Category: ऋग्वेद:

ऋग्वेदः 1.3.3

दस्रा युवाकवः सुता नासत्या वृक्तबर्हिषः । आ यातं रुद्रवर्तनी ॥3॥ पदपाठ — देवनागरी दस्रा॑ । यु॒वाक॑वः । सु॒ताः । नास॑त्या । वृ॒क्तऽब॑र्हिषः । आ । या॒त॒म् । रु॒द्र॒व॒र्त॒नी॒ इति॑ रुद्रऽवर्तनी ॥ 1.3.3 PADAPAATH — ROMAN dasrā | yuvākavaḥ | sutāḥ | nāsatyā | vṛkta-barhiṣaḥ | ā | yātam | rudravartanī itirudra-vartanī देवता —        अश्विनौ ;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः   मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वतीहे (युवाकवः) एक-दूसरी से मिली वा पृथक् क्रियाओं को सिद्ध करने (सुताः) पदार्थविद्या के सार को सिद्ध करके प्रगट करने (वृक्तबर्हिषः) उसके फल को दिखलाने वाले विद्वान् लोगो ! (रुद्रवर्त्तनी) जिनका प्राणमार्ग है, वे (दस्रा) दुःखों के नाश करनेवाले (नासत्या) जिनमें एक भी गुण मिथ्या नहीं (आयातम्) जो अनेक प्रकार...

ऋग्वेदः 1.3.2

अश्विना पुरुदंससा नरा शवीरया धिया । धिष्ण्या वनतं गिरः ॥2॥ पदपाठ — देवनागरी अश्वि॑ना । पुरु॑ऽदंससा । नरा॑ । शवी॑रया । धि॒या । धिष्ण्या॑ । वन॑तम् । गिरः॑ ॥ 1.3.2 PADAPAATH — ROMAN aśvinā | puru-daṃsasā | narā | śavīrayā | dhiyā | dhiṣṇyā | vanatam | giraḥ देवता —        अश्विनौ ;       छन्द —        निचृद्गायत्री ;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः   मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वतीहे विद्वानो ! तुम लोग (पुरुदंससा) जिनसे शिल्पविद्या के लिये अनेक कर्म सिद्ध होते हैं (धिष्ण्या) जो कि सवारियों में वेगादिकों की तीव्रता के उत्पन्न करने प्रबल (नरा) उस विद्या के फल को देनेवाले और (शवीरया) वेग देनेवाली (धिया) क्रिया से कारीगरी में युक्त करने योग्य अग्नि और जल हैं वे (गिरः)...

ऋग्वेदः 1.3.1

अश्विना यज्वरीरिषो द्रवत्पाणी शुभस्पती । पुरुभुजा चनस्यतम् ॥1॥ पदपाठ — देवनागरी अश्वि॑ना । यज्व॑रीः । इषः॑ । द्रव॑त्पाणी॒ इति॒ द्रव॑त्ऽपाणी । शुभः॑ । प॒ती॒ इति॑ । पुरु॑ऽभुजा । च॒न॒स्यत॑म् ॥ 1.3.1 PADAPAATH — ROMAN aśvinā | yajvarīḥ | iṣaḥ | dravatpāṇī itidravat-pāṇī | śubhaḥ | patī iti | puru-bhujā | canasyatam देवता —        अश्विनौ ;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः   मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती हे विद्याके चाहने वाले मनुष्यो ! तुम लोग (द्रवत्पाणी) शीघ्र वेग का निमित्त पदार्थ विद्या के व्यवहारसिद्धि करनेमें उत्तम हेतु (शुभस्पती) शुभगुणों के प्रकाश को पालने और (पुरुभुजा) अनेक खानेपीने के पदार्थों के देने में उत्तम हेतू (अश्विना) अर्थात् जल और अग्नि तथा (यज्वरीः) शिल्पविद्या का सम्बन्ध कराने वाली...

ऋग्वेदः 1.2.9

कवी नो मित्रावरुणा तुविजाता उरुक्षया । दक्षं दधाते अपसम् ॥9॥ पदपाठ — देवनागरी क॒वी इति॑ । नः॒ । मि॒त्रावरु॑णा । तु॒वि॒ऽजा॒तौ । उ॒रु॒ऽक्षया॑ । दक्ष॑म् । द॒धा॒ते॒ इति॑ । अ॒पस॑म् ॥ 1.2.9 PADAPAATH — ROMAN kavī iti | naḥ | mitrāvaruṇā | tuvi-jātau | uru-kṣayā | dakṣam | dadhāteiti | apasam देवता —        मित्रावरुणौ ;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः   मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती (तुविज्ञातौ) जो बहुत कारणों से उत्पन्न और बहुतों में प्रसिद्ध (उरुक्षया) संसार के बहुत से पदार्थों में रहनेवाले (कवी) दर्शनादि व्यवहार के हेतू (मित्रावरुणा) पूर्वोक्त मित्र और वरुण हैं वे (नः) हमारे (दक्षं) बल तथा सुख वा दुःखयुक्त कर्मों को (दधाते) धारण करते हैं ॥9॥ भावार्थ — महर्षि दयानन्द...

ऋग्वेदः 1.2.8

ऋतेन मित्रावरुणावृतावृधावृतस्पृशा । क्रतुं बृहन्तमाशाथे ॥8॥ पदपाठ — देवनागरी ऋ॒तेन॑ । मि॒त्रा॒व॒रु॒णौ॒ । ऋ॒ता॒ऽवृ॒धौ॒ । ऋ॒त॒ऽस्पृ॒शा॒ । क्रतु॑म् । बृ॒हन्त॑म् । आ॒शा॒थे॒ इति॑ ॥ 1.2.8 PADAPAATH — ROMAN ṛtena | mitrāvaruṇau | ṛtāvṛdhau | ṛta-spṛśā | kratum | bṛhantam | āśātheiti देवता —        मित्रावरुणौ ;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः   मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती(ॠतेन) सत्यस्वरूप ब्रह्म के नियम में बन्धे हुए (ॠतावृधौ) ब्रह्मज्ञान बढ़ाने, जलके खींचने और वर्षाने (ॠतस्पृशा0) ब्रह्म की प्राप्ति कराने में निमित्त तथा उचित समय पर जलवृष्टि के करनेवाले (मित्रावरुणौ) पूर्वोक्त मित्र और वरुण (बृहन्तम्) अनेक प्रकार के (क्रतुम्) जगत् रूप यज्ञ को (आशाथे) व्याप्त होते हैं ॥8॥ भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वतीपरमेश्वर के आश्रय से उक्त मित्र और वरुण...

ऋग्वेदः 1.2.7

मित्रं हुवे पूतदक्षं वरुणं च रिशादसम् । धियं घृताचीं साधन्ता ॥7॥ पदपाठ — देवनागरी मि॒त्रम् । हु॒वे॒ । पू॒तऽद॑क्षम् । वरु॑णम् । च॒ । रि॒शाद॑सम् । धिय॑म् । घृ॒ताची॑म् । साध॑न्ता ॥ 1.2.7 PADAPAATH — ROMAN mitram | huve | pūta-dakṣam | varuṇam | ca | riśādasam | dhiyam | ghṛtācīm | sādhantā देवता —        मित्रावरुणौ ;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः   मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वतीविद्या का चाहने (पूतदक्षम्) पवित्रबल सब सुखों के देने वा (मित्रम्) ब्रह्माण्ड और शरीर में रहनेवाले सूर्य्य (मित्रो0) इस ॠग्वेद के प्रमाण से मित्र शब्द करके सूर्य्य का ग्रहण है तथा (रिशादसम्) रोग और शत्रुओं के नाश करने वा (वरुणं च) शरीर के बाहर और भीतर रहनेवाले प्राण...