ऋग्वेदः 1.10.4
एहि स्तोमाँ अभि स्वराभि गृणीह्या रुव। ब्रह्म च नो वसो सचेन्द्र यज्ञं च वर्धय॥4॥ पदपाठ — देवनागरी आ। इ॒हि॒। स्तोमा॑न्। अ॒भि। स्व॒र॒। अ॒भि। गृ॒णी॒हि॒। आ। रु॒व॒। ब्रह्म॑। च॒। नः॒। व॒सो॒ इति॑। सचा॑। इन्द्र॑। य॒ज्ञम्। च॒। व॒र्ध॒य॒॥ 1.10.4 PADAPAATH — ROMAN ā | ihi | stomān | abhi | svara | abhi | gṛṇīhi | ā | ruva | brahma | ca | naḥ | vaso iti | sacā | indra | yajñam | ca | vardhaya देवता — इन्द्र:; छन्द — भुरिगुष्णिक् ; स्वर — ऋषभः ; ऋषि — मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती हे (इन्द्र) स्तुति करने के योग्य परमेश्वर! जैसे कोई सब विद्याओं से परिपूर्ण विद्वान्, (स्तोमान्) आपकी स्तुतियों के अर्थों को, (अभिस्वर) यथावत् स्वीकार...