Category: ऋग्वेद:

ऋग्वेदः 1.4.9

तं त्वा वाजेषु वाजिनं वाजयामः शतक्रतो । धनानामिन्द्र सातये ॥9॥ पदपाठ — देवनागरीतम् । त्वा॒ । वाजे॑षु । वा॒जिन॑म् । वा॒जया॑मः । श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शतऽक्रतो । धना॑नाम् । इ॒न्द्र॒ । सा॒तये॑ ॥ 1.4.9 PADAPAATH — ROMANtam | tvā | vājeṣu | vājinam | vājayāmaḥ | śatakrato itiśata-krato | dhanānām | indra | sātaye देवता —        इन्द्र:;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः   मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वतीहे (शतक्रतो) असंख्यात वस्तुओं में विज्ञान रखनेवाले (इन्द्र) परम ऐश्वर्य्यवान् जगदीश्वर ! हम लोग (धनानाम्) पूर्ण विद्या और राज्य को सिद्ध करनेवाले पदार्थों का (सातये) सुखभोग वा अच्छे प्रकार सेवन करने के लिये (वाजेषु) युद्धादि व्यवहारों में (वाजिनम्) विजय करानेवाले और (तम्) उक्त गुणयुक्त (त्वाम्) आपको ही (वाजयामः) नित्य...

ऋग्वेदः 1.4.8

अस्य पीत्वा शतक्रतो घनो वृत्राणामभवः । प्रावो वाजेषु वाजिनम् ॥8॥ पदपाठ — देवनागरीअ॒स्य । पी॒त्वा । श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शतऽक्रतो । घ॒नः । वृ॒त्राणा॑म् । अ॒भ॒वः॒ । प्र । आ॒वः॒ । वाजे॑षु । वा॒जिन॑म् ॥ 1.4.8 PADAPAATH — ROMANasya | pītvā | śatakrato itiśata-krato | ghanaḥ | vṛtrāṇām | abhavaḥ | pra | āvaḥ | vājeṣu | vājinam देवता —        इन्द्र:;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः   मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वतीहे पुरुषोत्तम ! जैसे यह (घनः) मूर्त्तिमान् होके सूर्य्यलोक (अस्य) जल रस को (पीत्वा) पीकर (वृत्राणाम्) मेघ के अंगरूप जलबिन्दुओं को वर्षा के सब ओषधी आदि पदार्थों को पुष्ट करके सबकी रक्षा करता है वैसे ही हे (शतक्रतो) असंख्यात कर्मों के करनेवाले शूर वीरों !...

ऋग्वेदः 1.4.7

एमाशुमाशवे भर यज्ञश्रियं नृमादनम् । पतयन्मन्दयत्सखम् ॥7॥ पदपाठ — देवनागरीआ । ई॒म् । आ॒शुम् । आ॒शवे॑ । भ॒र॒ । य॒ज्ञ॒ऽश्रिय॑म् । नृ॒ऽमाद॑नम् । प॒त॒यत् । म॒न्द॒यत्ऽस॑खम् ॥ 1.4.7 PADAPAATH — ROMANā | īm | āśum | āśave | bhara | yajña-śriyam | nṛ-mādanam | patayat | mandayat-sakham देवता —        इन्द्र:;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः   मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वतीहे इन्द्र परमेश्वर ! आप अपनी कृपा करके हम लोगों के अर्थ (आशवे) यानों में सब सुख वा वेगादि गुणों की शीघ्र प्राप्ति के लिये जो (आशुम्) वेग आदि गुणवाले अग्नि वायु आदि पदार्थ (यज्ञश्रियम्) चक्रवर्त्ति राज्य के महिमा की शोभा (ई्म्) जल और पृथिवी आदि (नृमादनम्) जो कि मनुष्यों को अत्यन्त आनन्द देनेवाले तथा...

ऋग्वेदः 1.4.6

उत नः सुभगाँ अरिर्वोचेयुर्दस्म कृष्टयः । स्यामेदिन्द्रस्य शर्मणि ॥6॥ पदपाठ — देवनागरीउ॒त । नः॒ । सु॒भगा॑न् । अ॒रिः । वो॒चेयुः॑ । द॒स्म॒ । कृ॒ष्टयः॑ । स्याम॑ । इत् । इन्द्र॑स्य । शर्म॑णि ॥ 1.4.6 PADAPAATH — ROMANuta | naḥ | subhagān | ariḥ | voceyuḥ | dasma | kṛṣṭayaḥ | syāma | it | indrasya | śarmaṇi देवता —        इन्द्र:;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः   मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वतीहे (दस्म) दुष्टों को दंड देनेवाले परमेश्वर ! हम लोग (इन्द्रस्य) आपके दिये हुए (शर्मणि) नित्य सुख वा आज्ञा पालने में (स्याम) प्रवृत्त हों और ये (कृष्टयः) सब मनुष्य लोग प्रीति के साथ सब मनुष्यों के लिये सब विद्याओं को (वोचेयुः) उपदेश से प्राप्त करें...

ऋग्वेदः 1.4.4

परेहि विग्रमस्तृतमिन्द्रं पृच्छा विपश्चितम् । यस्ते सखिभ्य आ वरम् ॥4॥ पदपाठ — देवनागरीपरा॑ । इ॒हि॒ । विग्र॑म् । अस्तृ॑तम् । इन्द्र॑म् । पृ॒च्छ॒ । वि॒पः॒ऽचित॑म् । यः । ते॒ । सखि॑ऽभ्यः । आ । वर॑म् ॥ 1.4.4 PADAPAATH — ROMANparā | ihi | vigram | astṛtam | indram | pṛccha | vipaḥ-citam | yaḥ | te | sakhi-bhyaḥ | ā | varam देवता —        इन्द्र:;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः   मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वतीहे विद्या की अपेक्षा करनेवाले मनुष्य लोगो ! जो विद्वान् तुझ और (ते) तेरे (सखिभ्यः) मित्रों के लिये (आवरम्) श्रेष्ठ विज्ञान को देता हो उस (विग्रम्) जो श्रेष्ठ बुद्धिमान् (अस्तृतम्) हिंसा आदि अधर्मरहित (इन्द्रम्) विद्या परमैश्वर्य्ययुक्त (विपश्चितम्) यथार्थ सत्य कहनेवाले...

ऋग्वेदः 1.4.5

उत ब्रुवन्तु नो निदो निरन्यतश्चिदारत । दधाना इन्द्र इद्दुवः ॥5॥ पदपाठ — देवनागरीउ॒त । ब्रु॒व॒न्तु॒ । नः॒ । निदः॑ । निः । अ॒न्यतः॑ । चित् । आ॒र॒त॒ । दधा॑नाः । इन्द्रे॑ । इत् । दुवः॑ ॥ 1.4.5 PADAPAATH — ROMANuta | bruvantu | naḥ | nidaḥ | niḥ | anyataḥ | cit | ārata | dadhānāḥ | indre | it | duvaḥ देवता —        इन्द्र:;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः   मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वतीजो कि परमेश्वर की (दुवः) सेवा को धारण किये हुए सब विद्या धर्म और पुरुषार्थ में वर्तमान हैं वेही। (नः) हम लोगों के लिये सब विद्याओं का उपदेश करें और जो कि (चित्) नास्तिक (निदः) निन्दक वा धृर्त मनुष्य हैं...