Category: ऋग्वेद:

ऋग्वेद 1.18.2

यो रेवान्यो अमीवहा वसुवित्पुष्टिवर्धनः। स नः सिषक्तु यस्तुरः॥2॥ पदपाठ — देवनागरी यः। रे॒वान्। यः। अ॒मी॒व॒ऽहा। व॒सु॒ऽवित्। पु॒ष्टि॒ऽवर्ध॑नः। सः। नः॒। सि॒स॒क्तु॒। यः। तु॒रः॥ 1.18.2 PADAPAATH — ROMAN yaḥ | revān | yaḥ | amīva-hā | vasu-vit | puṣṭi-vardhanaḥ | saḥ | naḥ | sisaktu | yaḥ | turaḥ देवता —        ब्रह्मणस्पतिः;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मेधातिथिः काण्वः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती (यः) जो जगदीश्वर (रेवान्) विद्या आदि अनन्त धनवाला, (यः) जो (पुष्टिवर्धनः) शरीर और आत्मा की पुष्टि बढ़ाने तथा (वसुवित्) सब पदार्थों का जानने(अमीवहा) अविद्या आदि रोगों का नाश करने तथा (यः) जो (तुरः) शीघ्र सुख करनेवाला वेद का स्वामी जगदीश्वर है। (सः) सो (नः) हम लोगों को विद्या आदि धनों के साथ (सिषक्तु) अच्छी प्रकार संयुक्त करे॥2॥ भावार्थ — महर्षि...

ऋग्वेद 1.18.1

सोमानं स्वरणं कृणुहि ब्रह्मणस्पते। कक्षीवन्तं य औशिजः॥1॥ पदपाठ — देवनागरी सो॒मान॑म्। स्वर॑णम्। कृ॒णु॒हि। ब्र॒ह्म॒णः॒। प॒ते॒। क॒क्षीव॑न्तम्। यः। औ॒शि॒जः॥ 1.18.1 PADAPAATH — ROMAN somānam | svaraṇam | kṛṇuhi | brahmaṇaḥ | pate | kakṣīvantam | yaḥ | auśijaḥ देवता —        ब्रह्मणस्पतिः;       छन्द —        विराड्गायत्री ;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मेधातिथिः काण्वः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती (ब्रह्मणस्पते) वेद के स्वामी ईश्वर ! (यः) जो मैं (औशिजः) विद्या के प्रकाश में संसार को विदित होनेवाला और विद्वानों के पुत्र के समान हूँ, उस मुझको (सोमानम्) ऐश्वर्य्य सिद्ध करनेवाले यज्ञ का कर्त्ता (स्वरणम्) शब्द अर्थ के सम्बन्ध का उपदेशक और (कक्षीवन्तम्) कक्षा अर्थात् हाथ वा अंगुलियों की क्रियाओं में होनेवाली प्रशंसनीय शिल्पविद्या का कृपा से सम्पादन करनेवाला (कृणुहि) कीजिये॥1॥  भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती इस मन्त्र में...

ऋग्वेद 1.17.8

इन्द्रावरुण नू नु वां सिषासन्तीषु धीष्वा। अस्मभ्यं शर्म यच्छतम्॥8॥ पदपाठ — देवनागरी इन्द्रा॑वरुणा। नु। नु। वा॒म्। सिसा॑सन्तीषु। धी॒षु। आ। अ॒स्मभ्य॑म्। शर्म॑। य॒च्छ॒त॒म्॥ 1.17.8 PADAPAATH — ROMAN indrāvaruṇā | nu | nu | vām | siṣāsantīṣu | dhīṣu | ā | asmabhyam | śarma | yacchatam देवता —        इन्द्रावरुणौ ;       छन्द —        पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मेधातिथिः काण्वः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती जो (सिषासन्तीषु) उत्तम कर्म करने को चाहने और (धीषु) शुभ अशुभ वृत्तान्त धारण करानेवाली बुद्धियों में (नु) शीघ्र (नु) जिस कारण (अस्मभ्यम्) पुरुषार्थी विद्वानों के लिये (शर्म) दुःखविनाश करनेवाले उत्तम सुख का (आयच्छतम्) अच्छी प्रकार विस्तार करते हैं, इससे (वाम्) उन (इन्द्रावरुणा) इन्द्र और वरुण को कार्य्यों की सिद्धि के लिये मैं निरन्तर (हुवे) ग्रहण करता हूँ॥8॥ भावार्थ...

ऋग्वेद 1.17.7

इन्द्रावरुण वामहं हुवे चित्राय राधसे। अस्मान्त्सु जिग्युषस्कृतम्॥7॥ पदपाठ — देवनागरी इन्द्रा॑वरुणा। वा॒म्। अ॒हम्। हु॒वे। चि॒त्राय॑। राध॑से। अ॒स्मान्। सु। जि॒ग्युषः॑। कृ॒त॒म्॥ 1.17.7 PADAPAATH — ROMAN indrāvaruṇā | vām | aham | huve | citrāya | rādhase | asmān | su | jigyuṣaḥ | kṛtam देवता —        इन्द्रावरुणौ ;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मेधातिथिः काण्वः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती जो अच्छी प्रकार क्रिया कुशलता में प्रयोग किये हुए (अस्मान्) हम लोगों को (सुजिग्युषः) उत्तम विजययुक्त (कृतम्) करते हैं, (वाम्) उन इन्द्र और वरुण को (चित्राय) जो कि आश्चर्य्यरूप राज्य सेना नौकर पुत्र मित्र सोना रत्न हाथी घोड़े आदि पदार्थों से भरा हुआ (राधसे) जिससे उत्तम-2 सुखों को सिद्ध करते हैं, उस सुख के लिये (अहम्) मैं मनुष्य (हुवे) ग्रहण करता हूँ॥7॥...

ऋग्वेद 1.17.6

तयोरिदवसा वयं सनेम नि च धीमहि। स्यादुत प्ररेचनम्॥6॥ पदपाठ — देवनागरी तयोः॑। इत्। अव॑सा। व॒यम्। स॒नेम॑। नि। च॒। धी॒म॒हि॒। स्यात्। उ॒त। प्र॒ऽरेच॑नम्॥ 1.17.6 PADAPAATH — ROMAN tayoḥ | it | avasā | vayam | sanema | ni | ca | dhīmahi | syāt | uta | pra-recanam देवता —        इन्द्रावरुणौ ;       छन्द —        निचृद्गायत्री ;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मेधातिथिः काण्वः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती हम लोग जिन इंद्र और वरुण के (अवसा) गुणज्ञान व उनके उपकार करने से (इत्) ही जिन सुख और उत्तम धनों को (सनेम) सेवन करें (तयोः) उनके निमित्त से (च) और उनसे प्राप्त हुए असंख्यात धन को (निधीमहि) स्थापित करें, अर्थात् कोश आदि उत्तम स्थानों में भरें, और जिन धनों से हमारा (प्ररेचनम्) अच्छी प्रकार अत्यन्त खरच...

ऋग्वेद 1.17.5

इन्द्रः सहस्रदाव्नां वरुणः शंस्यानाम्। क्रतुर्भवत्युक्थ्यः॥5॥ पदपाठ — देवनागरी इन्द्रः॑। स॒ह॒स्र॒ऽदाव्ना॑म्। वरु॑णः। शंस्या॑नाम्। क्रतुः॑। भ॒व॒ति॒। उ॒क्थ्यः॑॥ 1.17.5 PADAPAATH — ROMAN indraḥ | sahasra-dāvnām | varuṇaḥ | śaṃsyānām | kratuḥ | bhavati | ukthyaḥ देवता —        इन्द्रावरुणौ ;       छन्द —        भुरिगार्चीगायत्री ;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मेधातिथिः काण्वः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती सब मनुष्यों को योग्य है कि जो (इन्द्रः) अग्नि बजुली और सूर्य्य (हि) जिस कारण (सहस्रदाव्नाम्) असंख्यात धन के देनेवालों के मध्य में (क्रतुः) उत्तमता से कार्य्यों को सिद्धि करनेवाले (भवति) होते हैं, तथा जो (वरुणः) जल पवन और चन्द्रमा भी (शंस्यानाम्) प्रशंसनीय पदार्थों में उत्तमता से कार्य्यों के साधक है। इससे जानना चाहिये कि उक्त बिजुली आदि पदार्थ (उक्थ्यः) साधुता के साथ विद्या की सिद्धि करने में उत्तम हैं॥5॥ भावार्थ — महर्षि...