Category: ऋग्वेद:

ऋग्वेदः 1.9.7

सं गोमदिन्द्र वाजवदस्मे पृथु श्रवो बृहत्। विश्वायुर्धेह्यक्षितम्॥7॥ पदपाठ — देवनागरी सम्। गोऽम॑त्। इ॒न्द्र॒। वाज॑ऽवत्। अ॒स्मे इति॑। पृ॒थु। श्रवः॑। बृ॒हत्। वि॒श्वऽआ॑युः। धे॒हि॒। अक्षि॑तम्॥ 1.9.7 PADAPAATH — ROMAN sam | go–mat | indra | vāja-vat | asme iti | pṛthu | śravaḥ | bṛhat | viśva-āyuḥ | dhehi | akṣitam देवता —        इन्द्र:;       छन्द —        निचृद्गायत्री ;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः   मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती हे (इन्द्र) अनन्त विद्यायुक्त सबको धारण करने हारे ईश्वर! आप (अस्मे) हमारे लिये, (गोमत्) जो धन श्रेष्ठ वाणी और अच्छे-2 उत्तम पुरुषों को प्राप्त कराने, (वाजवत्) नानाप्रकार के अन्न आदि पदार्थों को प्राप्त कराने वा, (विश्वायुः) पूर्ण सौ वर्ष वा अधिक आयु को बढ़ाने, (पृथु) अति विस्तृत, (बृहत्) अनेक शुभगुणों से प्रसिद्ध...

ऋग्वेदः 1.9.6

अस्मान्त्सु तत्र चोदयेन्द्र राये रभस्वतः। तुविद्युम्न यशस्वतः॥6॥ पदपाठ — देवनागरी अ॒स्मान्। सु। तत्र॑। चो॒द॒य॒। इन्द्र॑। रा॒ये। रभ॑स्वतः। तुवि॑ऽद्युम्न। यश॑स्वतः॥ 1.9.6 PADAPAATH — ROMAN asmān | su | tatra | codaya | indra | rāye | rabhasvataḥ | tuvi-dyumna | yaśasvataḥ देवता —        इन्द्र:;       छन्द —        पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री;       स्वर —       षड्जः;       ऋषि —        मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः   मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती हे (तुविद्युम्न) अत्यन्त विद्यादिधनयुक्त, (इन्द्र) अन्तर्यामी ईश्वर! (रभस्वतः) जो आलस्य को छोड़ के कार्य्यों के आरम्भ करने, (यशस्वतः) सत्कीर्ति सहित, (अस्मान्) हमलोग पुरुषार्थी विद्या धर्म और सर्वोपकार से नित्य प्रयत्न करनेवाले मनुष्यों को, (तत्र) श्रेष्ठ पुरुषार्थ में, (राये) उत्तम-2 धन की प्राप्ति के लिये, (सुचोदय) अच्छी प्रकार युक्त कीजिये॥6॥ भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती सब मनुष्यों को उचित है कि इस...

ऋग्वेदः 1.9.5

सं चोदय चित्रमर्वाग्राध इन्द्र वरेण्यम्। असदित्ते विभु प्रभु॥5॥ पदपाठ — देवनागरी सम्। चो॒द॒य॒। चि॒त्रम्। अ॒र्वाक्। राधः॑। इ॒न्द्र॒। वरे॑ण्यम्। अस॑त्। इत्। ते॒। वि॒ऽभु। प्र॒ऽभु॥ 1.9.5 PADAPAATH — ROMAN sam | codaya | citram | arvāk | rādhaḥ | indra | vareṇyam | asat | it | te | vi-bhu | pra-bhu देवता —        इन्द्र:;       छन्द —        पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री;       स्वर —       षड्जः;       ऋषि —        मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः   मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती हे (इन्द्र) करुणामय सब सुखों के देनेवाले परमेश्वर! (ते) आपकी सृष्टि में जो-2, (वरेण्यं) अतिश्रेष्ठ, (विभु) उत्तम-2 पदार्थों से पूर्ण, (प्रभु) बडे-2 प्रभावों का हेतु, (चित्रं) जिससे श्रेष्ठ विद्या चक्रवर्त्ति राज्य से सिद्ध होनेवाले मणि सुवर्ण और हाथी आदि अच्छे-2 अद्भुत पदार्थ होते हैं ऐसा, (राधः) धन, (असत्) हो सो-2 कृपा...

ऋग्वेदः 1.9.4

असृग्रमिन्द्र ते गिरः प्रति त्वामुदहासत। अजोषा वृषभं पतिम्॥4॥ पदपाठ — देवनागरी असृ॑ग्रम्। इ॒न्द्र॒। ते॒। गिरः॑। प्रति॑। त्वाम्। उद्। अ॒हा॒स॒त॒। अजो॑षाः। वृ॒ष॒भम्। पति॑म्॥ 1.9.4 PADAPAATH — ROMAN asṛgram | indra | te | giraḥ | prati | tvām | ud | ahāsata | ajoṣāḥ | vṛṣabham | patim देवता —        इन्द्र:;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः   मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती (इन्द्र) हे परमेश्वर! जो (ते) आपकी, (गिरः) वेदवाणी हैं वे, (वृषभं) सबसे उत्तम सबकी इच्छा पूर्ण करनेवाले, (पतिं) सबके पालन करनेहारे, (त्वां) वेदों के वक्ता आपको, (उदहासन) उत्तमता के साथ जनाती हैं और, जिन वेदवाणियों का आप, (अजोषाः) सेवन करते हो। उन्हीं से मैं भी, (प्रति) उक्त गुणयुक्त आपको, (असृग्रं) अनेक प्रकार से वर्णन...

ऋग्वेदः 1.9.3

मत्स्वा सुशिप्र मन्दिभिः स्तोमेभिर्विश्वचर्षणे। सचैषु सवनेष्वा॥3॥ पदपाठ — देवनागरी मत्स्व॑। सु॒ऽशि॒प्र॒। म॒न्दिऽभिः। स्तोमे॑भिः। वि॒श्व॒ऽच॒र्ष॒णे॒। सचा॑। ए॒षु। सव॑नेषु। आ॥ 1.9.3 PADAPAATH — ROMAN matsva | su-śipra | mandi-bhiḥ | stomebhiḥ | viśva-carṣaṇe | sacā | eṣu | savaneṣu | ā देवता —        इन्द्र:;       छन्द —        निचृद्गायत्री ;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः   मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती हे (विश्वचर्षणे) सब संसार के देखने तथा, (सुशिप्र) श्रेष्ठ ज्ञानयुक्त परमेश्वर! आप (मन्दिभिः) जो विज्ञान वा आनन्द के करने वा करानेवाले, (स्तोमेभिः) वेदोक्त स्तुतिरूप गुणप्रकाश करनेहारे स्तोत्र हैं उनसे स्तुति को प्राप्त होकर, (एषु) इन प्रत्यक्ष, (सवनेषु) ऐश्वर्य्यदेने वाले पदार्थों में हमलोगों को, (सचा) युक्त होकर, (मत्स्व) अच्छे प्रकार आनन्दित कीजिये॥3॥ भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती जिसने संसार के प्रकाश करनेवाले...

ऋग्वेदः 1.9.2

एमेनं सृजता सुते मन्दिमिन्द्राय मन्दिने। चक्रिं विश्वानि चक्रये॥2॥ पदपाठ — देवनागरी आ। ई॒म्। ए॒न॒म्। सृ॒ज॒त॒। सु॒ते। म॒न्दिम्। इन्द्रा॑य। म॒न्दिने॑। चक्रि॑म्। विश्वा॑नि। चक्र॑ये॥ 1.9.2 PADAPAATH — ROMAN ā | īm | enam | sṛjata | sute | mandim | indrāya | mandine | cakrim | viśvāni | cakraye देवता —        इन्द्र:;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः   मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती हे विद्वानो! (सुते) उत्पन्न हुये इस संसार में, (विश्वानि) सब सुखों के उत्पन्न होने के अर्थ, (मन्दिने) ऐश्वर्य्य प्राप्ति की इच्छा करने तथा, (मन्दिं) आनन्द बढ़ानेवाले, (चक्रये) पुरुषार्थ करने के स्वभाव और, (इन्द्राय) परम ऐश्वर्य्य होनेवाले मनुष्य के लिये, (चक्रिं) शिल्पविद्या से सिद्ध किये हुये साधनों में, (एनं) इन, (ई) जल और अग्नि को,...