ऋग्वेद 1.22.4

नहि वामस्ति दूरके यत्रा रथेन गच्छथः। अश्विना सोमिनो गृहम्॥4॥

पदपाठ — देवनागरी
न॒हि। वा॒म्। अस्ति॑। दू॒र॒के। यत्र॑। रथे॑न। गच्छ॑थः। अश्वि॑ना। सो॒मिनः॑। गृ॒हम्॥ 1.22.4

PADAPAATH — ROMAN
nahi | vām | asti | dūrake | yatra | rathena | gacchathaḥ | aśvinā | sominaḥ | gṛham

देवता —        अश्विनौ ;       छन्द        गायत्री;      
स्वर        षड्जः;       ऋषि        मेधातिथिः काण्वः

मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
हे रथों के रचने वा चलानेहारे सज्जनलोगों ! तुम (यत्र) जहां उक्त (अश्विना) अश्वियों से संयुक्त (रथेन) विमान आदि यान से (सोमिनः) जिसके प्रशंसनीय पदार्थ विद्यमान हैं उस पदार्थ विद्यावाले के (गृहम्) घर को (गच्छथः) जाते हो वह दूरस्थान भी (वाम्) तुमको (दूरके) दूर (नहि) नहीं है॥4॥

भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
हे मनुष्यो ! जिस कारण अग्नि और जल के वेगसे युक्त किया हुआ रथ अति दूर भी स्थानों को शीघ्र पहुँचाता है, इससे तुम लोगों को भी यह शिल्पविद्या का अनुष्ठान निरन्तर करना चाहिये॥4॥

रामगोविन्द त्रिवेदी (सायण भाष्य के आधार पर)
4. अश्विनीकुमार! सोमरस देनेवाले यजमान के जिस गृह की ओर रथ से जा रहे हो, वह गृह दूर नहीं है।

Ralph Thomas Hotchkin Griffith
4. As ye go thither in your car, not far, O Asvins, is the home Of him who offers Soma juice. 

Translation of Griffith Re-edited  by Tormod Kinnes
As you go there in your car, not far, Asvins, is the home Of him who offers soma juice. [4]

H H Wilson (On the basis of Sayana)
4. The abode of the offerer of the libation is not far from you, Asvins, going thither in your car.

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