Author: Sanjeev Kumar

ऋग्वेदः 1.15.8

द्रविणोदा ददातु नो वसूनि यानि शृण्विरे। देवेषु ता वनामहे॥8॥ पदपाठ — देवनागरी द्र॒वि॒णः॒ऽदाः। द॒दा॒तु॒। नः॒। वसू॑नि। यानि॑। शृ॒ण्वि॒रे। दे॒वेषु॑। ता। व॒ना॒म॒हे॒॥ 1.15.8 PADAPAATH — ROMAN draviṇaḥ-dāḥ | dadātu | naḥ | vasūni | yāni | śṛṇvire | deveṣu | tā | vanāmahe देवता —        द्रविणोदाः ;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मेधातिथिः काण्वः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती हम लोगों के (यानि) जिन (देवेषु) विद्वान् वा दिव्य सूर्य्य आदि अर्थात् शिल्पविद्या से सिद्ध विमान आदि पदार्थों में (वसूनि) जो विद्या चक्रवर्त्ति राज्य और प्राप्त होने योग्य उत्तम धन (शृण्विरे) सुनने में आते तथा हम लोग (वनामहे) जिनका सेवन करते हैं, (ता) उनको (द्रविणोदाः) जगदीश्वर (नः) हमलोगों के लिये (ददातु) देवे तथा अच्छी प्रकार सिद्ध किया हुआ भौतिक अग्नि भी देता है॥8॥ भावार्थ — महर्षि दयानन्द...

ऋग्वेदः 1.15.7

द्रविणोदा द्रविणसो ग्रावहस्तासो अध्वरे। यज्ञेषु देवमीळते॥7॥ पदपाठ — देवनागरी द्र॒वि॒णः॒ऽदाः। द्रवि॑णसः। ग्राव॑ऽहस्तासः। अ॒ध्व॒रे। य॒ज्ञेषु॑। दे॒वम्। ई॒ळ॒ते॒॥ 1.15.7 PADAPAATH — ROMAN draviṇaḥ-dāḥ | draviṇasaḥ | grāva-hastāsaḥ | adhvare | yajñeṣu | devam | īḷate देवता —        द्रविणोदाः ;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मेधातिथिः काण्वः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती (द्रविणोदाः) जो विद्या बल राज्य और धनादि पदार्थों का देने और दिव्य गुणवाला परमेश्वर तथा उत्तम धन आदि पदार्थ देने और दिव्यगुणवाला भौतिक अग्नि है। जिस (देवम्) देव को (ग्रावहस्तासः) स्तुति समूह ग्रहण वा हनन और पत्थर आदि यज्ञ सिद्ध करनेहारे शिल्पविद्या के पदार्थ हाथ में हैं, जिनके ऐसे जो (द्रविणसः) यज्ञ करने वा द्रव्यसम्पादक विद्वान् हैं, वे (अध्वरे) अनुष्ठान करने योग्य क्रियासाध्य हिंसा के अयोग्य और (यज्ञेषु) अग्निहोत्र आदि अश्वमेध पर्य्यन्त वा...

ऋग्वेदः 1.15.6

युवं दक्षं धृतव्रत मित्रावरुण दूळभम्। ऋतुना यज्ञमाशाथे॥6॥ पदपाठ — देवनागरी यु॒वम्। दक्ष॑म्। धृ॒त॒ऽव्र॒ता॒। मित्रा॑वरुणा। दुः॒ऽदभ॑म्। ऋ॒तुना॑। य॒ज्ञम्। आ॒शा॒थे॒ इति॑॥ 1.15.6 PADAPAATH — ROMAN yuvam | dakṣam | dhṛta-vratā | mitrāvaruṇā | duḥ-dabham | ṛtunā | yajñam | āśātheiti देवता —        मित्रावरुणौ ;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मेधातिथिः काण्वः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती मनुष्यों को योग्य है कि जगत् के रचनेवाले परमेश्वर ने जो-2 जिस-2 वायु आदि पदार्थों में नियम स्थापन किये हैं उन-2 को जानकर कार्य्यों को सिद्ध करना चाहिये। और उनसे सिद्ध किये हुये धन से सब ॠतुओं में सब प्राणियों के अनुकूल हित सम्पादन करना चाहिये, तथा युक्ति के साथ सेवन किये हुये पदार्थ मित्र के समान होते और इससे विपरीत शत्रु के समान होते...

ऋग्वेदः 1.15.5

ब्राह्मणादिन्द्र राधसः पिबा सोममृतूँरनु। तवेद्धि सख्यमस्तृतम्॥5॥ पदपाठ — देवनागरी ब्राह्म॑णात्। इ॒न्द्र॒। राध॑सः। पिब॑। सोम॑म्। ऋ॒तून्। अनु॑। तव॑। इत्। हि। स॒ख्यम्। अस्तृ॑तम्॥ 1.15.5 PADAPAATH — ROMAN brāhmaṇāt | indra | rādhasaḥ | piba | somam | ṛtūn | anu | tava | it | hi | sakhyam | astṛtam देवता —        इन्द्र:;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मेधातिथिः काण्वः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती जो (इन्द्र) ऐश्वर्य्य वा जीवन का हेतु वायु (ब्राह्मणात्) बड़े का अवयव (राधसः) पृथिवी आदि लोकों के धन से (अनुॠतून्) अपने-2 प्रभाव से पदार्थों के रस को हरनेवाले वसन्त आदि ॠतुओं के अनुक्रम से (सोमम्) सब पदार्थों के रस को (पिब) ग्रहण करता है, इससे (हि) निश्चय से (तव) उस वायु का पदार्थों के साथ (अस्तृतम्) अविनाशी (सख्यम्) मित्रपन...

ऋग्वेदः 1.15.4

अग्ने देवाँ इहा वह सादया योनिषु त्रिषु। परि भूष पिब ऋतुना॥4॥ पदपाठ — देवनागरी अग्ने॑। दे॒वान्। इ॒ह। आ। व॒ह॒। सा॒दय॑। योनि॑षु। त्रि॒षु। परि॑। भू॒ष॒। पिब॑। ऋ॒तुना॑॥ 1.15.4 PADAPAATH — ROMAN agne | devān | iha | ā | vaha | sādaya | yoniṣu | triṣu | pari | bhūṣa | piba | ṛtunā देवता —        अग्निः ;       छन्द —        भुरिग्गायत्री ;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मेधातिथिः काण्वः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती यह (अग्ने) प्रसिद्ध वा अप्रसिद्ध भौतिक अग्नि (इह) इस संसार में (ॠतुना) ॠतुओं के साथ (त्रिषु) तीन प्रकार के (योनिषु) जन्म नाम और स्थानरूपी लोकों में (देवान्) श्रेष्ठगुणों से युक्त पदार्थों को (आ वह) अच्छी प्रकार प्राप्त करता (सादय) हननकर्त्ता (परिभूष) सब ओर से भूषित करता और सब पदार्थों के रसों...

ऋग्वेदः 1.15.3

अभि यज्ञं गृणीहि नो ग्नावो नेष्टः पिब ऋतुना। त्वं हि रत्नधा असि॥3॥ पदपाठ — देवनागरी अ॒भि। य॒ज्ञम्। गृ॒णी॒हि॒। नः॒। ग्रावः॑। नेष्ट॒रिति॑। पिब॑। ऋ॒तुना॑। त्वम्। हि। र॒त्न॒ऽधा। असि॑॥ 1.15.3 PADAPAATH — ROMAN abhi | yajñam | gṛṇīhi | naḥ | grāvaḥ | neṣṭariti | piba | ṛtunā | tvam | hi | ratna-dhā | asi देवता —        त्वष्टा ;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मेधातिथिः काण्वः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती यह (नेष्टः) शुद्धि और पुष्टि आदि हेतुओं से सब पदार्थों का प्रकाश करनेवाली बिजुली (ॠतुना) ॠतुओं के साथ रसों को (पिब) पीती है, तथा (हि) जिस कारण (रत्नधाः) उत्तम पदार्थों की धारण करनेवाली (असि) है। (त्वम्) सो यह (ग्नावः) सब पदार्थों की प्राप्ति करानेहारी (नः) हमारे इस (यज्ञम्) यज्ञ को...