ऋग्वेद 1.17.5
इन्द्रः सहस्रदाव्नां वरुणः शंस्यानाम्। क्रतुर्भवत्युक्थ्यः॥5॥ पदपाठ — देवनागरी इन्द्रः॑। स॒ह॒स्र॒ऽदाव्ना॑म्। वरु॑णः। शंस्या॑नाम्। क्रतुः॑। भ॒व॒ति॒। उ॒क्थ्यः॑॥ 1.17.5 PADAPAATH — ROMAN indraḥ | sahasra-dāvnām | varuṇaḥ | śaṃsyānām | kratuḥ | bhavati | ukthyaḥ देवता — इन्द्रावरुणौ ; छन्द — भुरिगार्चीगायत्री ; स्वर — षड्जः; ऋषि — मेधातिथिः काण्वः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती सब मनुष्यों को योग्य है कि जो (इन्द्रः) अग्नि बजुली और सूर्य्य (हि) जिस कारण (सहस्रदाव्नाम्) असंख्यात धन के देनेवालों के मध्य में (क्रतुः) उत्तमता से कार्य्यों को सिद्धि करनेवाले (भवति) होते हैं, तथा जो (वरुणः) जल पवन और चन्द्रमा भी (शंस्यानाम्) प्रशंसनीय पदार्थों में उत्तमता से कार्य्यों के साधक है। इससे जानना चाहिये कि उक्त बिजुली आदि पदार्थ (उक्थ्यः) साधुता के साथ विद्या की सिद्धि करने में उत्तम हैं॥5॥ भावार्थ — महर्षि...