ऋग्वेद 1.26.3
आ हि ष्मा सूनवे पितापिर्यजत्यापये। सखा सख्ये वरेण्यः॥3॥ पदपाठ — देवनागरीआ। हि। स्म॒। सू॒नवे॑। पि॒ता। आ॒पिः। यज॑ति। आ॒पये॑। सखा॑। सख्ये॑। वरे॑ण्यः॥ 1.26.3 PADAPAATH — ROMANā | hi | sma | sūnave | pitā | āpiḥ | yajati | āpaye | sakhā | sakhye | vareṇyaḥ देवता — अग्निः ; छन्द — प्रतिष्ठागायत्री ; स्वर — षड्जः; ऋषि — शुनःशेप आजीगर्तिः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वतीहे मनुष्यो ! जैसे (पिता) पालन करनेवाला (सूनवे) पुत्र के (सखा) मित्र (सख्ये)मित्र के और (आपिः) सुख देनेवाला विद्वान् (आपये) उत्तम गुण व्याप्त होने विद्यार्थी के लिये (आयजति) अच्छे प्रकार यत्न करता है वैसे परस्पर प्रीति के साथ कार्यों को सिद्धकर (हि) निश्चय करके (स्म) वर्त्तमान में उपकार के लिये तुम संगत हो॥3॥ भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वतीइस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालंकार है। जैसे अपने लड़कों को सुख सम्पादक उनपर कृपा करनेवाला पिता स्वमित्रों...