Author: Sanjeev Kumar

ऋग्वेद 1.22.6

अपां नपातमवसे सवितारमुप स्तुहि। तस्य व्रतान्युश्मसि॥6॥ पदपाठ — देवनागरी अ॒पाम्। नपा॑तम्। अव॑से। स॒वि॒तार॑म्। उप॑। स्तु॒हि॒। तस्य॑। व्र॒तानि॑। उ॒श्म॒सि॒॥ 1.22.6 PADAPAATH — ROMAN apām | napātam | avase | savitāram | upa | stuhi | tasya | vratāni | uśmasi देवता —        सविता ;       छन्द —        निचृद्गायत्री ;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मेधातिथिः काण्वः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती हे धार्मिक विद्वान् मनुष्य ! जैसे मैं (अवसे) रक्षा आदि के लिये (अपाम्) जो सब पदार्थों को व्याप्त होने अन्त आदि पदार्थों के वर्ताने तथा (नपातम्) अविनाशी और (सवितारम्) सकल ऐश्वर्य्य के देनेवाले परमेश्वर की स्तुति करता हूँ, वैसे तू भी उसकी (उपस्तुहि) निरन्तर प्रशंसा कर। हे मनुष्यो ! जैसे हम लोग जिसके (व्रतानि) निरन्तर धर्मयुक्त कर्मों को (उश्मसि) प्राप्त होने...

ऋग्वेद 1.22.5

हिरण्यपाणिमूतये सवितारमुप ह्वये। स चेत्ता देवता पदम्॥5॥ पदपाठ — देवनागरी हिर॑ण्यऽपाणिम्। ऊ॒तये॑। स॒वि॒तार॑म्। उप॑। ह्व॒ये॒। सः। चेत्ता॑। दे॒वता॑। प॒दम्॥ 1.22.5 PADAPAATH — ROMAN hiraṇya-pāṇim | ūtaye | savitāram | upa | hvaye | saḥ | cettā | devatā | padam देवता —        सविता ;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मेधातिथिः काण्वः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती मैं (ऊतये) प्रीति के लिये जो (पदम्) सब चराचर जगत् को प्राप्त और (हिरण्यपाणिम्) जिससे व्यवहार में सुवर्ण आदि रत्न मिलते हैं, उस (सवितारम्) सब जगत् के अन्तर्यामी ईश्वर को (उपह्वये) अच्छी प्रकार स्वीकार करता हूँ (सः) वह परमेश्वर (चेत्ता) ज्ञानस्वरूप और (देवता) पूज्यतम देव है॥5॥ भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती मनुष्यों को जो चेतनमय सब जगह प्राप्त होने और निरन्तर...

ऋग्वेद 1.22.4

नहि वामस्ति दूरके यत्रा रथेन गच्छथः। अश्विना सोमिनो गृहम्॥4॥ पदपाठ — देवनागरी न॒हि। वा॒म्। अस्ति॑। दू॒र॒के। यत्र॑। रथे॑न। गच्छ॑थः। अश्वि॑ना। सो॒मिनः॑। गृ॒हम्॥ 1.22.4 PADAPAATH — ROMAN nahi | vām | asti | dūrake | yatra | rathena | gacchathaḥ | aśvinā | sominaḥ | gṛham देवता —        अश्विनौ ;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मेधातिथिः काण्वः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती हे रथों के रचने वा चलानेहारे सज्जनलोगों ! तुम (यत्र) जहां उक्त (अश्विना) अश्वियों से संयुक्त (रथेन) विमान आदि यान से (सोमिनः) जिसके प्रशंसनीय पदार्थ विद्यमान हैं उस पदार्थ विद्यावाले के (गृहम्) घर को (गच्छथः) जाते हो वह दूरस्थान भी (वाम्) तुमको (दूरके) दूर (नहि) नहीं है॥4॥ भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती हे मनुष्यो ! जिस...

ऋग्वेद 1.22.3

या वां कशा मधुमत्यश्विना सूनृतावती। तया यज्ञं मिमिक्षतम्॥3॥ पदपाठ — देवनागरी या। वा॒म्। कशा॑। मधु॑ऽमती। अश्वि॑ना। सू॒नृता॑ऽवती। तया॑। य॒ज्ञम्। मि॒मि॒क्ष॒त॒म्॥ 1.22.3 PADAPAATH — ROMAN yā | vām | kaśā | madhu-matī | aśvinā | sūnṛtāvatī | tayā | yajñam | mimikṣatam देवता —        अश्विनौ ;       छन्द —        पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मेधातिथिः काण्वः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती हे उपदेश करने वा सुनने तथा पढ़ने–पढ़ानेवाले मनुष्यो ! (वाम्) तुम्हारे (अश्विना) गुणप्रकाश करनेवालों की (या) जो (सूनृतावती) प्रशंसनीय बुद्धि से सहित (मधुमती) मधुरगुणयुक्त (कशा) वाणी है (तया) उससे तुम (यज्ञम्) श्रेष्ठ शिक्षारूप यज्ञ को (मिमिक्षतम्) प्रकाश करने की इच्छा नित्य किया करो॥3॥ भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती उपदेश के बिना किसी मनुष्य को ज्ञान की वृद्धि कुछ भी नहीं...

ऋग्वेद 1.22.2

या सुरथा रथीतमोभा देवा दिविस्पृशा। अश्विना ता हवामहे॥2॥ पदपाठ — देवनागरी या। सु॒ऽरथा॑। र॒थिऽत॑मा। उ॒भा। दे॒वा। दि॒वि॒ऽस्पृशा॑। अ॒श्विना॑। ता। ह॒वा॒म॒हे॒॥ 1.22.2 PADAPAATH — ROMAN yā | su-rathā | rathi-tamā | ubhā | devā | divi-spṛśā | aśvinā | tā | havāmahe देवता —        अश्विनौ ;       छन्द —        पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मेधातिथिः काण्वः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती हम लोग (या) जो (दिविस्पृशा) आकाशमार्ग से विमान आदि यानों को एक स्थान से दूसरे स्थान में शीघ्र पहुँचाने (रथीतमा) निरन्तर प्रशंसनीय रथों को सिद्ध करनेवाले (सुरथा) जिनके योग से उत्तम-2 रथ सिद्ध होते हैं, (देवा) प्रकाशादि गुणवाले (अश्विनौ) व्याप्तिस्वभाववाले पूर्वोक्त अग्नि और जल हैं, (ता) उन (उभा) एक-दूसरे के साथ संयोग करने योग्यों को (हवामहे) ग्रहण करते हैं॥2॥ भावार्थ...

ऋग्वेद 1.22.1

प्रातर्युजा वि बोधयाश्विनावेह गच्छताम्। अस्य सोमस्य पीतये॥1॥ पदपाठ — देवनागरी प्रा॒तः॒ऽयुजा॑। वि। बो॒ध॒य॒। अ॒श्विनौ॑। आ। इ॒ह। ग॒च्छ॒ता॒म्। अ॒स्य। सोम॑स्य। पी॒तये॑॥ 1.22.1 PADAPAATH — ROMAN prātaḥ-yujā | vi | bodhaya | aśvinau | ā | iha | gacchatām | asya | somasya | pītaye देवता —        अश्विनौ ;       छन्द —        पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मेधातिथिः काण्वः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती हे विद्वन मनुष्य ! जो (प्रातर्युजा) शिल्पविद्या सिद्ध यन्त्रकलाओं में पहिले बल देनेवाले (अश्विनौ) अग्नि और पृथिवी (इह) इस शिल्प व्यवहार में (गच्छताम्) प्राप्त होते हैं, इससे उनको (अस्य) इस (सोमस्य) उत्पन्न करने योग्य सुख समूह की (पीतये) प्राप्ति के लिये तुम हमको (विबोधय) अच्छी प्रकार विदित कराइये॥1॥ भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती शिल्प कार्य्यों की सिद्धि करने...