Author: Sanjeev Kumar

ऋग्वेद 1.23.3

इन्द्रवायू मनोजुवा विप्रा हवन्त ऊतये। सहस्राक्षा धियस्पती॥3॥ पदपाठ — देवनागरी इ॒न्द्र॒वा॒यू इति॑। म॒नः॒ऽजुवा॑। विप्राः॑। ह॒व॒न्ते॒। ऊ॒तये॑। स॒ह॒स्र॒ऽअ॒क्षा। धि॒यः। पती॒ इति॑॥ 1.23.3 PADAPAATH — ROMAN indravāyū iti | manaḥ-juvā | viprāḥ | havante | ūtaye | sahasra-akṣā | dhiyaḥ | patī iti देवता —        इन्द्रवायू ;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मेधातिथिः काण्वः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती (विप्राः) विद्वान् लोग (ऊतये) क्रियासिद्धि की इच्छा के लिये जो (सहस्राक्षा) जिनसे असंख्यात अक्ष अर्थात् इन्द्रियवत् साधन सिद्ध होते (धियः) शिल्प कर्म के (पती) पालने और (मनोजुवा) मन के समान वेगवाले हैं उन (इन्द्रवायू) विद्युत् और पवन को (हवन्ते) ग्रहण करते हैं, उनके जानने की इच्छा अन्य लोग भी क्यों न करें॥3॥ भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती विद्वानों को उचित...

ऋग्वेद 1.23.2

उभा देवा दिविस्पृशेन्द्रवायू हवामहे। अस्य सोमस्य पीतये॥2॥ पदपाठ — देवनागरी उ॒भा। दे॒वा। दि॒वि॒ऽस्पृशा॑। इ॒न्द्र॒वा॒यू इति॑। ह॒वा॒म॒हे॒। अ॒स्य। सोम॑स्य। पी॒तये॑॥ 1.23.2 PADAPAATH — ROMAN ubhā | devā | divi-spṛśā | indravāyū iti | havāmahe | asya | somasya | pītaye देवता —        इन्द्रवायू ;       छन्द —        पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मेधातिथिः काण्वः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती हम लोग (अस्य) इस प्रत्यक्ष वा अप्रत्यक्ष (सोमस्य) उत्पन्न करनेवाले संसार के सुख के (पीतये) भोगने के लिये (दिविस्पृशा) जो प्रकाशयुक्त आकाश में विमान आदि यानों को पहुँचाने और (देवा) दिव्यगुणवाले (उभा) दोनों (इन्द्र वायू) अग्नि और पवन हैँ। उनको (हवामहे) साधने की इच्छा करते हैं॥2॥ भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती जो अग्नि पवन और जो वायु अग्नि से प्रकाशित होता है,...

ऋग्वेद 1.23.1

तीव्राः सोमास आ गह्याशीर्वन्तः सुता इमे। वायो तान्प्रस्थितान्पिब॥1॥ पदपाठ — देवनागरी ती॒व्राः। सोमा॑सः। आ। ग॒हि॒। आ॒शीःऽव॑न्तः। सु॒ताः। इ॒मे। वायो॒ इति॑। तान्। प्रऽस्थि॑तान्। पि॒ब॒॥ 1.23.1 PADAPAATH — ROMAN tīvrāḥ | somāsaḥ | ā | gahi | āśīḥ-vantaḥ | sutāḥ | ime | vāyo iti | tān | pra-sthitān | piba देवता —        वायु: ;       छन्द —        निचृद्गायत्री ;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मेधातिथिः काण्वः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती जो (इमे) (तीब्राः) तीक्ष्णवेगयुक्त (आशीर्वन्तः) जिनकी कामना प्रशंसनीय होती है (सुताः) उत्पन्न हो चुके वा (सोमासः) प्रत्यक्ष में होते हैं (तान्) उन सभों को (वायो) पवन (आगहि) सर्वथा प्राप्त होता है तथा यही उन (प्रस्थितान्) इधर-उधर अति सूक्ष्मरूप से चलायमानों को (पिब) अपने भीतर कर लेता है, जो इस मन्त्र में...

ऋग्वेद 1.22.21

तद्विप्रासो विपन्यवो जागृवांसः समिन्धते। विष्णोर्यत्परमं पदम्॥21॥ पदपाठ — देवनागरी तत्। विप्रा॑सः। वि॒प॒न्यवः॑। जा॒गृ॒ऽवांसः॑। सम्। इ॒न्ध॒ते॒। विष्णोः॑। यत्। प॒र॒मम्। प॒दम्॥ 1.22.21 PADAPAATH — ROMAN tat | viprāsaḥ | vipanyavaḥ | jāgṛ-vāṃsaḥ | sam | indhate | viṣṇoḥ | yat | paramam | padam देवता —        विष्णुः ;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मेधातिथिः काण्वः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती (विष्णोः) व्यापक जगदीश्वर का (यत्) जो उक्त (परमम्) सब उत्तम गुणों से प्रकाशित (पदम्) प्राप्त होने योग्य पद है (तत्) उसको (विपन्यवः) अनेक प्रकार के जगदीश्वर के गुणों की प्रशंसा करनेवाले (जागृवांसः) सत्कर्म में जागृत (विप्रासः) बुद्धिमान् सज्जनपुरुष हैं, वे ही (समिन्धते) अच्छे प्रकार प्रकाशित करके प्राप्त होते हैं॥21॥ भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती जो मनुष्य अविद्या और अधर्माचरणरूप...

ऋग्वेद 1.22.20

तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः। दिवीव चक्षुराततम्॥20॥ पदपाठ — देवनागरी तत्। विष्णोः॑। प॒र॒मम्। प॒दम्। सदा॑। प॒श्य॒न्ति॒। सू॒रयः॑। दि॒विऽइ॑व। चक्षुः॑। आऽत॑तम्॥ 1.22.20 PADAPAATH — ROMAN tat | viṣṇoḥ | paramam | padam | sadā | paśyanti | sūrayaḥ | divi-iva | cakṣuḥ | ātatam देवता —        विष्णुः ;       छन्द —        गायत्री;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मेधातिथिः काण्वः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती (सूरयः) धार्मिक विद्वान् पुरुषार्थी विद्वान् लोग (दिवि) सूर्य आदि के प्रकाश में (आततम्) फैले हुए (चक्षुरिव) नेत्रों के समान जो (विष्णोः) व्यापक आनन्दस्वरुप परमेश्वर का विस्तृत (परमम्) उत्तम से उत्तम (पदम्) चाहने जानने और प्राप्त होने योग्य उक्त वा वक्ष्यमाण पद है (तत्) उसको सदा सब काल में विमल शुद्ध ज्ञान के द्वारा अपने आत्मा में (पश्यन्ति)...

ऋग्वेद 1.22.19

विष्णोः कर्माणि पश्यत यतो व्रतानि पस्पशे। इन्द्रस्य युज्यः सखा॥19॥ पदपाठ — देवनागरी विष्णोः॑। कर्मा॑णि। प॒श्य॒त॒। यतः॑। व्र॒तानि॑। प॒स्प॒शे। इन्द्र॑स्य। युज्यः॑। सखा॑॥ 1.22.19 PADAPAATH — ROMAN viṣṇoḥ | karmāṇi | paśyata | yataḥ | vratāni | paspaśe | indrasya | yujyaḥ | sakhā देवता —        विष्णुः ;       छन्द —        निचृद्गायत्री ;       स्वर —        षड्जः;       ऋषि —        मेधातिथिः काण्वः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती हे मनुष्य लोगो ! तुम जो (इन्द्रस्य) जीव का (युज्यः) अर्थात् जो अपनी व्याप्ति से पदार्थों में संयोग करनेवाले दिशा, काल और आकाश हैं, उनमें व्यापक होके रमने वा (सखा) सर्व सुखों के सम्पादन करने से मित्र हैं (यतः) जिससे जीव (व्रतानि) सत्य बोलने और न्याय करने आदि उत्तम कर्मों को (पस्पशे) प्राप्त होता है उस (विष्णोः) सर्वत्र...