ऋग्वेदः 1.15.3
अभि यज्ञं गृणीहि नो ग्नावो नेष्टः पिब ऋतुना। त्वं हि रत्नधा असि॥3॥ पदपाठ — देवनागरी अ॒भि। य॒ज्ञम्। गृ॒णी॒हि॒। नः॒। ग्रावः॑। नेष्ट॒रिति॑। पिब॑। ऋ॒तुना॑। त्वम्। हि। र॒त्न॒ऽधा। असि॑॥ 1.15.3 PADAPAATH — ROMAN abhi | yajñam | gṛṇīhi | naḥ | grāvaḥ | neṣṭariti | piba | ṛtunā | tvam | hi | ratna-dhā | asi देवता — त्वष्टा ; छन्द — गायत्री; स्वर — षड्जः; ऋषि — मेधातिथिः काण्वः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती यह (नेष्टः) शुद्धि और पुष्टि आदि हेतुओं से सब पदार्थों का प्रकाश करनेवाली बिजुली (ॠतुना) ॠतुओं के साथ रसों को (पिब) पीती है, तथा (हि) जिस कारण (रत्नधाः) उत्तम पदार्थों की धारण करनेवाली (असि) है। (त्वम्) सो यह (ग्नावः) सब पदार्थों की प्राप्ति करानेहारी (नः) हमारे इस (यज्ञम्) यज्ञ को...