Author: Sanjeev Kumar

ऋग्वेदः 1.13.2

मधुमन्तं तनूनपाद्यज्ञं देवेषु नः कवे। अद्या कृणुहि वीतये॥2॥ पदपाठ — देवनागरी मधु॑ऽमन्तम्। त॒नू॒ऽन॒पा॒त्। य॒ज्ञम्। दे॒वेषु॑। नः॒। क॒वे॒। अ॒द्य। कृ॒णु॒हि॒। वी॒तये॑॥ 1.13.2 PADAPAATH — ROMAN madhu-mantam | tanū-napāt | yajñam | deveṣu | naḥ | kave | adya | kṛṇuhi | vītaye देवता —        तनूनपात् ;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मेधातिथिः काण्वः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती जो (तनूनपात्) शरीर तथा ओषधि आदि पदार्थों के छोटे-2 अंशों का भी रक्षा करने और (कवे) सब पदार्थों का दिखलानेवाला अग्नि है, वह (देवेषु) विद्वानों तथा दिव्यपदार्थों में (वीतये) सुख प्राप्त होने के लिये (अद्य) आज (नः) हमारे (मधुमन्तम्) उत्तम-2 रसयुक्त (यज्ञम्) यज्ञ को (कृणुहि) निश्चित करता है॥2॥ भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती जब अग्नि में सुगन्धि आदि पदार्थों का हवन होता है, तभी...

ऋग्वेदः 1.13.1

सुसमिद्धो न आ वह देवाँ अग्ने हविष्मते। होतः पावक यक्षि च॥1॥ पदपाठ — देवनागरी सुऽस॑मिद्धः। नः॒। आ। व॒ह॒। दे॒वान्। अ॒ग्ने॒। ह॒विष्म॑ते। होत॒रिति॑। पा॒व॒क॒। यक्षि॑। च॒॥ 1.13.1 PADAPAATH — ROMAN su-samiddhaḥ | naḥ | ā | vaha | devān | agne | haviṣmate | hotariti | pāvaka | yakṣi | ca देवता —        इध्मः समिध्दो वाऽग्निः ;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मेधातिथिः काण्वः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती हे (होतः) पदार्थों को देने और (पावक) शुद्ध करनेवाले (अग्ने) विश्व के ईश्वर ! जिस हेतु से (सुसमिद्धः) अच्छी प्रकार प्रकाशवान् आप कृपा करके (नः) हमारे (च) तथा (हविष्मते) जिसके बहुत हवि अर्थात् पदार्थ विद्यमान हैं उस विद्वान् के लिये (देवान्) दिव्यपदार्थों को (आवह) अच्छी प्रकार प्राप्त करते हैं, इससे मैं आपका निरन्तर (यक्षि)...

ऋग्वेदः 1.12.12

अग्ने शुक्रेण शोचिषा विश्वाभिर्देवहूतिभिः। इमं स्तोमं जुषस्व नः॥12॥ पदपाठ — देवनागरी अग्ने॑। शु॒क्रेण॑। शो॒चिषा॑। विश्वा॑भिः। दे॒वहू॑तिऽभिः। इ॒मम्। स्तोम॑म्। जु॒ष॒स्व॒। नः॒॥ 1.12.12 PADAPAATH — ROMAN agne | śukreṇa | śociṣā | viśvābhiḥ | devahūti-bhiḥ | imam | stomam | juṣasva | naḥ देवता —        अग्निः ;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मेधातिथिः काण्वः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती हे (अग्ने) प्रकाशमय ईश्वर ! आप कृपा करके (शुक्रेण) अनन्तवीर्य्य के साथ (शोचिषा) शुद्धि करनेवाले प्रकाश तथा (विश्वाभिः) विद्वान् और वेदों की वाणियों से सब प्राणियों के लिये (नः) हमारे (इमम्) इस प्रत्यक्ष (स्तोमम्) स्तुतिसमूह को (जुषस्व) प्रीति के साथ सेवन कीजिये।1।  यह (अग्ने) भौतिक अग्नि (विश्वाभिः) सब (देवहूतिभिः) विद्वान् तथा वेदों की वाणियों से अच्छी प्रकार सिद्ध किया हुआ...

ऋग्वेदः 1.12.11

स नः स्तवान आ भर गायत्रेण नवीयसा। रयिं वीरवतीमिषम्॥11॥ पदपाठ — देवनागरी सः। नः॒। स्तवा॑नः। आ। भ॒र॒। गाय॒त्रेण॑। नवी॑यसा। र॒यिम्। वी॒रऽव॑तीम्। इष॑म्॥ 1.12.11 PADAPAATH — ROMAN saḥ | naḥ | stavānaḥ | ā | bhara | gāyatreṇa | navīyasā | rayim | vīra-vatīm | iṣam देवता —        अग्निः ;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;      ऋषि —        मेधातिथिः काण्वः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती हे भगवन् (सः) जगदीश्वर ! आप (नवीयसा) अच्छी प्रकार मन्त्रों के नवीन पाठ गानयुक्त (गायत्रेण) गायत्री छन्दवाले प्रगाथों से (स्तवानः) स्तुति को प्राप्त किये हुये (नः) हमारे लिये (रयिम्) विद्या और चक्रवर्त्ति राज्य से उत्पन्न होनेवाले धन तथा जिसमें (वीरवतीम्) अच्छे-2 वीर तथा विद्वान् हों, उस (इषम्) सज्जनों के इच्छा करने योग्य उत्तम क्रिया का (आभर) अच्छी प्रकार धारण कीजिये।1। (सः) उक्त...

ऋग्वेदः 1.12.10

स नः पावक दीदिवोऽग्ने देवाँ इहा वह। उप यज्ञं हविश्च नः॥10॥ पदपाठ — देवनागरी सः। नः॒। पा॒व॒क॒। दी॒दि॒ऽवः॒। अग्ने॑। दे॒वान्। इ॒ह। आ। व॒ह॒। उप॑। य॒ज्ञम्। ह॒विः। च॒। नः॒॥ 1.12.10 PADAPAATH — ROMAN saḥ | naḥ | pāvaka | dīdi-vaḥ | agne | devān | iha | ā | vaha | upa | yajñam | haviḥ | ca | naḥ देवता —        अग्निः ;       छन्द —        पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मेधातिथिः काण्वः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती हे (दीदिवः) अपने सामर्थ्य से प्रकाशवान् (पावक) पवित्र करने तथा (अग्ने) सब पदार्थों को प्राप्त करानेवाले (सः) जगदीश्वर ! आप (नः) हम लोगों के सुख के लिये (इह) इस संसार में (देवान्) विद्वानों को (आवह) प्राप्त कीजिये, तथा (नः) हमारे (यज्ञम्) उक्त तीन प्रकार के यज्ञ और...

ऋग्वेदः 1.12.9

यो अग्निं देववीतये हविष्माँ आविवासति। तस्मै पावक मृळय॥9॥ पदपाठ — देवनागरी यः। अ॒ग्निम्। दे॒वऽवी॑तये। ह॒विष्मा॑न्। आ॒ऽविवा॑सति। तस्मै॑। पा॒व॒क॒। मृ॒ळ॒य॒॥ 1.12.9 PADAPAATH — ROMAN yaḥ | agnim | deva-vītaye | haviṣmān | āvivāsati | tasmai | pāvaka | mṛḷaya देवता —        अग्निः ;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मेधातिथिः काण्वः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती हे (पावक) पवित्र करनेवाले ईश्वर ! (यः) जो (हविष्मान्) उत्तम-2 पदार्थ वा कर्म करनेवाला मनुष्य (देववीतये) उत्तम-2 गुण और भोगों की परिपूर्णता के लिये (अग्निम्) सब सुखों को देनेवाले आपको (आविवासति) अच्छी प्रकार सेवन करता है, (तस्मै) उस सेवन करनेवाले मनुष्य को आप (मृडय) सब प्रकार सुखी कीजिये।1।यह जो (हविष्मान्) उत्तम पदार्थवाला मनुष्य (देववीतये) उत्तम भोगों की प्राप्ति के लिये (अग्निम्) सुख करानेवाले भौतिक अग्नि का (आविवासति)...