Author: Sanjeev Kumar

ऋग्वेदः 1.10.4

एहि स्तोमाँ अभि स्वराभि गृणीह्या रुव। ब्रह्म च नो वसो सचेन्द्र यज्ञं च वर्धय॥4॥ पदपाठ — देवनागरी आ। इ॒हि॒। स्तोमा॑न्। अ॒भि। स्व॒र॒। अ॒भि। गृ॒णी॒हि॒। आ। रु॒व॒। ब्रह्म॑। च॒। नः॒। व॒सो॒ इति॑। सचा॑। इन्द्र॑। य॒ज्ञम्। च॒। व॒र्ध॒य॒॥ 1.10.4 PADAPAATH — ROMAN ā | ihi | stomān | abhi | svara | abhi | gṛṇīhi | ā | ruva | brahma | ca | naḥ | vaso iti | sacā | indra | yajñam | ca | vardhaya देवता —        इन्द्र:;       छन्द —        भुरिगुष्णिक् ;       स्वर —        ऋषभः ;       ऋषि —        मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः   मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती हे (इन्द्र) स्तुति करने के योग्य परमेश्वर! जैसे कोई सब विद्याओं से परिपूर्ण विद्वान्, (स्तोमान्) आपकी स्तुतियों के अर्थों को, (अभिस्वर) यथावत् स्वीकार...

ऋग्वेदः 1.10.3

युक्ष्वा हि केशिना हरी वृषणा कक्ष्यप्रा। अथा न इन्द्र सोमपा गिरामुपश्रुतिं चर॥3॥ पदपाठ — देवनागरी यु॒क्ष्व। हि। के॒शिना॑। हरी॒ इति॑। वृष॑णा। क॒क्ष्य॒ऽप्रा। अथ॑। नः॒। इ॒न्द्र॒। सो॒म॒ऽपाः॒। गि॒राम्। उप॑ऽश्रुतिम्। च॒र॒॥ 1.10.3 PADAPAATH — ROMAN yukṣva | hi | keśinā | harī iti | vṛṣaṇā | kakṣya-prā | atha | naḥ | indra | soma-pāḥ | girām | upa-śrutim | cara देवता —        इन्द्र:;       छन्द —        विराड्नुष्टुप् ;       स्वर —        गान्धारः ;       ऋषि —        मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः   मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती हे, (सोमपाः) उत्तम पदार्थों के रक्षक, (इन्द्र) सबमें व्याप्त होनेवाले ईश्वर! जैसे आपका रचा हुआ सूर्य्यलोक जो अपने, (केशिना) प्रकाशयुक्त बल और आकर्षण अर्थात् पदार्थों के खींचने का सामर्थ्य जो कि, (वृषणा) वर्षा के हेतु और, (कक्ष्यप्रा) अपनी-2 कक्षाओं में...

ऋग्वेदः 1.10.2

यत्सानोः सानुमारुहद्भूर्यस्पष्ट कर्त्वम्। तदिन्द्रो अर्थं चेतति यूथेन वृष्णिरेजति॥2॥ पदपाठ — देवनागरी यत्। सानोः॑। सानु॑म्। आ। अरु॑हत्। भूरि॑। अस्प॑ष्ट। कर्त्व॑म्। तत्। इन्द्रः॑। अर्थ॑म्। चे॒त॒ति॒। यू॒थेन॑। वृ॒ष्णिः। ए॒ज॒ति॒॥ 1.10.2 PADAPAATH — ROMAN yat | sānoḥ | sānum | ā | aruhat | bhūri | aspaṣṭa | kartvam | tat | indraḥ | artham | cetati | yūthena | vṛṣṇiḥ | ejati देवता —        इन्द्र:;       छन्द —        विराड्नुष्टुप् ;       स्वर —        गान्धारः ;       ऋषि —        मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः   मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती जैसे, (यूथेन) वायुगण अथवा सुख के साधन हेतु पदार्थों के साथ, (वृष्णिः) वर्षा करनेवाला सूर्य्य अपने प्रकाश करके, (सानोः) पर्वत के एक शिखर से, (सानुं) दूसरे शिखर को, (भूरि) बहुधा, (आरुहत्) प्राप्त होता, (अस्पष्ट) स्पर्श करता हुआ, (एजति) क्रम से...

ऋग्वेदः 1.10.1

गायन्ति त्वा गायत्रिणोऽर्चन्त्यर्कमर्किणः। ब्रह्माणस्त्वा शतक्रत उद्वंशमिव येमिरे॥1॥ पदपाठ — देवनागरी गाय॑न्ति। त्वा॒। गा॒य॒त्रिणः॑। अर्च॑न्ति। अ॒र्कम्। अ॒र्किणः॑। ब्र॒ह्माणः॑। त्वा॒। श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शतऽक्रतो। उत्। वं॒शम्ऽइ॑व। ये॒मि॒रे॒॥ 1.10.1 PADAPAATH — ROMAN gāyanti | tvā | gāyatriṇaḥ | arcanti | arkam | arkiṇaḥ | brahmāṇaḥ | tvā | śatakrato itiśata-krato | ut | vaṃśam-iva | yemire देवता —        इन्द्र:;       छन्द —        विराड्नुष्टुप् ;       स्वर —        गान्धारः ;       ऋषि —        मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः   मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती हे, (शतक्रतो) असंख्यात कर्म और उत्तम ज्ञानयुक्त परमेश्वर! (ब्रह्माणः) जैसे वेदों को पढ़कर उत्तम-2 क्रिया करने वाले मनुष्य श्रेष्ठ उपदेश, गुण और अच्छी-2 शिक्षाओं से, (वंशं) अपने वंश को, (उद्येमिरे) प्रशस्त गुणयुक्त करके उद्यमवान् करते हैं वैसे ही, (गायत्रिणः) जिन्होंने गायत्र अर्थात् प्रशंसा करने योग्य छन्दराग आदि...

ऋग्वेदः 1.9.10

सुतेसुते न्योकसे बृहद्बृहत एदरिः। इन्द्राय शूषमर्चति॥10॥ पदपाठ — देवनागरी सु॒तेऽसु॑ते। निऽओ॑कसे। बृ॒हत्। बृ॒ह॒ते। आ। इत्। अ॒रिः। इन्द्रा॑य। शू॒षम्। अ॒र्च॒ति॒॥ 1.9.10 PADAPAATH — ROMAN sute–sute | ni-okase | bṛhat | bṛhate | ā | it | ariḥ | indrāya | śūṣam | arcati देवता —        इन्द्र:;       छन्द —        निचृद्गायत्री ;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः   मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती जो, (अरिः) सब श्रेष्ठ गुण और उत्तम सुखों को प्राप्त होनेवाला विद्वान्मनुष्य, (सुतेसुते) उत्पन्न उत्पन्न हुये सब पदार्थों में, (वृहते) सम्पूर्ण श्रेष्ठ गुणों में महान् सबमें व्याप्त, (न्योकसे) निश्चित जिसके निवास स्थान हैं, (इत्) उसी, (इन्द्राय) परमेश्वर के लिये अपने, (बृहत्) सब प्रकार से बड़े हुये, (शूषं) बल और सुख को, (आ) अच्छी प्रकार, (अर्चति) समर्पण करता है...

ऋग्वेदः 1.9.8

अस्मे धेहि श्रवो बृहद्द्युम्नं सहस्रसातमम्। इन्द्र ता रथिनीरिषः॥8॥ पदपाठ — देवनागरी अ॒स्मे इति॑। धे॒हि॒। श्रवः॑। बृ॒हत्। द्यु॒म्नम्। स॒ह॒स्र॒ऽसात॑मम्। इन्द्र॑। ताः। र॒थिनिः॑। इषः॑॥ 1.9.8 PADAPAATH — ROMAN iti | dhehi | śravaḥ | bṛhat | dyumnam | sahasra-sātamam | indra | tāḥ | rathiniḥ | iṣaḥ देवता —        इन्द्र:;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः   मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती हे (इन्द्र) अत्यन्त बलयुक्त ईश्वर! आप (अस्मे) हमारे लिये, (सहस्रसातमं) असंख्यात सुखों का मूल, (बृहत्) नित्य वृद्धि को प्राप्त होने योग्य, (द्युम्नं) प्रकाशमय ज्ञान तथा, (श्रवः) पूर्वोक्त धन और, (रथिनीरिषः) अनेक रथ आदि साधन सहित सेनाओं को, (धेहि) अच्छे प्रकार दीजिये॥8॥ भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती हे जगदीश्वर ! आप कृपा करके जो अत्यन्त पुरुषार्थ के साथ जिस...