Category: ऋग्वेद:

ऋग्वेदः 1.6.7

इन्द्रेण सं हि दृक्षसे संजग्मानो अबिभ्युषा। मन्दू समानवर्चसा॥7॥ पदपाठ — देवनागरीइन्द्रे॑ण। सम्। हि। दृक्ष॑से। स॒म्ऽज॒ग्मा॒नः। अबि॑भ्युषा। म॒न्दू इति॑। स॒मा॒नऽव॑र्चसा॥ 1.6.7 PADAPAATH — ROMANindreṇa | sam | hi | dṛkṣase | sam-jagmānaḥ | abibhyuṣā | mandū iti | samāna-varcasā देवता —        मरूत इन्द्रश्च ;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः   मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वतीयह वायु (अबिभ्युषा) भय दूर करनेवाली (इन्द्रेण) परमेश्वर की सत्ता के साथ (संजग्मानः) अच्छी प्रकार प्राप्त हुआ तथा वायु के साथ सूर्य्य (संदृक्षसे) अच्छी प्रकार दृष्टि में आता है। (हि) जिस कारण ये दोनों (समानवर्चसा) पदार्थों के प्रसिद्ध बलवान हैं इसी से वे सब जीवों को (मन्दू) आनन्द के देनेवाले होते हैं॥7॥ भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वतीईश्वर ने जो अपनी व्याप्ति और...

ऋग्वेदः 1.6.6

देवयन्तो यथा मतिमच्छा विदद्वसुं गिरः। महामनूषत श्रुतम्॥6॥ पदपाठ — देवनागरीदे॒व॒ऽयन्तः॑। यथा॑। म॒तिम्। अच्छ॑। वि॒दत्ऽव॑सुम्। गिरः॑। म॒हाम्। अ॒नू॒ष॒त॒। श्रु॒तम्॥ 1.6.6 PADAPAATH — ROMAN deva-yantaḥ | yathā | matim | accha | vidat-vasum | giraḥ | mahām | anūṣata | śrutam देवता —        मरूतः;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः   मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वतीजैसे (देवयन्तः) सब विज्ञानयुक्त (गिरः) विद्वान् मनुष्य (विदद्वसुम्) सुखकारक पदार्थ विद्या से युक्त (महाम्) अत्यन्त बड़ी (मतिम्) बुद्धि (श्रुतम्) सब शास्त्रों के श्रवण और कथन को (अच्छ) अच्छी प्रकार (अनूषत) प्रकाश करते हैं वैसे ही अच्छी प्रकार साधन करने से वायु भी शिल्प अर्थात् सब कारीगरों को (अनूषत) सिद्ध करते हैं॥6॥ भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वतीइस मन्त्र में उपमालंकार है। मनुष्यों को वायु...

ऋग्वेदः 1.6.5

वीळु चिदारुजत्नुभिर्गुहा चिदिन्द्र वह्निभिः। अविन्द उस्रिया अनु॥5॥ पदपाठ — देवनागरीवी॒ळु। चि॒त्। आ॒रु॒ज॒त्नुऽभिः॑। गुहा॑। चि॒त्। इ॒न्द्र॒। वह्नि॑ऽभिः। अवि॑न्दः। उ॒स्रियाः॑। अनु॑॥ 1.6.5 PADAPAATH — ROMAN vīḷu | cit | ārujatnu-bhiḥ | guhā | cit | indra | vahni-bhiḥ | avindaḥ | usriyāḥ | anu देवता —        मरूत इन्द्रश्च ;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः   मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती(चित्) जैसे मनुष्य लोग अपने पास के पदार्थों को उठाते धरते हैं। (चित्) वैसे ही सूर्य्य भी, (वीळु) दृढ़ बल से (उस्रियाः) अपनी किरणों करके संसारी पदार्थों को (अविन्दः) प्राप्त होता है। (अनु) उसके अनन्तर सूर्य्य उनको छेदन करके (आरुजलुभिः) भंग करने और (वह्निभिः) आकाश आदि देशों में पहुंचाने वाले पवन के साथ ऊपर नीचे करता हुआ (गुहा)...

ऋग्वेदः 1.6.4

आदह स्वधामनु पुनर्गर्भत्वमेरिरे।दधाना नाम यज्ञियम्॥4॥ पदपाठ — देवनागरीआत्। अह॑। स्व॒धाम्। अनु॑। पुनः॑। ग॒र्भ॒ऽत्वम्। आ॒ऽई॒रि॒रे। दधा॑नाः। नाम॑। य॒ज्ञिय॑म्॥ 1.6.4 PADAPAATH — ROMANāt | aha | svadhām | anu | punaḥ | garbha-tvam āīrire | dadhānāḥ | nāma | yajñiyam देवता —        मरूतः;       छन्द —        निचृद्गायत्री ;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः   मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वतीजैसे (मरुतः) वायु (नाम) जल और (यज्ञियम्) यज्ञ के योग्य देश को (दधानाः) सब पदार्थों को धारण किये हुये (पुनः) फिर-2 (स्वधामनु) जलों में (गर्भत्वम्) उनके समूह रूपी गर्भ को (एरिरे) सब प्रकार से प्राप्त होते कंपाते वैसे (आत्) उसके उपरान्त वर्षा करते हैं। ऐसे ही बार 2 जलों को चढ़ाते वर्षाते हैं॥4॥ भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वतीजो जल सूर्य्य वा अग्नि के...

ऋग्वेदः 1.6.3

केतुं कृण्वन्नकेतवे पेशो मर्या अपेशसे। समुषद्भिरजायथाः॥3॥ पदपाठ — देवनागरीके॒तुम्। कृ॒ण्वन्। अ॒के॒तवे॑। पेशः॑। म॒र्याः॒। अ॒पे॒शसे॑। सम्। उ॒षत्ऽभिः॑। अ॒जा॒य॒थाः॒॥ 1.6.3 PADAPAATH — ROMAN ketum | kṛṇvan | aketave | peśaḥ | maryāḥ | apeśase | sam | uṣat-bhiḥ | ajāyathāḥ देवता —        इन्द्र:;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः   मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती(मर्य्याः) हे मनुष्य लोगो ! जो परमात्मा (अकेतवे) अज्ञानरूपी अन्धकार के विनाश के लिये (केतुम्) उत्तम ज्ञान और (अपेशसे) निर्धनता दारिद्र्य तथा कुरूपता विनाश के लिये (पेशः) सुवर्ण आदि धन और श्रेष्ठ रूप को (कृण्वन्) उत्पन्न करता है उसको तथा सब विद्याओं को (समुषद्भिः) ईश्वर की आज्ञा के अनुकूल वर्तनेवाले हैं उनसे मिल-2 कर जान के (अजायथाः) प्रसिद्ध हूजिये तथा हे जानने की इच्छा...

ऋग्वेदः 1.6.2

युञ्जन्त्यस्य काम्या हरी विपक्षसा रथे। शोणा धृष्णू नृवाहसा॥2॥ पदपाठ — देवनागरीयु॒ञ्जन्ति॑। अ॒स्य॒। काम्या॑। हरी॒ इति॑। विप॑क्षसा। रथे॑। शोणा॑। धृ॒ष्णू इति॑। नृ॒ऽवाह॑सा॥ 1.6.2 PADAPAATH — ROMANyuñjanti | asya | kāmyā | harī iti | vipakṣasā | rathe | śoṇā | dhṛṣṇū iti | nṛ-vāhasā देवता —        इन्द्र:;       छन्द —        विराड्गायत्री ;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः   मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वतीजो विद्वान् (अस्य) सूर्य्य और अग्नि के (काम्या) सबके इच्छा करने योग्य (शोणा) अपने-2 वर्ण के प्रकाश करने हारे वा गमन के हेतु (धृष्णू) दृढ़ (विपक्षसा) विविधकला और जल के चक्र घूमनेवाले पांखरूप यन्त्रों से युक्त (नृवाहसा) अच्छी प्रकार सवारियों में जुडे हुये मनुष्यादिकों को देश-देशान्तर में पहुँचाने वाले (हरी) आकर्षण और वेग तथा शुक्लपक्ष और कृष्णपक्ष रूप...