ऋग्वेद 1.18.7
यस्मादृते न सिध्यति यज्ञो विपश्चितश्चन। स धीनां योगमिन्वति॥7॥
पदपाठ — देवनागरी
यस्मा॑त्। ऋ॒ते। न। सिध्य॑ति। य॒ज्ञः। वि॒पः॒ऽचितः॑। च॒न। सः। धी॒नाम्। योग॑म्। इ॒न्व॒ति॒॥ 1.18.7
PADAPAATH — ROMAN
yasmāt | ṛte | na | sidhyati | yajñaḥ | vipaḥ-citaḥ | cana | saḥ | dhīnām |
yogam | invati
देवता — सदसस्पतिः ; छन्द — गायत्री;
स्वर — षड्जः; ऋषि — मेधातिथिः काण्वः
मन्त्रार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
हे मनुष्यो ! (यस्मात्) जिस (विपश्चितः) अनन्त विद्यावाले सर्वशक्तिमान् जगदीश्वर के (ॠते) विना (यज्ञः) जो कि दृष्टिगोचर संसार है, सो (चन) कभी (न सिध्यति) सिद्ध नहीं हो सकता, (सः) वह जगदीश्वर सब मनुष्यों की (धीनाम्) बुद्धि और कर्मों को (योगम्) संयोग को (इन्वति) व्याप्त होता वा जानता है॥7॥
भावार्थ — महर्षि दयानन्द सरस्वती
व्यापक ईश्वर सबमें रहनेवाले और व्याप्य जगत् का नित्य सम्बन्ध है। वही सब संसार को रचकर तथा धारण करके सबकी बुद्धि और कर्मों को अच्छी प्रकार जानकर सब प्राणियों के लिये उनके शुभ अशुभ कर्मों के अनुसार सुख-दुःख रूप फल को देता है। कभी ईश्वर को छोड़ के अपने आप स्वभावमात्र से सिद्ध होनेवाला अर्थात् जिसका कोई स्वामी न हो ऐसा संसार नहीं हो सकता, क्योंकि जड़ पदार्थों के अचेतन होने से यथायोग्य नियम के साथ उत्पन्न होने की योग्यता कभी नहीं होती॥7॥
रामगोविन्द त्रिवेदी (सायण भाष्य के आधार पर)
7. जिनकी प्रसन्नता के बिना ज्ञानवान् का भी यज्ञ सिद्ध नहीं होता, वही अग्नि हमारी मानसिक वृत्तियों को सम्बन्ध-युक्त किये हुए हैं।
Ralph Thomas Hotchkin Griffith
7. He without whom no sacrifice, e’en of the wise man, prospers; he Stirs
up the series of thoughts.
Translation of Griffith Re-edited by Tormod Kinnes
He without whom no sacrifice, even of the wise man, prospers; he Stirs up the series of thoughts. [7]
Horace Hayman Wilson (On the basis of Sayana)
7. Without whose aid the sacrifice even of the wise is not perfected: he pervades the association of our thoughts.
Dhinam yogaminvati, which may mean, he pervades the association of our minds, or, the object of our pious acts; as Dhi means either, as usual, buddhi, understanding, or has the Vedic sense of karma, act.