ऋग्वेद 1.20.8
अधारयन्त वह्नयोऽभजन्त सुकृत्यया। भागं देवेषु यज्ञियम्॥8॥ पदपाठ — देवनागरी अधा॑रयन्त। वह्न॑यः। अभ॑जन्त। सु॒ऽकृ॒त्यया॑। भा॒गम्। दे॒वेषु॑। य॒ज्ञिय॑म्॥ 1.20.8 PADAPAATH — ROMAN adhārayanta | vahnayaḥ | abhajanta | su-kṛtyayā | bhāgam | deveṣu | yajñiyam देवता — ऋभवः ; छन्द — पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री; स्वर — षड्जः; ऋषि — मेधातिथिः काण्वः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती जो (वह्नयः) संसार में शुभकर्म वा उत्तम गुणों को प्राप्त करानेवाले बुद्धिमान् सज्जन पुरुष (सुकृत्यया) श्रेष्ठ कर्म से (देवेषु) विद्वानों में रहकर (यज्ञियम्) यज्ञ से सिद्ध कर्म को (अधारयन्त) धारण करते हैं, वे (भागम्) आनन्द को निरन्तर (अभजन्त) सेवन करते हैं॥8॥ भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती मनुष्यों को योग्य है कि अच्छे कर्म वा विद्वानों की संगति तथा पूर्वोक्त यज्ञ के अनुष्ठान से व्यवहार सुख से लेकर मोक्षपर्यन्त...