ऋग्वेद 1.24.15
उदुत्तमं वरुण पाशमस्मदवाधमं वि मध्यमं श्रथाय। अथा वयमादित्य व्रते तवानागसो अदितये स्याम॥15॥ पदपाठ — देवनागरी उत्। उ॒त्ऽत॒मम्। व॒रु॒ण॒। पाश॑म्। अ॒स्मत्। अव॑। अ॒ध॒मम्। वि। म॒ध्य॒यमम्। श्र॒थ॒य॒। अथ॑। व॒यम्। आ॒दि॒त्य॒। व्र॒ते। तव॑। अना॑गसः। अदि॑तये। स्या॒म॒॥ 1.24.15 PADAPAATH — ROMAN ut | ut-tamam | varuṇa | pāśam | asmat | ava | adhamam | vi | madhyayamam | śrathaya | atha | vayam | āditya | vrate | tava | anāgasaḥ | aditaye | syāma देवता — वरुणः; छन्द — विराट्त्रिष्टुप् ; स्वर — धैवतः; ऋषि — शुनःशेप आजीगर्तिः स कृत्रिमो वैश्वामित्रो देवरातः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती हे (वरुण) स्वीकार करने योग्य ईश्वर! आप (अस्मत्) हम लोगों से (अधमम्)निकृष्ट (मध्यमम्) मध्यम अर्थात् निकृष्ट से कुछ विशेष (उत्) और (उत्तमम्)अति दृढ़ अत्यन्त दुःख देनेवाले (पाशम्) बन्धन को (व्यवश्रथाय) अच्छेप्रकार नष्ट कीजिये (अथ) इसके अनन्तर हे (आदित्य) विनाशरहित जगदीश्वर !(तव) उपदेश करनेवाले सबके गुरु आपके (व्रते) सत्याचरण रूपी व्रत को करके(अनागसः) निरपराधी होके हम लोग (अदितये) अखण्ड अर्थात् विनाशरहितसुखके लिये (स्याम) नियत होवें॥15॥ भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वतीजो ईश्वर की आज्ञा को यथावत् नित्य पालन करते हैं वे ही पवित्र और सबदुःख बन्धनों से अलग होकर सुखों को निरन्तर प्राप्त होते हैं॥15॥ तेईसवें सूक्त के कहे हुये वायु आदि अर्थों के अनुकूल प्रजापति आदि अर्थों के कहने से इस चौबीसवें सूक्त की उक्त सूक्त के अर्थ के साथ संगति जाननीचाहिये॥ प्रथमाष्टक के प्रथमाध्याय में यह पन्द्रहवां वर्ग तथा प्रथम मण्डल के षष्ठानुवाक में चौबीसवां सूक्त समाप्त हुआ॥24॥ रामगोविन्द त्रिवेदी (सायण भाष्य के आधार पर) 15. वरुण! मेरी ऊपरी पाश...