Category: ऋग्वेद:

ऋग्वेदः 1.11.4

पुरां भिन्दुर्युवा कविरमितौजा अजायत। इन्द्रो विश्वस्य कर्मणो धर्ता वज्री पुरुष्टुतः॥4॥ पदपाठ — देवनागरी पु॒राम्। भि॒न्दुः। युवा॑। क॒विः। अमि॑तऽओजाः। अ॒जा॒य॒त॒। इन्द्रः॑। विश्व॑स्य। कर्म॑णः। ध॒र्ता। व॒ज्री। पु॒रु॒ऽस्तु॒तः॥ 1.11.4 PADAPAATH — ROMAN purām | bhinduḥ | yuvā | kaviḥ | amita-ojāḥ | ajāyata | indraḥ | viśvasya | kamarṇaḥ | dhartā | vajrī | puru-stutaḥ देवता —       इन्द्र:;       छन्द —       अनुष्टुप् ;        स्वर —       गान्धारः ;   ऋषि —        जेता माधुच्छ्न्दसः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती जो यह (अमितौजाः) अनन्त बल वा जलवाला (वज्री) जिसके सब पदार्थों को प्राप्त करानेवाले शस्त्रसमूह व किरण हैं, और (पुराम्) मिले हुए शत्रुओं के नगरों वा पदार्थों का (भिन्दुः) अपने प्रताप व ताप से नाश वा अलग-2 करने (युवा) अपने गुणों से पदार्थों का मेल करने वा कराने तथा (कविः) राजनीति विद्या वा दृश्य...

ऋग्वेदः 1.11.3

पूर्वीरिन्द्रस्य रातयो न वि दस्यन्त्यूतयः। यदी वाजस्य गोमतः स्तोतृभ्यो मंहते मघम्॥3॥ पदपाठ — देवनागरी पू॒र्वीः। इन्द्र॑स्य। रा॒तयः॑। न। वि। द॒स्य॒न्ति॒। ऊ॒तयः॑। यदि॑। वाज॑स्य। गोऽम॑तः। स्तो॒तृऽभ्यः॑। मंह॑ते। म॒घम्॥ 1.11.3 PADAPAATH — ROMAN pūrvīḥ | indrasya | rātayaḥ | na | vi | dasyanti | ūtayaḥ | yadi | vājasya | go–mataḥ | stotṛ-bhyaḥ | maṃhate | magham देवता —       इन्द्र:;       छन्द —       निचृदनुष्टुप्;       स्वर —        गान्धारः ;       ऋषि —        जेता माधुच्छ्न्दसः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती (यदि) जो परमेश्वर वा सभा और सेना का स्वामी (स्तोतृभ्यः) जो जगदीश्वर वा सृष्टि के गुणों की स्तुति करने वाले धर्मात्मा विद्वान् मनुष्य हैं, उनके लिये (वाजस्य) जिसमें सब सुख प्राप्त होते हैं उस व्यवहार, तथा (गोमतः) जिसमें उत्तम पृथिवी, गौ आदि पशु और वाणी...

ऋग्वेदः 1.11.2

सख्ये त इन्द्र वाजिनो मा भेम शवसस्पते। त्वामभि प्र णोनुमो जेतारमपराजितम्॥2॥ पदपाठ — देवनागरी स॒ख्ये। ते॒। इ॒न्द्र॒। वा॒जिनः॑। मा। भे॒म॒। श॒व॒सः॒। प॒ते॒। त्वाम्। अ॒भि। प्र। नो॒नु॒मः॒। जेता॑रम्। अप॑राऽजितम्॥ 1.11.2 PADAPAATH — ROMAN sakhye | te | indra | vājinaḥ | mā | bhema | śavasaḥ | pate | tvām | abhi | pra | nonumaḥ | jetāram | aparājitam देवता —       इन्द्र:;       छन्द —       निचृदनुष्टुप्;       स्वर —        गान्धारः ;       ऋषि —        जेता माधुच्छ्न्दसः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती हे (शवसः) अनन्तबल वा सेनाबल के (पते) पालनकरने हारे ईश्वर वा अध्यक्ष !(अभिजेतारम्) प्रत्यक्ष शत्रुओं को जिताने वा जीतनेवाले (अपराजितम्) जिसका पराजय कोई भी न कर सके (त्वा) उस आपको (वाजिनः) उत्तम विद्या वा बलसे अपने शरीर के उत्तम बल वा समुदाय को जानते हुए हम लोग (प्रणोनुमः) अच्छी प्रकार आपकी बार-2...

ऋग्वेदः 1.11.1

इन्द्रं विश्वा अवीवृधन्त्समुद्रव्यचसं गिरः। रथीतमं रथीनां वाजानां सत्पतिं पतिम्॥1॥ पदपाठ — देवनागरी इन्द्र॑म्। विश्वाः॑। अ॒वी॒वृ॒ध॒न्। स॒मु॒द्रऽव्य॑चसम्। गिरः॑। र॒थिऽत॑मम्। र॒थीना॑म्। वाजा॑नाम्। सत्ऽप॑तिम्। पति॑म्॥ 1.11.1 PADAPAATH — ROMAN indram | viśvāḥ | avīvṛdhan | samudra-vyacasam | giraḥ | rathi-tamam | rathīnām | vājānām | sat-patim | patim देवता —       इन्द्र:;       छन्द —       निचृदनुष्टुप्;       स्वर —        गान्धारः ;       ऋषि —        जेता माधुच्छ्न्दसः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती हमारी ये (विश्वा) सब (गिरः) स्तुतियाँ (समुद्रव्यचसम्) जो आकाश में अपनी व्यापकता से परिपूर्ण ईश्वर, वा जो नौका आदि पूरण सामग्री से शत्रुओं को जीतनेवाले मनुष्य (रथीनाम्) जो बडे-2 युद्धों में विजय कराने वा करनेवाले (रथीतमम्) जिसमें पृथिवी आदि रथ अर्थात् सब क्रीड़ाओं के साधन, तथा जिसके युद्ध के साधन बडे-2 रथ हैं, (वाजानाम्) अच्छी प्रकार जिनमें जय और पराजय प्राप्त होते हैं, उनके...

ऋग्वेदः 1.10.12

परि त्वा गिर्वणो गिर इमा भवन्तु विश्वतः। वृद्धायुमनु वृद्धयो जुष्टा भवन्तु जुष्टयः॥12॥ पदपाठ — देवनागरी परि॑। त्वा॒। गि॒र्व॒णः॒। गिरः॑। इ॒माः। भ॒व॒न्तु॒। वि॒श्वतः॑। वृ॒द्धऽआ॑युम्। अनु॑। वृद्ध॑यः। जुष्टाः॑। भ॒व॒न्तु॒। जुष्ट॑यः॥ 1.10.12 PADAPAATH — ROMAN pari | tvā | girvaṇaḥ | giraḥ | imāḥ | bhavantu | viśvataḥ | vṛddha-āyum | anu | vṛddhayaḥ | juṣṭāḥ | bhavantu | juṣṭayaḥ देवता —        इन्द्र:;       छन्द —        अनुष्टुप् ;       स्वर —        गान्धारः ;       ऋषि —        मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः   मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती हे (गिर्वणः) वेदों तथा विद्वानों की वाणियों से स्तुति को प्राप्त होने योग्य परमेश्वर! (विश्वतः) इस संसार में (इमाः) जो वेदोक्त वा विद्वान् पुरुषों की कही हुई, (गिरः) स्तुति है वे, (परि) सब प्रकार से सबकी स्तुतियों से सेवन करने योग्य आप...

ऋग्वेदः 1.10.11

आ तू न इन्द्र कौशिक मन्दसानः सुतं पिब। नव्यमायुः प्र सू तिर कृधी सहस्रसामृषिम्॥11॥ पदपाठ — देवनागरी आ। तु। नः॒। इ॒न्द्र॒। कौ॒शि॒क॒। म॒न्द॒सा॒नः। सु॒तम्। पि॒ब॒। नव्य॑म्। आयुः॑। प्र। सु। ति॒र॒। कृ॒धि। स॒ह॒स्र॒ऽसाम्। ऋषि॑म्॥ 1.10.11 PADAPAATH — ROMAN ā | tu | naḥ | indra | kauśika | mandasānaḥ | sutam | piba | navyam | āyuḥ | pra | su | tira | kṛdhi | sahasra-sām | ṛṣim देवता —        इन्द्र:;       छन्द —        अनुष्टुप् ;       स्वर —        गान्धारः ;       ऋषि —        मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः   मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती हे (कौशिक) सब विद्याओं के उपदेशक और उनके अर्थों के निरन्तर प्रकाश करनेवाले, (इन्द्र) सर्वानन्दस्वरूप परमेश्वर! (मन्दसानः) आप उत्तम-2 स्तुतियों को प्राप्त हुए और सबको यथायोग्य जानते हुए, (नः) हमलोगों के,...