Author: Sanjeev Kumar

ऋग्वेद 1.22.12

इहेन्द्राणीमुप ह्वये वरुणानीं स्वस्तये। अग्नायीं सोमपीतये॥12॥ पदपाठ — देवनागरी इ॒ह। इ॒न्द्रा॒णीम्। उप॑। ह्व॒ये॒। व॒रु॒णा॒नीम्। स्व॒स्तये॑। अ॒ग्नायी॑म्। सोम॑ऽपीतये॥ 1.22.12 PADAPAATH — ROMAN iha | indrāṇīm | upa | hvaye | varuṇānīm | svastaye | agnāyīm | soma-pītaye देवता —        इन्द्राणीवरुणान्यग्नाय्यः ;       छन्द —        पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मेधातिथिः काण्वः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती हे मनुष्य लोगो ! जैसे हम लोग (इह ) इस व्यवहार में (स्वस्तये) अविनाशी प्रशंसनीय सुख वा (सोमपीतये) ऐश्वर्य्यों का जिस में भोग होता है उस कर्म के लिये जैसा (इन्द्राणीम्) सूर्य्य (वरुणानीम्) वायु वा जल और (अग्नायीम्) अग्नि की शक्ति हैं, वैसी स्त्रियों को पुरुष और पुरुषों को स्त्री लोग (उपह्वये) उपयोग के लिये स्वीकार करें वैसे तुम भी ग्रहण करो॥12॥ भावार्थ — महर्षि दयानन्द...

ऋग्वेद 1.22.11

अभि नो देवीरवसा महः शर्मणा नृपत्नीः। अच्छिन्नपत्राः सचन्ताम्॥11॥ पदपाठ — देवनागरी अ॒भि। नः॒। दे॒वीः। अव॑सा। म॒हः। शर्म॑णा। नृ॒ऽपत्नीः॑। अच्छि॑न्नऽपत्राः। स॒च॒न्ता॒म्॥ 1.22.11 PADAPAATH — ROMAN abhi | naḥ | devīḥ | avasā | mahaḥ | śarmaṇā | nṛ-patnīḥ | acchinna-patrāḥ | sacantām देवता —        देव्यः;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मेधातिथिः काण्वः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती जैसी विद्या गुण कर्म और स्वभाववाले पुरुष हों उनकी स्त्री भी वैसी ही होनी ठीक हैं, क्योंकि जैसा तुल्य रूप विद्या गुण कर्म स्वभाववालों को सुख का सम्भव होता है, वैसा अन्य को भी नहीं हो सकता। इससे स्त्री अपने समान पुरुष वा पुरुष अपने समान स्त्रियों के साथ आपस में प्रसन्न होकर स्वयंवर विधान से विवाह करके सब कर्मों को सिद्ध करें॥11॥...

ऋग्वेद 1.22.10

आ ग्ना अग्न इहावसे होत्रां यविष्ठ भारतीम्। वरूत्रीं धिषणां वह॥10॥ पदपाठ — देवनागरी आ। ग्नाः। अ॒ग्ने॒। इ॒ह। अव॑से। होत्रा॑म्। य॒वि॒ष्ठ॒। भार॑तीम्। वरू॑त्रीम्। धि॒षणा॑म्। व॒ह॒॥ 1.22.10 PADAPAATH — ROMAN ā | gnāḥ | agne | iha | avase | hotrām | yaviṣṭha | bhāratīm | varūtrīm | dhiṣaṇām | vaha देवता —        अग्निः ;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मेधातिथिः काण्वः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती हे (यविष्ठ) पदार्थों को मिलाने वा मिलनेवाले (अग्ने) क्रियाकुशल विद्वान् ! तू (इह) शिल्पकार्य्यों में (अवसे) प्रवेश करने के लिये (ग्नाः) पृथिवी आदि पदार्थ (होत्राम्) होम किये हुये पदार्थों को बढ़ाने (भारतीम्) सूर्य्य की प्रभा (वरुत्रीम्) स्वीकार करने योग्य दिन रात्रि और (धिषणाम्) जिससे पदार्थों को ग्रहण करते हैं उस वाणी को...

ऋग्वेद 1.22.9

अग्ने पत्नीरिहा वह देवानामुशतीरुप। त्वष्टारं सोमपीतये॥9॥ पदपाठ — देवनागरी अग्ने॑। पत्नीः॑। इ॒ह। आ। व॒ह॒। दे॒वाना॑म्। उ॒श॒तीः। उप॑। त्वष्टा॑रम्। सोम॑ऽपीतये॥ 1.22.9 PADAPAATH — ROMAN agne | patnīḥ | iha | ā | vaha | devānām | uśatīḥ | upa | tvaṣṭāram | soma-pītaye देवता —        अग्निः ;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मेधातिथिः काण्वः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती (अग्ने) जो यह भौतिक अग्नि (सोमपीतये) जिस व्यवहार में सोम आदि पदार्थों का ग्रहण होता है उसके लिये (देवानाम्) इकत्तीस जो कि पृथिवी आदि लोक हैं उनकी (उशतीः) अपने-अपने आधार के गुणों को प्रकाश करनेवाला (पत्नीः) स्त्रीवत् वर्त्तमान अदिति आदि पत्नी और (त्वष्टारम्) छेदन करनेवाले सूर्य्य वा कारीगर को (उपावह) अपने सामने प्राप्त करता है उसका प्रयोग ठीक-ठीक करें॥9॥...

ऋग्वेद 1.22.8

सखाय आ नि षीदत सविता स्तोम्यो नु नः। दाता राधांसि शुम्भति॥8॥ पदपाठ — देवनागरी सखा॑यः। आ। नि। सी॒द॒त॒। स॒वि॒ता। स्तोम्यः॑। नु। नः॒। दाता॑। राधां॑सि। शु॒म्भ॒ति॒॥ 1.22.8 PADAPAATH — ROMAN sakhāyaḥ | ā | ni | sīdata | savitā | stomyaḥ | nu | naḥ | dātā | rādhāṃsi | śumbhati देवता —        सविता ;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मेधातिथिः काण्वः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती हे मनुष्यो ! तुम लोग सदा (सखायः) आपस में मित्र सुख वा उपकार करनेवाले होकर (आनिषीदत) सब प्रकार स्थित रहो। और जो (स्तोभ्यः) प्रशंसनीय (नः) हमारे लिये (राधांसि) अनेक प्रकार के उत्तम धनों को (दाता) देनेवाला (सविता) सकल ऐश्वर्य्ययुक्त जगदीश्वर (शुम्भति) सबको सुशोभित करता है उसकी (नु) शीघ्रता के साथ नित्य...

ऋग्वेद 1.22.7

विभक्तारं हवामहे वसोश्चित्रस्य राधसः। सवितारं नृचक्षसम्॥7॥ पदपाठ — देवनागरी वि॒ऽभ॒क्तार॑म्। ह॒वा॒म॒हे॒। वसोः॑। चि॒त्रस्य॑। राध॑सः। स॒वि॒तार॑म्। नृ॒ऽचक्ष॑सम्॥ 1.22.7 PADAPAATH — ROMAN vi-bhaktāram | havāmahe | vasoḥ | citrasya | rādhasaḥ | savitāram | nṛ-cakṣasam देवता —        सविता ;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मेधातिथिः काण्वः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती हे मनुष्य लोगो ! जैसे हम लोग (नृचक्षसम्) मनुष्यों में अन्तर्य्यामि रूप से विज्ञान प्रकाश करने (वसोः) पदार्थों से उत्पन्न हुए (चित्रस्य) अद्भुत (राधसः) विद्या सुवर्ण वा चक्रवर्त्ति राज्य आदि धन के यथायोग्य (विभक्तारम्) जीवों के कर्म के अनुकूल विभाग से फल देने वा (सवितारम्) जगत् के उत्पन्न करनेवाले परमेश्वर और (नृचक्षसम्) जो मूर्त्तिमान् द्रव्यों का प्रकाश करने (वसोः) (चित्रस्य) (राधसः) उक्त धन सम्बन्धी पदार्थों को (विभक्तारम्) अलग-अलग...