थ — महर्षि...