ऋग्वेद 1.17.4
युवाकु हि शचीनां युवाकु सुमतीनाम्। भूयाम वाजदाव्नाम्॥4॥ पदपाठ — देवनागरी यु॒वाकु॑। हि। शची॑नाम्। यु॒वाकु॑। सु॒ऽम॒ती॒नाम्। भू॒याम॑। वा॒ज॒दाव्ना॑म्॥ 1.17.4 PADAPAATH — ROMAN yuvāku | hi | śacīnām | yuvāku | su-matīnām | bhūyāma | vājadāvnām देवता — इन्द्रावरुणौ ; छन्द — पादनिचृद्गायत्री ; स्वर — षड्जः; ऋषि — मेधातिथिः काण्वः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती हम लोग (हि) जिस कारण (शचीनाम्) उत्तम वाणी वा श्रेष्ठ कर्मों के (युवाकु) मेल तथा (वाजदाव्नाम्) विद्या वा अन्न के उपदेश करने वा देने और (सुमतीनाम्) श्रेष्ठ बुद्धिवाले विद्वानों के (युवाकु) पृथग्भाव करने को (भूयाम) समर्थ होवें, इस कारण से इनको साधें॥4॥ भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती मनुष्यों को सदा आलस्य छोड़कर अच्छे कामों का सेवन तथा विद्वानों का समागम नित्य करना चाहिये, जिससे अविद्या और दरिद्रपन जड़ मूल से नष्ट हों॥4॥...