Category: वेद:

ऋग्वेद 1.26.10

विश्वेभिरग्ने अग्निभिरिमं यज्ञमिदं वचः। चनो धाः सहसो यहो॥10॥ पदपाठ — देवनागरीविश्वे॑भिः। अ॒ग्ने॒। अ॒ग्निऽभिः॑। इ॒मम्। य॒ज्ञम्। इ॒दम्। वचः॑। चनः॑। धाः॒। स॒ह॒स॒। य॒हो॒ इति॑॥ 1.26.10 PADAPAATH — ROMAN viśvebhiḥ | agne | agni-bhiḥ | imam | yajñam | idam | vacaḥ | canaḥ | dhāḥ | sahasa | yaho iti देवता —        अग्निः ;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        शुनःशेप आजीगर्तिः  मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वतीहे (यहो) शिल्पकर्म में चतुर के अपत्य कार्य्यरूप अग्नि के उत्पन्न करनेवाले (अग्ने) विद्वान् ! जैसे आप सब सुखों के लिये (सहसः) अपने बल स्वरूप से (विश्वेभिः) सब (अग्निभिः) विद्युत् सूर्य और प्रसिद्ध कार्य्यरूप अग्नियों से (इमम्) इस प्रत्यक्ष वा अप्रत्यक्ष (यज्ञम्) संसार के व्यवहाररूप यज्ञ और (इदम्) हम लोगों ने कहा हुआ (वचः) विद्यायुक्त प्रशंसा का वाक्य(चनः) और खाने स्वाद लेने चाटने और चूसने योग्य पदार्थों को (धा) धारण कर चुका हो वैसे तू...

ऋग्वेद 1.26.9

अथा न उभयेषाममृत मर्त्यानाम्। मिथः सन्तु प्रशस्तयः॥9॥ पदपाठ — देवनागरीअथ॑। नः॒। उ॒भये॑षाम्। अमृ॑त। मर्त्या॑नाम्। मि॒थः। स॒न्तु॒। प्रऽश॑स्तयः॥ 1.26.9 PADAPAATH — ROMANatha | naḥ | ubhayeṣām | amṛta | martyānām | mithaḥ | santu | pra-śastayaḥ देवता —        अग्निः ;       छन्द —        आर्च्युष्णिक् ;       स्वर —        ऋषभः ;       ऋषि —        शुनःशेप आजीगर्तिः  मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती हे (अमृत) अविनाशिस्वरूप जगदीश्वर ! आपकी कृपा से जैसे उत्तम गुण कर्मों के ग्रहण से (अथ) अनन्तर (नः) हम लोग जो कि विद्वान् वा मूर्ख हैं (उभयेषाम्) उन दोनों प्रकार के (मर्त्यानाम्) मनुष्यों की (मिथः) परस्पर संसार में (प्रशस्तयः) प्रशंसा (सन्तु)हों वैसे सब मनुष्यों की हों ऐसी प्रार्थना करते हैं॥9॥ भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वतीजब तक मनुष्य लोग राग वा द्वेष को छोड़कर परस्पर उपकार के लिये विद्या शिक्षा और पुरुषार्थ से उत्तम-उत्तम कर्म नहीं करते तब तक वे...

ऋग्वेद 1.26.8

स्वग्नयो हि वार्यं देवासो दधिरे च नः। स्वग्नयो मनामहे॥8॥ पदपाठ — देवनागरीसु॒ऽअ॒ग्नयः॑। हि। वार्य॑म्। दे॒वासः॑। द॒धि॒रे। च॒। नः॒। सु॒ऽअ॒ग्नयः॑। म॒ना॒म॒हे॒॥ 1.26.8 PADAPAATH — ROMANsu-agnayaḥ | hi | vāryam | devāsaḥ | dadhire | ca | naḥ | su-agnayaḥ | manāmahe देवता —        अग्निः ;       छन्द —        आर्च्युष्णिक् ;       स्वर —        ऋषभः ;       ऋषि —        शुनःशेप आजीगर्तिः  मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वतीजैसे (स्वग्नयः) उत्तम अग्नियुक्त (देवासः) दिव्यगुणवाले विद्वान् (च) वा पृथिवी आदि पदार्थ (नः) हम लोगों के लिये (वार्यम्) स्वीकार करने योग्य पदार्थों को(दधिरे) धारण करते हैं वैसे हम लोग (स्वग्नयः) अग्नि के उत्तम अनुष्ठान युक्त होकर इन्हीं से विद्या समूह को (मनामहे) जानते हैं वैसे तुम भी जानो॥8॥ भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वतीइस मन्त्र में लुप्तोपमालंकार है। मनुष्यों को योग्य है कि ईश्वर ने इस संसार में जितने पदार्थ उत्पन्न किये हैं उनके जानने के...

ऋग्वेद 1.26.7

प्रियो नो अस्तु विश्पतिर्होता मन्द्रो वरेण्यः। प्रियाः स्वग्नयो वयम्॥7॥ पदपाठ — देवनागरी प्रि॒यः। नः॒। अ॒स्तु॒। वि॒श्पतिः॑। होता॑म्। म॒न्द्रः। वरे॑ण्यः। प्रि॒याः। सु॒ऽअ॒ग्नयः॑। व॒यम्॥ 1.26.7 PADAPAATH — ROMANpriyaḥ | naḥ | astu | viśpatiḥ | hotām | mandraḥ | vareṇyaḥ | priyāḥ | su-agnayaḥ | vayam देवता —        अग्निः ;       छन्द —        विराड्गायत्री ;      स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        शुनःशेप आजीगर्तिः  मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वतीहे मनुष्यो ! जैसे (स्वग्नयः) जिन्होंने अग्नि को सुखकारक किया है वे हम लोग(प्रियाः) राजपुरुष को प्रिय हैं जैसे (होता) यज्ञ का करने कराने (मन्द्रः) स्तुति के योग्य धर्मात्मा (वरेण्यः) स्वीकार करने योग्य विद्वान् (विश्पतिः) प्रजा का स्वामी सभाध्यक्ष (नः) हमको प्रिय है वैसे अन्य भी मनुष्य हों॥7॥ भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वतीजैसे हम लोग सबके साथ मित्रभाव से वर्त्तते और ये सब लोग हम लोगों के साथ मित्रभाव और प्रीति...

ऋग्वेद 1.26.5

पूर्व्य होतरस्य नो मन्दस्व सख्यस्य च। इमा उ षु श्रुधी गिरः॥5॥ पदपाठ — देवनागरी पूर्व्य॑। हो॒तः॒। अ॒स्य। नः॒। मन्द॑स्व। स॒ख्यस्य॑। च॒। इ॒माः। ऊँ॒ इति॑। सु। श्रु॒धी॒। गिरः॑॥ 1.26.5 PADAPAATH — ROMAN pūrvya | hotaḥ | asya | naḥ | mandasva | sakhyasya | ca | imāḥ | oṃ iti | su | śrudhī | giraḥ देवता —        अग्निः ;       छन्द —        विराड्गायत्री ;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        शुनःशेप आजीगर्तिः  मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती हे (पूर्व्य) पूर्व विद्वानों ने किये हुए मित्र (होतः) यज्ञ करने वा करानेवाले विद्वान् ! तू (नः) हमारे (अस्य) इस (सख्यस्य) मित्रकर्म की (मन्दस्व)इच्छा कर (उ) निश्चय है कि हम लोगों को (इमाः) ये जो प्रत्यक्ष (गिरः) वेद विद्या से संस्कार की हुई वाणी हैं उनको (सु श्रुधि) अच्छे प्रकार सुन और सुनाया कर॥5॥ भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वतीमनुष्यों को उचित है कि...

ऋग्वेद 1.26.4

आ नो बर्ही रिशादसो वरुणो मित्रो अर्यमा। सीदन्तु मनुषो यथा॥4॥ पदपाठ — देवनागरी आ। नः॒। ब॒र्हिः। रि॒शाद॑सः। वरु॑णः। मि॒त्रः। अ॒र्य॒मा। सीद॑न्तु। मनु॑षः। य॒था॒॥ 1.26.4 PADAPAATH — ROMAN ā | naḥ | barhiḥ | riśādasaḥ | varuṇaḥ | mitraḥ | aryamā | sīdantu | manuṣaḥ | yathā देवता —        अग्निः ;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        शुनःशेप आजीगर्तिः  मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वतीहे मनुष्यो ! (यथा) जैसे (रिशादसः) दुष्टों के मारनेवाले (वरुणः) सब विद्याओं में श्रेष्ठ (मित्रः) सबका सुहृद् (अर्यमा) न्यायकारी (मनुषः) सभ्य मनुष्य (नः) हम लोगों के (बर्हिः) सब सुख के देनेवाले आसन मे बैठते हैं वैसे आप भी बैठिये॥4॥ भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वतीइस मन्त्र में उपमालंकार है। जैसे सभ्यता पूर्वक सभाचतुर मनुष्य सभा में वर्त्तें वैसे ही सब मनुष्यों को सब दिन वर्त्तना चाहिये॥4॥ रामगोविन्द त्रिवेदी (सायण भाष्य के आधार पर)4,...