Author: Sanjeev Kumar

ऋग्वेद 1.16.8

विश्वमित्सवनं सुतमिन्द्रो मदाय गच्छति।वृत्रहा सोमपीतये॥8॥ पदपाठ — देवनागरी विश्व॑म्। इत्। सव॑नम्। सु॒तम्। इन्द्रः॑। मदा॑य। ग॒च्छ॒ति॒। वृ॒त्र॒ऽहा। सोम॑ऽपीतये॥ 1.16.8 PADAPAATH — ROMAN viśvam | it | savanam | sutam | indraḥ | madāya | gacchati | vṛtra-hā | soma-pītaye देवता —        इन्द्र:;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मेधातिथिः काण्वः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती यह (वृत्रहा) मेघ का हनन करनेवाला (इन्द्रः) वायु (सोमपीतये) उत्तम-उत्तम पदार्थों का पिलानेवाला तथा (मदाय) आनन्द के लिये (इत्) निश्चय करके (सवनम्) जिससे सब सुखों को सिद्ध करते हैं, जिससे (सुतम्) उत्पन्न हुए (विश्वम्) जगत् को (गच्छति) प्राप्त होते हैं॥8॥ भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती वायु आकाश में अपने गमनागमन से सब संसार को प्राप्त होकर मेघ की वृष्टि करने वा सब से वेगवाला होकर सब प्राणियों को...

ऋग्वेद 1.16.7

अयं ते स्तोमो अग्रियो हृदिस्पृगस्तु शंतमः। अथा सोमं सुतं पिब॥7॥ पदपाठ — देवनागरी अ॒यम्। ते॒। स्तोमः॑। अ॒ग्रि॒यः। हृ॒दि॒ऽस्पृक्। अ॒स्तु॒। शम्ऽत॑मः। अथ॑। सोम॑म्। सु॒तम्। पि॒ब॒॥ 1.16.7 PADAPAATH — ROMAN ayam | te | stomaḥ | agriyāḥ | hṛdii-spṛk | astu | śam-tamaḥ | atha | somam | sutam | piba देवता —        इन्द्र:;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मेधातिथिः काण्वः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती मनुष्यों को जैसे यह वायु प्रथम (सुतम्) उत्पन्न किये हुए (सोमम्) सब पदार्थों के रस को (पिब) पीता है, (अथ) उसके अनन्तर (ते) जो उस वायु का (अग्रियः) अत्त्युत्तम (हृदिस्पृक्) अन्तःकरण में सुख का स्पर्श करानेवाला (स्तोमः) उसके गुणों से प्रकाशित होकर क्रियाओं का समूह विदित (अस्तु) हो, वैसे काम करने चाहियें॥7॥ भावार्थ — महर्षि दयानन्द...

ऋग्वेद 1.16.6

इमे सोमास इन्दवः सुतासो अधि बर्हिषि। ताँ इन्द्र सहसे पिब॥6॥ पदपाठ — देवनागरी इ॒मे। सोमा॑सः। इन्द॑वः। सु॒तासः॑। अधि॑। ब॒र्हिषि॑। तान्। इ॒न्द्र॒। सह॑से। पि॒ब॒॥ 1.16.6 PADAPAATH — ROMAN ime | somāsaḥ | indavaḥ | sutāsaḥ | adhi | barhiṣi | tān | indra | sahase | piba देवता —        इन्द्र:;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मेधातिथिः काण्वः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती जो (अधि) (बर्हिषि) जिसमें सब पदार्थ वृद्धि को प्राप्त होते हैं, उस अन्तरिक्ष में (इमे) ये (सोमासः) जिनसे सुख उत्पन्न होते हैं, (इन्दवः) और सब पदार्थों को गीला करनेवाले रस हैं, वे (सहसे) बल आदि गुणों के लिये ईश्वर ने (सुतासः) उत्पन्न किये हैं, (तान्) उन्हीं को (इन्द्र) वायु क्षण-क्षण में (पिब) पिया करता है॥6॥ भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती...

ऋग्वेद 1.16.5

सेमं नः स्तोममा गह्युपेदं सवनं सुतम्। गौरो न तृषितः पिब॥5॥ पदपाठ — देवनागरी सः। इ॒मम्। नः॒। स्तोम॑म्। आ। ग॒हि॒। उप॑। इ॒दम्। सव॑नम्। सु॒तम्। गौ॒रः। न। तृ॒षि॒तः। पि॒ब॒॥ 1.16.5 PADAPAATH — ROMAN saḥ | imam | naḥ | stomam | ā | gahi | upa | idam | savanam | sutam | gauraḥ | na | tṛṣitaḥ | piba देवता —        इन्द्र:;       छन्द —        निचृद्गायत्री ;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मेधातिथिः काण्वः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती जो उक्त सूर्य्य (नः) हमारे (इमम्) अनुष्ठान किये हुए (स्तोमम्) प्रशंसनीय यज्ञ वा (सवनम्) ऐश्वर्य्य प्राप्त करानेवाले क्रियाकाण्ड को (न) जैसे (तृषितः) प्यासा (गौरः) गौरगुण विशिष्ट हरिन (उपागहि) समीप प्राप्त होता है, वैसे (सः) वह (इदम्) इस (सुतम्) उत्पन्न किये हुए ओषधि आदि रस को (पिब) पीता...

ऋग्वेद 1.16.4

उप नः सुतमा गहि हरिभिरिन्द्र केशिभिः।सुते हि त्वा हवामहे॥4॥ पदपाठ — देवनागरी उप॑। नः॒। सु॒तम्। आ। ग॒हि॒। हरि॑ऽभिः। इ॒न्द्र॒। के॒शिऽभिः॑। सु॒ते। हि। त्वा॒। हवा॑महे॥ 1.16.4 PADAPAATH — ROMAN upa | naḥ | sutam | ā | gahi | hari-bhiḥ | indra | keśi-bhiḥ | sute | hi | tvā | havāmahe देवता —        इन्द्र:;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मेधातिथिः काण्वः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती (हि) जिस कारण यह (इन्द्र) वायु (केशिभिः) जिनके बहुत से केश अर्थात् किरण विद्यमान हैं, वे (हरिभिः) पदार्थों के हरने वा स्वीकार करनेवाले अग्नि विद्युत् और सूर्य्य के साथ (नः) हमारे (सुतम्) उत्पन्न किये हुएहोम वा शिल्प आदि व्यवहार के (उपागहि) निकट प्राप्त होता है, इससे (त्वा) उसको (सुते) उत्पन्न किये हुए होम वा...

ऋग्वेद 1.16.3

इन्द्रं प्रातर्हवामह इन्द्रं प्रयत्यध्वरे। इन्द्रं सोमस्य पीतये॥3॥ पदपाठ — देवनागरी इन्द्र॑म्। प्रा॒तः। ह॒वा॒म॒हे॒। इन्द्र॑म्। प्र॒ऽय॒ति। अ॒ध्व॒रे। इन्द्र॑म्। सोम॑स्य। पी॒तये॑॥ 1.16.3 PADAPAATH — ROMAN indram | prātaḥ | havāmahe | indram | pra-yati | adhvare | indram | somasya | pītaye देवता —        इन्द्र:;       छन्द —        पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मेधातिथिः काण्वः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती हम लोग (प्रातः) नित्य प्रति (इन्द्रम्) परम ऐश्वर्य्य देनेवाले ईश्वर का (प्रयत्यध्वरे) बुद्धिप्रद उपासना यज्ञ में (हवामहे) आह्वान करें। हम लोग (प्रयति) उत्तम ज्ञान देनेवाले (अध्वरे) क्रिया से सिद्ध होने योग्य यज्ञ में (प्रातः) प्रतिदिन (इन्द्रम्) उत्तम ऐश्वर्य्यसाधक विद्युत् अग्नि को (हवामहे) क्रियाओं में उपदेश कह सुनके संयुक्त करें,तथा हम लोग (सोमस्य) सब पदार्थों के सार रस को (पीतये) पीने के लिये (प्रातः) प्रतिदिन यज्ञ...