ऋग्वेद 1.20.2
य इन्द्राय वचोयुजा ततक्षुर्मनसा हरी। शमीभिर्यज्ञमाशत॥2॥ पदपाठ — देवनागरी ये। इन्द्रा॑य। व॒चः॒ऽयुजा॑। त॒त॒क्षुः। मन॑सा। हरी॒ इति॑। शमा॑ईभिः। य॒ज्ञम्। आ॒श॒त॒॥ 1.20.2 PADAPAATH — ROMAN ye | indrāya | vacaḥ-yujā | tatakṣuḥ | manasā | harī iti | śamāībhiḥ | yajñam | āśata देवता — ऋभवः ; छन्द — गायत्री; स्वर — षड्जः; ऋषि — मेधातिथिः काण्वः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती (ये) जो ॠभु अर्थात् उत्तम बुद्धिवाले विद्वान् लोग (मनसा) अपने विज्ञान से (वचोयुजा) वाणियों से सिद्ध किये हुए (हरी) गमन और धारण गुणों को (ततक्षुः) अतिसूक्ष्म करते और उनको (शमीभिः) दण्डों को कलायन्त्रों को घुमा के (इन्द्राय) ऐश्वर्य्यप्राप्ति के लिये (यज्ञम्) पुरुषार्थ से सिद्ध करने योग्य यज्ञ को (आशत) परिपूर्ण करते हैं, वे सुखों को बढ़ा सकते हैं॥2॥ भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती जो विद्वान् पदार्थों के...