ऋग्वेदः 1.9.1
इन्द्रेहि मत्स्यन्धसो विश्वेभिः सोमपर्वभिः। महाँ अभिष्टिरोजसा॥1॥ पदपाठ — देवनागरी इन्द्र॑। आ। इ॒हि॒। मत्सि॑। अन्ध॑सः। विश्वे॑भिः। सो॒म॒पर्व॑ऽभिः। म॒हान्। अ॒भि॒ष्टिः। ओज॑सा॥ 1.9.1 PADAPAATH — ROMAN indra | ā | ihi | matsi | andhasaḥ | viśvebhiḥ | somaparva-bhiḥ | mahān | abhiṣṭiḥ | ojasā देवता — इन्द्र:; छन्द — निचृद्गायत्री ; स्वर — षड्जः; ऋषि — मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती जिस प्रकार से, (अभिष्टिः) प्रकाशमान्, (महान्) पृथिवी आदि से बहुत बडा, (इन्द्र) यह सूर्य्यलोक है वह, (ओजसा) बलवा, (विश्वेभिः) सब, (सोमपर्वभिः) पदार्थों के अंगों के साथ, (अन्धसः) पृथिवी आदि अन्नादि पदार्थों के प्रकाश से, (एहि`) प्राप्त होता और, (मत्सि) प्राणियों को आनन्द देता है वैसे ही हे, (इन्द्र) सर्वव्यापक ईश्वर! आप (महान्) उत्तमों में उत्तम, (अभिष्टिः) सर्वज्ञ और...