Category: ऋग्वेद:

ऋग्वेदः 1.6.1

युञ्जन्ति ब्रध्नमरुषं चरन्तं परि तस्थुषः । रोचन्ते रोचना दिवि ॥1॥ पदपाठ — देवनागरीयु॒ञ्जन्ति॑ । ब्र॒ध्नम् । अ॒रु॒षम् । चर॑न्तम् । परि॑ । त॒स्थुषः॑ । रोच॑न्ते । रो॒च॒ना । दि॒वि ॥ 1.6.1 PADAPAATH — ROMANyuñjanti | bradhnam | aruṣam | carantam | pari | tasthuṣaḥ | rocante | rocanā | divi देवता —        इन्द्र:;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः   मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वतीजो मनुष्य (अरूषम्) अंग-2 में व्याप्त होनेवाले हिंसारहित सब सुख को करने (चरन्तम्) सब जगत् को जानने वा सबमें व्याप्त (परितस्थुषः) सब मनुष्य वा स्थावर जंगम पदार्थ और चराचर जगत् में भरपूर हो रहा है। (ब्रध्नम्) उस महान् परमेश्वर की उपासना योगद्वारा प्राप्त होते हैं। वे (दिवि) प्रकाश रूप परमेश्वर और बाहर...

ऋग्वेदः 1.5.10

मा नो मर्ता अभि द्रुहन्तनूनामिन्द्र गिर्वणः । ईशानो यवया वधम् ॥10॥ पदपाठ — देवनागरीमा । नः॒ । मर्ताः॑ । अ॒भि । द्रु॒ह॒न् । त॒नूना॑म् । इ॒न्द्र॒ । गि॒र्व॒णः॒ । ईशा॑नः । य॒व॒य॒ । व॒धम् ॥ 1.5.10 PADAPAATH — ROMAN mā | naḥ | martāḥ | abhi | druhan | tanūnām | indra | girvaṇaḥ | īśānaḥ | yavaya | vadham देवता —        इन्द्र:;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः   मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वतीहे (गिर्वणः) वेद वा उत्तम-उत्तम शिक्षाओंसे सिद्धकी हुई वाणियों करके सेवा करने योग्य सर्वशक्तिमान् (इन्द्र) सबके रक्षक (ईशानः) परमेश्वर आप (नः) हमारे (तनूनाम्) शरीरों के (वधम्) नाश दोषसहित (मा) कभी मत (यवय) कीजिये तथा आपके उपदेशसे (मर्त्ता) ये सब मनुष्य लोग भी...

ऋग्वेदः 1.5.9

अक्षितोतिः सनेदिमं वाजमिन्द्रः सहस्रिणम् । यस्मिन्विश्वानि पौंस्या ॥9॥ पदपाठ — देवनागरीअक्षि॑तऽऊतिः । स॒ने॒त् । इ॒मम् । वाज॑म् । इन्द्रः॑ । स॒ह॒स्रिण॑म् । यस्मि॑न् । विश्वा॑नि । पौंस्या॑ ॥ 1.5.9 PADAPAATH — ROMAN akṣita-ūtiḥ | sanet | imam | vājam | indraḥ | sahasriṇam | yasmin | viśvāni | paiṃsyā देवता —        इन्द्र:;       छन्द —        निचृद्गायत्री ;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः   मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वतीजो (अक्षितोतिः) नित्य ज्ञानवाला (इन्द्र) सब ऐश्वर्य्ययुक्त परमेश्वर है वह कृपा करके हमारे लिये (यस्मिन्) जिस व्यवहार में (विश्वानि) सब (पौंस्या) पुरुषार्थसे युक्त बल है (इमम्) इस (सहस्रिणम्) असंख्यात सुखदेनेवाले (वाजम्) पदार्थों के विज्ञानको (सनेत्) सम्यक् सेवन करावे कि जिससे हम लोग उत्तम-उत्तम सुखों को प्राप्त हों ॥9॥ भावार्थ — महर्षि दयानन्द...

ऋग्वेदः 1.5.8

त्वां स्तोमा अवीवृधन्त्वामुक्था शतक्रतो । त्वां वर्धन्तु नो गिरः ॥8॥ पदपाठ — देवनागरीत्वाम् । स्तोमाः॑ । अ॒वी॒वृ॒ध॒न् । त्वाम् । उ॒क्था । श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शतऽक्रतो । त्वाम् । व॒र्ध॒न्तु॒ । नः॒ । गिरः॑ ॥ 1.5.8 PADAPAATH — ROMAN tvām | stomāḥ | avīvṛdhan | tvām | ukthā | śatakrato itiśata-krato | tvām | vardhantu | naḥ | giraḥ देवता —        इन्द्र:;       छन्द —        पादनिचृद्गायत्री ;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः   मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वतीहे (शतक्रतो) असंख्यात कर्मों के करने और अनन्त विज्ञान के जाननेवाले परमेश्वर जैसे (स्तोमाः) वेदके स्तोत्र तथा (उक्था) प्रशंसनीय स्तोत्र आपको (अवीवृधन्) अत्यन्त प्रसिद्ध करते हैं वैसे ही (नः) हमारी (गिरः) विद्या और सत्यभाषणयुक्त वाणी भी (त्वाम्) आपको (वर्धन्तु) प्रकाशित करें ॥8॥ भावार्थ...

ऋग्वेदः 1.5.7

आ त्वा विशन्त्वाशवः सोमास इन्द्र गिर्वणः । शं ते सन्तु प्रचेतसे ॥7॥ पदपाठ — देवनागरीआ । त्वा॒ । वि॒श॒न्तु॒ । आ॒शवः॑ । सोमा॑सः । इ॒न्द्र॒ । गि॒र्व॒णः॒ । शम् । ते॒ । स॒न्तु॒ । प्रऽचे॑तसे ॥ 1.5.7 PADAPAATH — ROMAN ā | tvā | viśantu | āśavaḥ | somāsaḥ | indra | girvaṇaḥ | śam | te | santu | pra-cetase देवता —        इन्द्र:;       छन्द —        निचृद्गायत्री ;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः   मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वतीहे धार्मिक (गिर्वणः) प्रशंसा के योग्य कर्म करनेवाले (इन्द्र) विद्वान् जीव (आशवः) वेगादि गुणसहित सब क्रियाओं से व्याप्त (सोमासः) सब पदार्थ (त्वा) तुझको (आविशन्तु) प्राप्त हो तथा इन पदार्थों को प्राप्त हुये (प्रचेतसे) शुद्धज्ञानवाले (ते) तेरे लिये (शम्) ये सब...

ऋग्वेदः 1.5.6

त्वं सुतस्य पीतये सद्यो वृद्धो अजायथाः । इन्द्र ज्यैष्ठ्याय सुक्रतो ॥6॥ पदपाठ — देवनागरीत्वम् । सु॒तस्य॑ । पी॒तये॑ । स॒द्यः । वृ॒द्धः । अ॒जा॒य॒थाः॒ । इन्द्र॑ । ज्यैष्ठ्या॑य । सु॒क्र॒तो॒ इति॑ सुऽक्रतो ॥ 1.5.6 PADAPAATH — ROMANtvam | sutasya | pītaye | sadyaḥ | vṛddhaḥ | ajāyathāḥ | indra | jyaiṣṭhyāya | sukrato itisu-krato देवता —        इन्द्र:;       छन्द —        निचृद्गायत्री ;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः   मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वतीहे (इन्द्र) विद्यादिपरमैश्वर्य्ययुक्त (सुक्रतो) श्रेष्ठ कर्म करने और उत्तम बुद्धि वाले विद्वान् मनुष्य ! (त्वम्) तू (सद्यः) शीघ्र (सुतस्य) संसारी पदार्थों के रसके (पीतये) पान वा ग्रहण और (ज्यैष्ठ्याय) अत्युत्तम कर्मोंके अनुष्ठान करने केलिये (वृद्धः) विद्या आदि शुभ गुणोंके ज्ञानके ग्रहण और सबके उपकार करने में श्रेष्ठ...