Category: ऋग्वेद:

ऋग्वेद 1.18.8

आदृध्नोति हविष्कृतिं प्राञ्चं कृणोत्यध्वरम्। होत्रा देवेषु गच्छति॥8॥ पदपाठ — देवनागरी आत्। ऋ॒ध्नो॒ति॒। ह॒विःऽकृ॑तिम्। प्राञ्च॑म्। कृ॒णो॒ति॒। अ॒ध्व॒रम्। होत्रा॑। दे॒वेषु॑। ग॒च्छ॒ति॒॥ 1.18.8 PADAPAATH — ROMAN āt | ṛdhnoti | haviḥ-kṛtim | prāñcam | kṛṇoti | adhvaram | hotrā | deveṣu | gacchati देवता —        सदसस्पतिः ;       छन्द —        पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मेधातिथिः काण्वः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती जो उक्त सर्वज्ञ सभापति देव परमेश्वर (प्रांचम्) सबमें व्याप्त और जिसको प्राणी अच्छी प्रकार प्राप्त होते हैं। (हविष्कृतिम्) होम करने योग्य पदार्थों का जिसमें व्यवहार और (अध्वरम्) क्रियाजन्य अर्थात् क्रिया से उत्पन्न होनेवाले जगत् रूप यज्ञ में (होत्राणि) होम से सिद्ध करानेवाली क्रियाओं को (कृणोति) उत्पन्न करता तथा (आदृध्नोति) अच्छी प्रकार बढ़ाता है, फिर वही यज्ञ (देवेषु) दिव्य गुणों में (गच्छति) प्राप्त होता है॥8॥ भावार्थ...

ऋग्वेद 1.18.7

यस्मादृते न सिध्यति यज्ञो विपश्चितश्चन। स धीनां योगमिन्वति॥7॥ पदपाठ — देवनागरी यस्मा॑त्। ऋ॒ते। न। सिध्य॑ति। य॒ज्ञः। वि॒पः॒ऽचितः॑। च॒न। सः। धी॒नाम्। योग॑म्। इ॒न्व॒ति॒॥ 1.18.7 PADAPAATH — ROMAN yasmāt | ṛte | na | sidhyati | yajñaḥ | vipaḥ-citaḥ | cana | saḥ | dhīnām | yogam | invati देवता —        सदसस्पतिः ;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मेधातिथिः काण्वः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती हे मनुष्यो ! (यस्मात्) जिस (विपश्चितः) अनन्त विद्यावाले सर्वशक्तिमान् जगदीश्वर के (ॠते) विना (यज्ञः) जो कि दृष्टिगोचर संसार है, सो (चन) कभी (न सिध्यति) सिद्ध नहीं हो सकता, (सः) वह जगदीश्वर सब मनुष्यों की (धीनाम्) बुद्धि और कर्मों को (योगम्) संयोग को (इन्वति) व्याप्त होता वा जानता है॥7॥ भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती व्यापक ईश्वर सबमें रहनेवाले...

ऋग्वेद 1.18.6

सदसस्पतिमद्भुतं प्रियमिन्द्रस्य काम्यम्। सनिं मेधामयासिषम्॥6॥ पदपाठ — देवनागरी सद॑सः। पति॑म्। अद्भु॑तम्। प्रि॒यम्। इन्द्र॑स्य। काम्य॑म्। स॒निम्। मे॒धाम्। अ॒या॒सि॒ष॒म्॥ 1.18.6 PADAPAATH — ROMAN sadasaḥ | patim | adbhutam | priyam | indrasya | kāmyam | sanim | medhām | ayāsiṣam देवता —        सदसस्पतिः ;       छन्द —        पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री;      स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मेधातिथिः काण्वः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती मैं (इन्द्रस्य) जो सब प्राणियों को ऐश्वर्य्य देने (काम्यम्) उत्तम (सनिम्) पाप-पुण्यकर्मों के यथायोग्य फल देने और (प्रियम्) सब प्राणियों को प्रसन्न करानेवाले (अद्भुतम्) आश्चर्य्यमय गुण और स्वभाव स्वरूप (सदसस्पतिम्) और जिसमें विद्वान् धार्मिक न्याय करनेवाले स्थित हों, उस सभा के स्वामी परमेश्वर की उपासना और सब उत्तम गुणस्वभाव परोपकारी सभापति को प्राप्त होके (मेधाम्) उत्तम ज्ञान को धारण करनेवाली बुद्धि को (अयासिषम्) प्राप्त होऊँ॥6॥...

ऋग्वेद 1.18.5

त्वं तं ब्रह्मणस्पते सोम इन्द्रश्च मर्त्यम्। दक्षिणा पात्वंहसः॥5॥ पदपाठ — देवनागरी त्वम्। तम्। ब्र॒ह्म॒णः॒। प॒ते॒। सोमः॑। इन्द्रः॑। च॒। मर्त्य॑म्। दक्षि॑णा। पा॒तु॒। अंह॑सः॥ 1.18.5 PADAPAATH — ROMAN tvam | tam | brahmaṇaḥ | pate | somaḥ | indraḥ | ca | martyam | dakṣiṇā | pātu | aṃhasaḥ देवता —        ब्रह्मणस्पतिसोमेन्द्रदक्षिणाः ;       छन्द —        पादनिचृद्गायत्री ;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मेधातिथिः काण्वः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती हे (ब्रह्मणस्पते) ब्रह्माण्ड के पालन करनेवाले जगदीश्वर ! (त्वम्) आप (अंहसः) पापों से जिसको (पातु) रक्षा करते हैं, (तम्) उस धर्मात्मा यज्ञ करनेवाले (मर्त्यम्) विद्वान् मनुष्य की (सोमः) सोमलता आदि ओषधियों के रस (इन्द्रः) वायु और (दक्षिणा) जिससे वृद्धि को प्राप्त होते हैं, ये सब (पातु) रक्षा करते हैं॥5॥ भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती जो मनुष्य अधर्म से...

ऋग्वेद 1.18.4

स घा वीरो न रिष्यति यमिन्द्रो ब्रह्मणस्पतिः। सोमो हिनोति मर्त्यम्॥4॥ पदपाठ — देवनागरी सः। घ॒। वी॒रः। न। रि॒ष्य॒ति॒। यम्। इन्द्रः॑। ब्रह्म॑णः। पतिः॑। सोमः॑। हि॒नोति॑। मर्त्य॑म्॥ 1.18.4 PADAPAATH — ROMAN saḥ | gha | vīraḥ | na | riṣyati | yam | indraḥ | brahmaṇaḥ | patiḥ | somaḥ | hinoti | martyam देवता —        ब्रह्मणस्पतिरिन्द्रश्च सोमश्च;       छन्द —        निचृद्गायत्री ;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मेधातिथिः काण्वः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती उक्त इन्द्र (ब्रह्मणस्पतिः) ब्रह्माण्ड का पालन करनेवाला जगदीश्वर और (सोमः) सोमलता आदि ओषधियों का रससमूह (यम्) जिस (मर्त्यम्) मनुष्य आदि प्राणी को (हिनोति) उन्नतियुक्त करते हैं, (सः) वह (वीरः) शत्रुओं का जीतनेवाला वीर पुरुष (न घ रिष्यति) निश्चय है कि वह विनाश को प्राप्त कभी नहीं होता॥4॥ भावार्थ — महर्षि...

ऋग्वेद 1.18.3

मा नः शंसो अररुषो धूर्तिः प्रणङ्मर्त्यस्य। रक्षा णो ब्रह्मणस्पते॥3॥ पदपाठ — देवनागरी मा। नः॒। शंसः॑। अर॑रुषः। धू॒र्तिः। प्रण॑क्। मर्त्य॑स्य। रक्ष॑। नः॒। ब्र॒ह्म॒णः॒। प॒ते॒॥ 1.18.3 PADAPAATH — ROMAN mā | naḥ | śaṃsaḥ | araruṣaḥ | dhūrtiḥ | praṇak | martyasya | rakṣa | naḥ | brahmaṇaḥ | pate देवता —        ब्रह्मणस्पतिः;       छन्द —        पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मेधातिथिः काण्वः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती हे (ब्रह्मणस्पते) वेद वा ब्रह्माण्ड़ के स्वामी जगदीश्वर ! आप (अररुषः) जो दान आदि धर्मरहित मनुष्य है, उस (मर्त्यस्य) मनुष्य के सम्बन्ध से (नः) हमारी (रक्ष) रक्षा कीजिये, जिससे कि वह (नः) हम लोगों के बीच में कोई मनुष्य (धूर्त्तिः) विनाश करनेवाला न हो, और आपकी कृपा से जो (नः) हमारा (शंसः) प्रशंसनीय यज्ञ अर्थात् व्यवहार है वह (मापृणक्) कभी...