ऋग्वेद 1.24.3
अभि त्वा देव सवितरीशानं वार्याणाम्। सदावन्भागमीमहे॥3॥ पदपाठ — देवनागरी अ॒भि। त्वा॒। दे॒व॒। स॒वि॒तः॒। ईशा॑नम्। वार्या॑णाम्। सदा॑। अ॒व॒न्। भा॒गम्। ई॒म॒हे॒॥ 1.24.3 PADAPAATH — ROMAN abhi | tvā | deva | savitaḥ | īśānam | vāryāṇām | sadā | avan | bhāgam | īmahe देवता — सविता भगो वा ; छन्द — गायत्री; स्वर — षड्जः; ऋषि — शुनःशेप आजीगर्तिः स कृत्रिमो वैश्वामित्रो देवरातः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती हे (सवितः) पृथिवी आदि पदार्थों की उत्पत्ति वा (अवन्) रक्षा करने और (देव) सब आनन्द के देनेवाले जगदीश्वर ! हम लोग (वार्य्याणाम्) स्वीकार करने योग्य पृथिवी आदि पदार्थों की(ईशानम्) यथायोग्य व्यवस्था करने (भागम्) सबके सेवा करने योग्य (त्वा) आपको (सदा)सब काल में (अभि) (ईमहे) प्रत्यक्ष याचते हैं अर्थात् आप ही से सब पदार्थों को प्राप्त होते हैं॥3॥ भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती मनुष्यों को योग्य है कि जो सबका...