ऋग्वेद 1.23.9
हत वृत्रं सुदानव इन्द्रेण सहसा युजा। मा नो दुःशंस ईशत॥9॥ पदपाठ — देवनागरी ह॒त। वृ॒त्रम्। सु॒ऽदा॒न॒व॒। इन्द्रे॑ण। सह॑सा। यु॒जा। मा। नः॒। दुः॒ऽशंसः॑। ई॒श॒त॒॥ 1.23.9 PADAPAATH — ROMAN hata | vṛtram | su-dānava | indreṇa | sahasā | yujā | mā | naḥ | duḥ-śaṃsaḥ | īśata देवता — इन्द्रोमरुत्वान् ; छन्द — गायत्री; स्वर — षड्जः; ऋषि — मेधातिथिः काण्वः मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती हे विद्वान् लोगो ! आप जो (सुदानवः) उत्तम पदार्थों को प्राप्त कराने (सहसा) बल और (युजा) अपने अनुषंगी (इन्द्रेण) सूर्य्य वा बिजुली के साथी होकर (वृत्रम्) मेघ को (हत) छिन्न-भिन्न करते हैं उनसे (नः) हम लोगों के (दुःशंसः) दुःख करानेवाले (मा) (ईशत) कभी मत हूजिये॥9॥ भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती हम लोग ठीक पुरुषार्थ और...