ऋग्वेदः 1.15.8
द्रविणोदा ददातु नो वसूनि यानि शृण्विरे। देवेषु ता वनामहे॥8॥ पदपाठ — देवनागरी द्र॒वि॒णः॒ऽदाः। द॒दा॒तु॒। नः॒। वसू॑नि। यानि॑। शृ॒ण्वि॒रे। दे॒वेषु॑। ता। व॒ना॒म॒हे॒॥ 1.15.8 PADAPAATH — ROMAN draviṇaḥ-dāḥ | dadātu | naḥ | vasūni | yāni | śṛṇvire | deveṣu | tā | vanāmahe देवता — द्रविणोदाः ; छन्द — गायत्री; स्वर — षड्जः; ऋषि — मेधातिथिः काण्वः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती हम लोगों के (यानि) जिन (देवेषु) विद्वान् वा दिव्य सूर्य्य आदि अर्थात् शिल्पविद्या से सिद्ध विमान आदि पदार्थों में (वसूनि) जो विद्या चक्रवर्त्ति राज्य और प्राप्त होने योग्य उत्तम धन (शृण्विरे) सुनने में आते तथा हम लोग (वनामहे) जिनका सेवन करते हैं, (ता) उनको (द्रविणोदाः) जगदीश्वर (नः) हमलोगों के लिये (ददातु) देवे तथा अच्छी प्रकार सिद्ध किया हुआ भौतिक अग्नि भी देता है॥8॥ भावार्थ — महर्षि दयानन्द...